19 मई, 2014 को अपने संस्थान में प्रौद्यागिकी दिवस कार्यक्रम में बैठे हुए मन में उपर्युक्त लेख लिखने का विचार आया। विज्ञान व प्राद्योगिकी में परस्पर गहरा सम्बन्ध है अर्थात् यह अन्योन्याश्रित हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं। पहले विज्ञान को लेते हैं। विज्ञान इस सृष्टि के पदार्थों का सूक्ष्म अध्ययन कर नये तथ्यों को सामने लाता है। वह पदार्थ के अस्तित्व, उसके गुण व स्वभाव, प्रवृत्ति, स्वरूप, आकार या बवउचवेपजपवद, अन्य पदार्थों के प्रति उसमें क्रिया तमंबजपवद की प्रवृत्ति आदि अन्यान्य सभी विषयों पर विचार करता है, प्रयोगशाला में प्रयोग व अध्ययन करता है और सभी तत्वों को आलेखित कर प्रस्तुत करता है। पदार्थों के सबसे छोटे या सूक्ष्म कण, परमाणु व अणु, का अध्ययन व उसके स्वरूप व गुणों एवं प्रकृति व प्रवृति का ज्ञान भी विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र में आता है। भौतिक पदार्थों में अनेक नियम कार्य करते हैं जिनका जन साधारण को ज्ञान नहीं होता। घनत्व, गुरूत्वाकर्षण, गति व स्थिति के नियम और उनमें गणितीय सम्बन्ध संयोजकता, आदि-आदि कुछ मौलिक बातें हैं जिन पर विज्ञान खड़ा है। हमारे वैज्ञानिकों ने जो अध्ययन अब तक किया है, उससे आधुनिक विज्ञान व उसके नियम, ज्ञान व नाना प्रकार के नये तथ्यों का उद्घाटन हुआ है। जो कार्य विगत दो-तीन शताब्दी में लोगों ने विज्ञान के क्षेत्र में किया है, उसे यदि उससे पूर्व के लोग भी मिलकर या पृथक-पृथक करते तो वही परिणाम सामने आते, जो कि आज आये हैं।
विज्ञान के बाद प्रौद्योगिकी का स्थान आता है। प्रौद्योगिकी एक प्रकार से विज्ञान का कार्य, उसका क्रियात्मक रूप या चंतज है। विज्ञान है तो प्रौद्योगिकी है। यदि विज्ञान न हो तो प्रौद्योगिकी भी अस्तित्व में नहीं आ सकती। प्रौद्योगिकी को इस प्रकार से समझ सकते हैं कि हम जिस वस्तु की आवश्यकता अनुभव करते हैं, उसका निर्माण, अनुसंधान व आविष्कार वैज्ञानिक ज्ञान के प्रयोगों को कर पूरा करते हैं। प्रौद्योगिकी, विज्ञान व उत्पाद के बीच एक प्रकार की वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो उस उत्पाद के निर्माण में विज्ञान के नियमों, सिद्धान्तों व जानकारी आदि का उपयोग करके अस्तित्व में लाई जाती है। हमने एक वैज्ञानिक संस्थान, भारतीय पेट्रोलियम संस्थान, देहरादून, में लगभग 34 वर्ष कार्य किया है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी के विकास, निर्माण व उसके क्रियान्वयन व उपयोग आदि कार्यों में हमें सहयोग करने का अवसर मिला है। अनेक प्रौद्योगिकियों के विकास कार्यों में, जो प्रोजेक्ट च्तवरमबज कहे जाते हैं, के साथ-साथ विकसित प्रौद्योगिकी को या या प्रौद्योगिकी में सुधार व संशोधन आदि वैज्ञानिक कार्यों को उद्योग में स्थापित कर उत्पादन के कार्य को आरम्भ करने में हमारी छोटी सी भूमिका रही है। इस कारण हम इससे जुड़े प्रश्नों को समझ सके हैं। एक उदाहरण के रूप में हम बताना चाहते हैं कि हमारे संस्थान के वैज्ञानिकों ने सल्फोलेन नाम की एक प्रौद्योगिकी विकसित की। यह सल्फोलेन रिफाइनरी उद्योग व अनेक क्षेत्रों में प्रयोग में लाई जाती है। जब यह विकसित हो गई तो इसे उद्योग में पहुंचाना था। प्रयास किए गये, एक उद्योग सामने आया, जिसने आवश्यकता के अनुरूप संयंत्र स्थापित किया। इस उद्योग ने इस तकनीकी ज्ञान व प्रौद्योगिकी का प्रयोग कर उत्पाद बनाया और देष-विदेष में उसका विक्रय किया। आज भी उसी प्रौद्यौगिकी का प्रयोग