“ईश्वर जीवात्मा के कल्याण के लिये उसे शरीर में भेजते हैं तथा समय आने पर उसका शरीर बदल देते हैं : डॉ. वागीश शास्त्री”

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मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

                आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के 139वे वार्षिकोत्सव के दूसरे दिन प्रातःकालीन सत्र के आरम्भ में आर्यसमाज के पुरोहित पं. विद्यापति शास्त्री जी के ब्रह्मत्व में यज्ञ हुआ। यज्ञ के बाद जलपान एवं उसके बाद बिजनौर से पधारे प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री कुलदीप आर्य एवं श्री अश्विनी आर्य के भजन एवं वरिष्ठ आर्य विद्वान डॉ. वागीश शास्त्री जी का व्याख्यान हुआ। एक भजन श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम की पूर्व छात्रा  श्रीमती ऋतु शर्मा का भी हुआ। उनके भजन के बोल थे जब तुम प्रभु से मिलना चाहो तो तुम प्रार्थना करो। जब जब ये मन घबराये तुम प्रार्थना करो यह भजन बहुत ही मधुर व प्रभावशाली रूप में गाया गया जिसके शब्दों व गायन विधा से भी श्रोता मन्त्रमुग्ध हो गये। इसके बाद श्री कुलदीप आर्य जी के भजन हुए। श्री कुलदीप आर्य जी की जितनी भी प्रशंसा की जाये वह कम होगी। श्री आर्य ने कहा कि हमें अपना मानव शरीर परमात्मा से मिलने के लिए मिला है परन्तु हम अपने जीवन में परमात्मा से मिल नहीं सके। उन्होंने पहला भजन गाया जिसके शब्द थे रे मनवा ओ३म् सुमिर दिन रैना, कट जायें तेरे सारे ताप पाप रे पायेगा सुख चैना, रे मनवा ओ३म् सुमिर दिन रैना। श्री आर्य ने दूसरा भजन गाया उसके बोल थे पाके सुन्दर बदन कर प्रभु का भजन दुनिया सानी का कोई भरोसा नहीं। आज आया यहां कल को जाना पड़े जिन्दगानी का कोई भरोसा नहीं श्री कुलदीप आर्य जी ने जो तीसरा भजन सुनाया उसके बोल थे किसी ने यह प्रश्न किया वैद्य लुकमान से, ऐसी भी दवा क्या कोई मिलती है दुकान से। जिसको खाकर के कभी कोई मरे। माटी के पुतले काहे को डरे। उत्तर मिले वहां चले कोई चतुराई न। मर्ज की दवा है लेकिन मौत की दवाई न।। इस भजन की एक महत्वपूर्ण पंक्ति यह भी थी सज धज के जब मौत की सहजादी आयेगी। सोना काम आयेगा चांदी आयेगी। छोटा सा है तू बड़े अरमान है तेरे। मिट्टी का तू है सोने के सामान हैं तेरे। मिट्टी काया मिट्टी में एक दिन मिल जायेगी। सोना काम आयेगा चांदी आयेगी।। श्री कुलदीप आर्य के अन्तिम गाये गये भजन के शब्द थे मुक्ति का तू कोई जतन कर ले, थोड़ा थोड़ा प्रभु का भजन कर ले। एक घंटे के भजनों में श्री कुलदीप आर्य जी ने भक्ति रस की मानो गंगा ही बहा दी। श्रोताओं ने उनके इस भक्ति रस में स्नान कर स्वयं को निहाल किया। भजनों के कार्यक्रम के सम्पन्न होने पर मंत्री श्री नवीन भट्ट जी ने श्री कुलदीप आर्य व उनके सहयोगी श्री अश्विनी आर्य की प्रशंसा की। उन्होंने आर्यसमाज के विद्वान डॉ. वागीश शास्त्री जी की एक वट-वृक्ष से उपमा दी और उन्हें आदरपूर्वक व्याख्यान के लिये आमंत्रित किया।

                सुप्रसिद्ध वैदिक विद्वान डॉ. वागीश आर्य जी ने अपने व्याख्यान के आरम्भ में कहा कि जब से मनुष्य इस धरती पर है वह सोचता आ रहा है कि जन्म से पहले क्या वह था और मृत्यु के बाद उसकी क्या स्थिति होगी? उन्होंने कहा कि संसार की सभी फिलासफियों के केन्द्र में यही प्रश्न होता है। आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य की एक आकांशा है के बुढ़ापे और मृत्यु के दुःख से उसे मुक्ति कैसे मिले। उन्होंने कहा कि आधुनिक विज्ञान तथा प्राचीन ज्ञान में जो चिन्तन हुआ है उस सबसे मैं परिचित हूं। मैं पूरे अधिकार के साथ यह कह सकता हूं कि दुःखों पर विजय पानी है तो उसका मार्ग केवल ऋषियों का बताया हुआ मार्ग ही है। हमें आनन्द की प्राप्ति भी ऋषियों के मार्ग का अनुसरण करके ही होगी। आचार्य जी ने विदेशी हावर्ड विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर कारसन का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि यह प्रोफेसर जब सेवानिवृत हुआ तो इसने सोचा कि अभी मेरे भीतर शक्ति है। मैं काम कर सकता हूं। उन्होंने बताया कि अमेरिका में सेवानिवृति के बाद भी यदि मनुष्य चाहें तो उसे काम करने की छूट दी जाती है। डा. कारसन ने विश्वविद्यालय के अधिकारियों से निवेदन किया कि मैं सक्षम हूं। अपना काम जारी रखना चाहता हूं। उनका विषय था कि मनुष्य बूढ़ा क्यों होता है, इस प्रश्न का वैज्ञानिक उत्तर खोजना है। इसके साथ यह भी देखना था कि मनुष्य की मृत्यु क्यों होती है, क्या इसे टाला जा सकता है? इस प्रोफेसर को काम जारी रखने की अनुमति मिल गई। इस व्यक्ति ने जीरोन टैक्नोलोजी पर अनुसंधान किया। विषय था कि मनुष्य बूढ़ा क्यों होता है और शरीर को छोड़ कर क्यों जाता है?

                आचार्य जी ने कहा कि बचपन से मनुष्य की ग्रोथ आरम्भ होती है। शरीर में नये सैल बनते हैं और पुराने नष्ट होते हैं। इनका सन्तुलन रहने पर मनुष्य युवा रहता है। फिर क्षीणता आती है। युंवावस्था के बाद आयु बढ़ने पर सैल नष्ट अधिक होते हैं और बनते कम हैं। यह क्रम धीरे धीरे बढ़ता ही जाता है। कालान्तर में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। यदि नष्ट होने वाले सैलों की मात्रा या गति को कम किया जा सके तो मृत्यु को रोका जा सकता है। सौभाग्य से उनको वहां एक ऐसा वृक्ष मिला जिसका नाम शिकोदा था। वह सैलों के डिजनरेशन से नहीं मरता था। उसकी मृत्यु का कारण कीड़े या आंधी-तूफान आदि के कारण नष्ट होना होता था। आचार्य जी ने कहा कि सभी अनुमान सत्य या प्रमाणित नहीं होते। अतः उनके इस अनुमान को भी माना नहीं जा सकता। हो सकता है कि शिकोदा वृक्ष में डिजनरेशन की प्रकिया बहुत धीमी हो। ऐसा होने पर मृत्यु का रास्ता खुला है। वृक्ष में कीड़ा लग सकता है जो मृत्यु का कारण बन सकता है। एक कारण मनुष्य भी बन सकता है। वह उस वृक्ष को काट सकता है। अनेक प्राणियों की जाति व प्रजातियों को मनुष्य ने नष्ट कर दिया है। आचार्य जी ने कहा कि हो सकता है कि विज्ञान एक दिन खोज कर ले जिससे नष्ट होने वाले सैल कम हो जायें या समाप्त ही हो जायें। प्रश्न होता है कि यदि ऐसा होता है तो क्या यह स्थिति सुखद होगी? जरावस्था वा वृद्धावस्था पर विजय मिल सकती है परन्तु मृत्यु पर विजय नहीं मिल सकती। मनुष्य आपस में लड़कर तो मर ही सकते हैं।