कर उत्पाद बन रहा है और देष व विदेष में उपभोक्ता उसका उपयोग कर रहे हैं। ऐसे अनेक विकास कार्य हुए जिनसे प्रौद्योगिकी विकसित हुईं और उनसे देश व नागरिकों को लाभ हो रहा है। इस प्रकार से अपने लक्ष्यों को निर्धारित कर विज्ञान के नियमों का प्रयोग करते हुए प्रौद्योगिकी विकास या निर्माण का कार्य किया जाता है अर्थात् इच्छित पदार्थ के निर्माण करने की विधि, कार्यशैली व पद्धति विकसित की जाती है और जब यह विकसित हो जाती है और बार-बार प्रयोग करने पर वही पदार्थ एक जैसा व एक समान रूप में बनता है, तो माना जाता है कि प्रौद्योगिकी अस्तित्व में आ गई है। इसी प्रकार से विभिन्न क्षेत्रों में नाना प्रकार के उत्पाद, भिन्न-भिन्न प्रौद्योगिकियों की सहायता से अस्तित्व में आ रहे हैं। यह संक्षिप्त रूप हमारी प्राद्योगिकियों का है।
अब हमें देखना है कि विज्ञान व प्रौद्योगिकी में ईश्वर की क्या भूमिका है। हम पहले निष्कर्ष बता कर उसकी व्याख्या करेंगे। निष्कर्ष में हम कहना चाहेगें कि ईश्वर विज्ञान व प्राद्योगिकी का मूल आधार है। ईश्वर है तो विज्ञान व प्राद्योगिकी है, यदि वह न हो और सहयोग न करे, तो विज्ञान व प्रौद्योगिकी अस्तित्व में आ ही नहीं सकती, कैसे? यह सृष्टि या ब्रह्माण्ड 1,96,08,53,114 वर्ष पूर्व बना है। इससे पूर्व सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया चली जो 2,59,20,000 वर्षों में पूर्ण हुई। इस प्रक्रिया के आरम्भ होने से पूर्व यह सृष्टि अपनी कारणावस्था अर्थात् प्रलय अवस्था में थी। प्रलय अवस्था में निर्मित सृष्टि = कार्य प्रकृति अपनी कारण अवस्था = मूल प्रकृति की अवस्था में होती है। मूल प्रकृति, यदि वैज्ञानिक भाषा में कहें तो, इलेक्ट्रॉन, प्रोटान व न्यूट्रॉन आदि कणों या इससे भी पूर्व की अवस्था है। ईश्वर का अपना नियम है कि वह 4.32 अरब वर्ष के लिए सृष्टि रचकर उसका धारण, पालन करता है व इतनी ही अवधि तक प्रलय करता व उसे असृष्ट रखता हैै। अनन्त काल से यही क्रम चला आ रहा है और आगे भी अनन्त काल तक ऐसा ही होगा। सृष्टि को रचने व पालन करने तथा प्रलय करने वाला ईश्वर एक सत्य, चेतन व आनन्द स्वरूप सत्ता है जो सर्वज्ञ, अविनाशी, अजन्मा, नित्य, सर्वशक्तिमान, निराकार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, निरवयव, समरस व सर्वत्र एक समान, अविभाज्य, सर्वदेशी, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी आदि स्वरूप वाली सत्ता है। ईश्वर के अनन्त, गुण, कर्म व स्वभाव हैं। उसका ज्ञान पूर्ण व सर्वोत्तम, न्यूनतारहित, ज्ञान की पराकाष्ठा प्रकार का है। वह प्रलय के पष्चात सर्वप्रथम, मूल व कारण प्रकृति से इलेक्ट्रॉन, प्रोटान व न्यूट्रॉन बनाता है। इनसे परमाणु व परमाणुओं के समूह व संयोग से अणु बनाता है। ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाने से पूर्व भी असंख्य व अनन्त बार सृष्टियों को बनाया व चलाया है व उन सबकी प्रलय की है। उसका ज्ञान न्यूनाधिक अर्थात् घटता-बढ़ता नहीं है। यह क्रम आगे बढ़ता है और इससे पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, ग्रह-उपग्रहादि, ब्रह्माण्ड आदि व पृथ्वीस्थ सभी पदार्थ अस्तित्व में आते हैं। इस सृष्टि के निर्माण में ईष्वर ने विज्ञान व अनेक प्रौद्योगिकियों का प्रयोग किया है। इस प्रकार से वह सृष्टि की रचना करता है। सांख्य दर्षन के अनुसार सृष्टि की रचना, उत्पत्ति या निर्माण में कारण प्रकृति का पहला विकार महत्तत्व बुद्धि, उससे अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा सूक्ष्मभूत और इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत, ये चौबीस और पच्चीसवां पुरूष अर्थात् जीवन और परमेश्वर हैं (स्वामी दयानन्द सरस्वती)। ईश्वर के सृष्टि के रचियता होने के कारण उसे इसको बनाने, धारण करने व इसे चलाने में प्रयोग में आने वाले समस्त विज्ञान व सभी प्रौद्योगिकियों का पूर्ण ज्ञान है। उसने इसके निर्माण में अपने पूरे ज्ञान व तकनीकि व प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया है। मनुष्य व अन्य प्राणियों को भी उसने ही बनाया है। इस कारण मनुष्य के पास बुद्धि, मन, हृदय, चित्त, पांच ज्ञानेन्द्रियां व पांच कर्मेन्द्रियां आदि जो भी ज्ञान ग्राही यन्त्र व उपकरण हैं, वह उस ईश्वर की ही देन हैं।
मनुष्यों के हृदय व बुद्धि में प्रेरणा द्वारा वह ज्ञान आदि देता रहता है। इस प्रकार से वैज्ञानिकों ने विज्ञान के जिन नियमों, सिद्धान्तों व पदार्थों व उनके ज्ञान की खोजे की हैं, वह ईश्वर के ज्ञान, नियम व सिद्धान्तों की ही खोज है। संसार की रचना करने, उसे धारण करने व चलाने तथा सभी प्राणियों को उनके प्रारब्ध के अनुसार विभिन्न प्राणी योनियों में जन्म देने, मनुष्यों की बुद्धि में सत्यासत्य व ज्ञान की प्रेरणा करने आदि के कारण सभी ज्ञान, विज्ञान व प्रौद्योगिकी का मूल आधार वही सिद्ध होता है। वैज्ञानिक तो केवल अध्ययन, चिन्तन, मनन व ध्यान तथा प्रयोगों द्वारा इस सृष्टि व इसके पदार्थों का अध्ययन मात्र ही करता है। इसमें सिद्धि ईश्वर के सहयोग से मिलती है। इस प्रकार से ज्ञान, विज्ञान, प्रौद्योगिकी आदि का रचियता व मूलाधार परमेश्वर सिद्ध है। प्रत्येक वैज्ञानिक को इन तथ्यों को जानना व मानना चाहिये। यदि कोई ईश्वर को नहीं जानता व मानता है तो वह ईश्वर के प्रति कृतघ्नता करता है जो कि महापाप है। इस विवेचन से ईश्वर इस सृष्टि व इसके सभी पदार्थों का रचयिता, जन्मदाता, पालक, रक्षक, जीवों के कर्मों का फल प्रदाता आदि सिद्ध होता है।
इस लेख को विराम देने से पूर्व हम यह भी कहना चाहते हैं कि आज विज्ञान ने जितनी खोजें की हैं व नये-नये उत्पाद बनाये हैं, उनसे मनुूष्यों का जीवन बहुत अधिक सुखदायी हो गया है। इससे जीवन में आलस्य में वृद्धि हुई है और वह ईश्वर को जानने व उसकी उपासना करने से किंचित विमुख हुआ है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी यद्यपि अपने आप में अच्छे हैं, परन्तु इसके परिणाम से उत्पन्न सुविधाजनक वस्तुओं के अत्यधिक प्रयोग ने मनुष्यों को ईश्वर उपासना से दूर कर दिया है जिससे हम जीवन के लक्ष्य को भूल कर भटकाव की स्थिति में हैं। विज्ञान व प्रौद्योगिकी से असंख्य लाभ हैं परन्तु हमें इनमें से उन्हीं को चुनना है जिनसे हमारा आध्यात्मिक जीवन व उपासना कुप्रभावित न हों। इसका ध्यान रखेंगे तो लाभ में रहेंगे, अन्यथा लक्ष्य की पूर्ति न होने व उसके विमुख हो जाने से भारी हानि होने वाली है। अन्त में हम यह कहेंगे कि ईश्वर-विज्ञान-प्रौद्योगिकी-ईश्वर परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। इनका परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है। इस यथार्थ को हमें समझना है व विज्ञान व प्रौद्योगिकी की अधिकाधिक उन्नति करनी है जिससे देश व विश्व के लोगों का जीवनस्तर सुधर सके और वह आनन्द से अपनी आयु पूरी कर सकें। सृष्टि के निर्माण के सम्बन्ध में अधिक व हृदय को मान्य जानकारी के लिए हम पाठकों को सत्यार्थ प्रकाश का आठवां समुल्लास पढ़ने का निवेदन करते हैं।