                डॉ. वागीश शास्त्री जी ने बताया कि अमेरिका में एक वैज्ञानिक ऐसा हुआ है जिसका ईश्वर में विश्वास था। वह मृत्यु से नहीं डरता था। उन्होने कहा है कि वह मनुष्य की रचना को देखता है तो इस रचना विशेष को देखकर उसे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास होता था। इस वैज्ञानिक के विचारों की आचार्य जी ने विस्तार से व्याख्या की। आचार्य जी ने कहा कि मां से बच्चे का जन्म होता है परन्तु मां को यह पता नहीं होता कि बच्चे की आंख कैसे बनती है? मां अपनी सन्तानों को नहीं बनाती है। वैज्ञानिक के अनुसार हम ज्ञान रहित प्रकृति पर मनुष्य व अन्य प्राणियों के शरीरों की रचना को नहीं छोड़ सकते। वह वैज्ञानिक इन तथ्यों के आधार पर संसार में एक तीसरी शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यही शक्ति मां के गर्भ में सन्तान के निर्माण व उसके जन्म के लिये जिम्मेदार है। बाहर व भीतर के जगत व सन्तान आदि की रचना को वह उसी शक्ति के द्वारा रचित व निर्मित मानते हैं। उस शक्ति को यह पता है कि बाहर प्रकाश के लिए सूर्य चाहिये और मनुष्य को संसार व उसके अन्यान्य पदार्थों को देखने के लियें आंखे चाहिये। इसी लिये उस तीसरी शक्ति ने सूर्य व आंख दोनों की रचना की है।

                आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री जी ने स्तुति-प्रार्थना-उपासना के आठ मंत्रों की चर्चा की। उन्होंने अपना निजी विचार बताते हुए कहा कि उन्हें यह आठ मन्त्र ईश्वर का ध्यान करने के लिये अधिक उपयोगी लगते हैं। आचार्य जी ने प्रार्थना के तीसरे मन्त्र आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते का उल्लेख कर इसके अर्थों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि महर्षि दयानन्द ईश्वर के भक्त थे। इस मन्त्र के अर्थों के आधार पर तो उनकी मृत्यु नहीं होनी चाहिये थी। आचार्य जी ने आगे कहा कि जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करते उनका प्रतिशत विश्व की कुल जनसंख्या का 10 प्रतिशत है। ईश्वर में विश्वास करने वालों का प्रतिशत 90 प्रतिशत है। जो ईश्वर में विश्वास करते हैं उसके 99 प्रतिशत लोग भी ईश्वर के सत्यस्वरूप को नहीं जानते और न वह सही विधि से ईश्वर की उपासना ही करते हैं। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द जी कहते हैं कि शरीर की मृत्यु तो होगी परन्तु ईश्वर को जानकर उसकी उचित विधि से उपासना करने से मनुष्य मृत्यु के भय से ऊपर उठकर भयमुक्त हो जाता है। आचार्य जी ने अपने प्रवचन को जारी रखते हुए कहा कि हमें मृत्यु के भय के मूल कारण को ढूंढ कर उसको दूर करना होगा। इसके उन्होंने कई उदाहरण दिये। वैज्ञानिकों के अनुसार मृत्यु का मूल कारण शरीर के सैलों का नष्ट होना है। आचार्य जी ने कहा कि मृत्यु के तो वैज्ञानिकों द्वारा बताये गये कारणों के अतिरिक्त भी अनेक कारण हैं। मृत्यु तो होनी ही है। यह सृष्टि के आदि काल से होती आ रही है और प्रलय काल तक जारी रहेगी।

                विद्वान आचार्य जी ने मृत्यु में बैक्टीरिया तथा वाइरस के योगदान की ओर भी ध्यान दिलाया। वैज्ञानिकों के अनुसार इनसे मृत्यु हो सकती है। उन्होंने कहा कि शरीर में सैलों का निर्माण न होना व उनका नष्ट होना एक बहुत छोटा सा कारण हैं। अन्य अनेक कारणों से भी मृत्यु हुआ करती है। सैलों के नष्ट होने या बैक्टीरियां आदि मृत्यु के पूर्ण कारण नहीं हैं। आचार्य जी ने कहा कि मृत्यु का असली कारण तो मनुष्य का जन्म होना है। जिसका जन्म होगा उसकी मृत्यु अवश्य होगी। जिसका आदि होता है उसका अन्त भी अवश्य होता है। शरीर बना है तो वह नष्ट भी होगा। मृत्यु से बचने का एक ही तरीका है कि मृत्यु के मूल कारण को नष्ट कर दो। आचार्य जी ने कहा कि जिस कारण से जन्म होता है उसको ही दूर कर देने हम मृत्यु के दुःख से बच सकते हैं। आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान डॉ. वागीश शा जी ने कहा कि वेद मन्त्रों का अर्थ जाने बिना व उनके गलत विनियोगों से आत्मा में प्रकाश नहीं हो सकता। मन्त्रों के सही अर्थ जानने और उनके सही विनियोगों से आत्मा में प्रकाश होता है।

                विद्वान आचार्य जी ने कहा कि सन्ध्या में हमारा मन नहीं लगता, इसका क्या कारण है? इसका कारण उन्होंने वेद मन्त्रों वा सन्ध्या के मन्त्रों के अर्थों का ज्ञान न होना बताया। आचार्य जी ने कहा कि भजन व प्रवचन में लोग अधिक उपस्थित होते हैं जबकि आर्यसमाज में यज्ञ-हवन के समय उपस्थिति कम होती है। इसका कारण यही है कि भजन व प्रवचन हमारी समझ में आते हैं जबकि यज्ञ के मन्त्रों के अर्थ बिना पढ़े व सुने हमें समझ नहीं आते। डॉ. वागीश शास्त्री जी ने कहा कि जितना श्रम मन्त्र को स्मरण करने में लगता है उसका आधा श्रम मन्त्र के अर्थ को याद करने में लगता है। हमें मन्त्र के अर्थों को पढ़कर उन्हें जानने का प्रयास करना चाहिये। हम जितना जितना मन्त्र के अर्थ को जानेंगे उतना उतना दुःख से ऊपर उठेंगे। इसी क्रम में आचार्य जी ने मृत्यंजय मन्त्र के पाठ की चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि रोग निवृत्ति तथा आयु वृद्धि की प्रार्थना इस मन्त्र में नहीं है। अतः इस मन्त्र के जप से यह लाभ प्राप्त नहीं होगा। आचार्य जी ने रोग निवृत्ति और आयु वृद्धि के अनेक मन्त्र सुनाये जिनमें ईश्वर से इनकी प्राप्ति की प्रार्थना की गई है। आचार्य जी ने उनके द्वारा बोले गये मन्त्रों के अर्थ भी बताये। पांच प्रकार के पुरुषार्थों की चर्चा भी आचार्य जी ने की। विद्वान आचार्य ने श्रोताओं को आध्यात्मिक पुरुषार्थ के लाभ भी बताये। उन्होंने कहा कि हम जो भी प्रार्थना करेंगे वह ईश्वर के ज्ञान में सुरक्षित रहेगी। हमारी की गई वह प्रार्थना हमारे काम आयेगी। आचार्य जी ने कहा कि मृत्युंजय मन्त्र के जप का लाभ यह है कि हम मृत्यु के भय से मुक्त हो जायें। इस मन्त्र के अर्थपूर्वक जप से हम पके फल की भांति परिपक्व हो जायेंगे। आचार्य जी ने जापान तथा भुज में आये भूकम्पों की चर्चा की और कहा इन आपदाओं में बहुत बड़ी संख्या में लोग मरे थे। इन आपदाओं में मरे लोगों के लिये हम दुःखी नहीं हुए जैसे अपने प्रियजनों की मृत्यु पर होते हैं। जिस दिन भुज में भूकम्प आया, उस दिन मैं भुज में एक भवन की पांचवी मंजिल पर था। मेरी पत्नी टीवी देखती नहीं परन्तु इस खबर को सुनकर या इसकी जानकारी मिलने पर उसने मुझे फोन किया। भूकम्प से फोन की लाइनें काम नहीं कर रही थीं। तीन बाद फोन पर संक्षिप्त बात करना सम्भव हुआ। इससे पूर्व भुज आये हुए लोगों की कुशलता का जब तक उनके अपने परिवारजनों को समाचार नही मिला, तब तक वह सब उनके मृतक हो जाने जैसी स्थिति की कल्पना, भय व अनुमान से रोते रहे। आचार्य जी ने निष्कर्ष रूप में कहा कि मृत्यु के दुःख का कारण मोह है। अपने प्रियजनों के जाने के कारण दुःख होता ही है।

                आचार्य जी ने महाभारत में वर्णित कृष्ण व अर्जुन के संवाद की चर्चा भी की। कृष्ण ने अर्जुन को जो कहा उसमें जन्म व मृत्यु का सारा चिन्तन आ जाता है। उन्होंने कहा कि यदि मनुष्य मृत्यु के विषय में गीता में कहे गये विचारों को जान ले व उसके अनुरूप भावना बना लें तो उसके कल्याण का मार्ग खुल जायेगा। आचार्य जी न कहा कि किसी की मृत्यु हो जाने पर उस विषय का चिन्तन करने पर यह ज्ञात होता है कि शरीर के मरने के साथ उसके प्रति किये जाने वाले सब व्यवहार समाप्त हो जाते है। दूसरा चिन्तन यह होता है कि हम शरीर नहीं अपितु आत्मा हैं। आत्मा के शरीर से पृथक अस्तित्व को मान लेने पर हमें यह भी ज्ञात होता है कि आत्मा नहीं मरता अपितु शरीर की मृत्यु होती है। कृष्ण जी अर्जुन को कहते हैं जिनकी मृत्यु हो चुकी है उनकी आत्माओं को किसी प्रकार का दुःख नहीं पहुंच सकता। वह तो शरीर से निकल कर अन्यत्र जा चुके हैं। आचार्य जी ने कहा मृत्यु के समय जो आत्मा जाती है उसकी स्थिति बेहतर होने से उसको दुःख नहीं होता। जो नहीं गये, रह गये हैं, गये हुए के प्रति मोह में हैं, उनको दुःख होता है। आचार्य जी ने यह भी बताया कि मृत्यु का दुःख तो कुछ क्षणों का ही होता है परन्तु उसके बाद जीवन व सुख की अपार सम्भावनायें हमें उपलब्ध होती हैं।

                आचार्य जी ने कहा कि हमें नये कपड़ों को पहन कर अच्छा लगता है। नया मकान भी हमें अच्छा लगता है। परमात्मा ने हमें पांच प्रकार के सुख दिये हैं। नयेपन का सुख भी इन पांच सुखों में से एक है। कल खायी दाल को आज पुनः खाने का हमारा दिल नहीं करता। इसलिये आज दूसरी दाल बनवाकर खाते हैं। नयेपन के सुख को आचार्य जी ने मृत्यु के बाद मिलने वाले नये शरीर से जोड़ा। उन्होंने कहा कि हमें मृत्यु से दुःख नहीं अपितु सुख होना चाहिये। हम जीवन में आत्मा व परमात्मा पर विश्वास करते हैं। हमें ईश्वर प्रदत्त मृत्यु पर भी ईश्वर में अपने विश्वास को कायम रखना है। ईश्वर जीवात्मा को उसके कल्याण के लिये शरीर में भेजते हैं व समय आने पर उसका वह शरीर बदल देते हैं। हम जीवन को ऐसे जियें जिससे सुख व कल्याण दोनों हों। कल्याण व सुख में से कल्याण को चुने। आचार्य जी ने कहा कि क्रिकेट मैच देखकर सुख होता है परन्तु कल्याण नहीं होता। मधुमेह रोग का भी उन्होंने उदाहरण दिया। मधुमेह में मीठे स्वादिष्ट पदार्थ सुख तो दे सकते हैं परन्तु उनसे कल्याण नहीं होता। ऐसे और भी उदाहरण आचार्य जी ने दिये। जन्म व मरण से भी हमारा कल्याण होता है। ईश्वर हमारे कल्याण के लिये मृत्यु व पुनर्जन्म देते हैं। इस बात को आचार्य जी ने तर्क देकर समझाया।

                आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री जी ने कहा कि बुढ़ापे और मृत्यु पर विजय पाने का साधन है ईश्वर की उपासना। आचार्य जी ने दशरथ का उदाहरण दिया। दशरथ ने शीशा देखा। उसका एक बाल सफेद हो गया था। उसने वानप्रस्थी होने का निर्णय किया। आचार्य जी ने कहा कि यदि वन में किसी को सुविधा उपलब्ध है तो अच्छा है अन्यथा घर पर रहकर ही वानप्रस्थी जैसा जीवन व्यतीत करें। आचार्य जी ने व्याकरण के आधार पर वन का अर्थ बताया। उन्होंने कहा कि वन, वृक्ष, झाड़, झंकार आपस में मिले व जुड़े हैं। जंगल से होकर निकलने का रास्ता नहीं मिलता। वृक्ष पास-पास होते हैं। आचार्य जी ने कहा कि घर पर बहू व बेटे माता-पिता की बात नहीं सुनते। माता-पिताओं को आचार्य जी ने कछुवे से शिक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि अपने मन को उनकी तरफ से हटा लें। बेटे-बहू को उचित सलाह दे सकते हैं। हमारा अपनी सन्तानों में मोह जाता नहीं है। मोह बच्चों के बाद पोते-पोतियों में होता है। आचार्य जी ने कहा कि हमारा व्यवहार कछुवे की तरह न होकर मेढक की तरह होता है तो उछल व कूद कर चलता है। दादा-दादी मेढ़क का सा व्यवहार पोते-पोतियों के प्रति करते हैं। पोते व पोतियों को अच्छी शिक्षाप्रद कहानियां सुनायें। उन्हें अच्छे संस्कार दें।

                आचार्य जी ने बताया कि नासिक के श्री विक्रम कपूर जी आर्यसमाज के संस्थापक थे। उनके चार बेटे थे। बेटों के अपने अपने बिजीनेस थे। उन्होंने 15 बीघा जमीन में पांच पोर्शन का भवन बनाया। एक पोर्शन उनका अपना था। एक कमरे में बहुत बड़ा बैड वा बिस्तर लगाया। अतिथियों के लिए भी कमरे थे। मुझे वहां रहने का अवसर मिला। बड़े बिस्तर को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। बाद में पता चला की विक्रम कपूर जी के सभी पोते-पोतियां इस बिस्तर पर अपने दादा-दादी के साथ सोते थे। दादा-दादी के सबसे निकट कौन सोयेगा इसके लिये वह आपस में झगड़ते थे। दादा जी सोने से पूर्व सब बच्चों से प्रार्थना कराते थे। हे ईश्वर! आपकी कृपा से हमारा आज का दिन अच्छा बीता। हमारी आज की रात भी अच्छी बीते। हे प्रभु! हमारा कल का दिन भी अच्छा बीते। बच्चे हिन्दी में प्रार्थना बोलते थे। इस कारण उनका प्रार्थना में मन लगता था।

                आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री ने कहा कि हमें एक सौ वर्ष व उससे अधिक समय तक सक्रिय जीवन व्यतीत करते हुए जीना है। बहुत अधिक जीयेंगे तो उठ बैठ नहीं सकेंगे। सक्रिय नहीं रह पायेंगे। वेद कहता है कि सक्रिय होकर हमें जीवन को जीना है। आचार्य जी ने कहा कि बुद्धि का परिश्रम ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। बुद्धि व मन को आपस में जोड़कर जो काम करते हैं वह काम अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मन-बुद्धि-आत्मा को जोड़कर जो काम करते हैं उसका नाम प्रार्थना है। उस प्रार्थना का हमें लाभ अवश्य होगा। आचार्य जी ने कहा कि मां के गर्भ में बच्चा मौज में होता है। ईश्वर की व्यवस्था से उसका जन्म होता है। छोटे बच्चे से माता-पिता को सुख व दुःख दोनों होते हैं। बच्चे गोद में मल-मूत्र त्यागते हैं तो वह माता-पिता व घर के व्यक्तियों के स्वच्छ वस्त्रों को दूषित कर देते हैं। आचार्य जी ने प्रश्न किया कि संगीत के किस यन्त्र की आवाज सबसे अच्छी है? उत्तर में उन्होंने कहा कि संगीत की आवाज उस व्यक्ति को अच्छी लगेगी जिसने अपने बच्चों की तोतली बोली व किलकारियां नहीं सुनी। मां बाप चाहते हैं कि उनका बच्चा जल्दी बड़ा हो जाये। आचार्य जी ने कहा कि यदि बच्चा बड़ा होगा तो आप भी बड़े होंगे। अपने प्रवचन को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि आप बूढ़े मत होना वृद्ध अवश्य होना। मृत्यु के बाद आपका नया जन्म होगा। आपको मृत्यु का दुःख नहीं होना चाहिये। आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री जी के प्रवचन की समाप्ती पर युवा मन्त्री श्री नवीन भट्ट जी ने भजनोपदेशक श्री कुलदीप आर्य एवं अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के आर्य विद्वान डॉ. वागीश शास्त्री जी का धन्यवाद किया। प्रधान डॉ. श्री महेश कुमार शर्मा जी ने सदस्यों द्वारा दान की व कुछ अन्य सूचनायें दीं। विद्वान पुरोहित पं. विद्यापति शास्त्री जी के साथ सबने मिलकर शान्तिपाठ किया। इसी के साथ वार्षिकोत्सव का दिनांक 22-12-2018 का अपरान्ह का सत्र समाप्त हो गया।

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