क्षेत्रीयता की जकड़न को बेधने का माकूल अवसर

0
134

सियासी गलियारों में उटा-पटक का दौर शुभारंभ हो चुका है। राजनीतिक पार्टियों में जुबानी जंग के माध्यम से ही शह और मात का राजनीतिक माहौल बुलंद हो चुका है। अब ऊंट पहाड़ के नीचे की कहावत को राजनीतिक दलों के माननीय चरित्रार्थ कर रहे है, यानि जनता के गांव-गलियारों की याद और मूलभूत सुविधाओं से वंचित गांव को ग्राम-गणराज्य, सबल और आदर्श गांव में तब्दील होने के आसमानी ख्वाब दिखाये जा रहे है। सत्ता के गलियारे की जुदाई छड़ी पांच राज्यों की जनता के पाले में आ चुकी है, अब जनता का मत निश्चित करेगा, सत्ता का सारथी और अर्जुन बनने का किरदार कौन भलीभाॅति निभा सकता है। जनता को खासकर उत्तरप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीयता और जातिगत समीकरणों से परे करते हुए विकासवाद और प्रगति के साधक को चुनकर अपना सारथी बनाना चाहिए, जिससे लोकतांत्रिक व्यवस्था में अर्थतंत्र और जातिगत समीकरणों की जकडन टूटने की शुरूआत देश के विस्तृत राज्य से ही हो सके, क्यांेकि सूबे के हलके में पिछले कुछ वर्षों से सियासत जातिवादी बेड़ियों में पिसती दीप्तमान हो रही है, सूबे की क्षेत्रीय राजनीति में जातिवादी राजनीति को हवा देने वाले बाशिंदे पनप चुके है, जो विशेष सत्ता साधना से प्रेरित होकर जातिवादी मसीहा बनने की फितरत पाल चुके है। जिससे राजनीतिक दल अपनी शह प्राप्ति के लिए जाति-विशेष की राजनीतिक लोलुपता के ग्राही बन चुके है। इन राजनीतिक दलों के शह और मात के बीच जनता को जागरूक रहना होगा, अपने भले के लिए बेहतर उम्मीदवारों को चुनाव करना होगा। सूबे की कौमों में लगभग 30 फीसद आवाम दलित और मुस्लिमों की है, जिसके साधक पनपते देर नहीं लगती। चुनाव का ताशा बनजे के साथ आपसी आरोपों-प्रत्यारोपों के साथ जनता को लोभित करने की राजनीतिक पिच भी तैयार करते हुए, इन राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी जुमलों की अद्भुत श्रंृखला पेषकर चुके हे। जनता का ध्यानाकर्षण के लिए राहुल गांधी खुद कांग्रेस का बेड़ा गर्त करते दिख रहे है, जनता को लोकलुभावन चुनावी जुमलों का स्वाद भी चखाया जा रहा है, जिसकी ऊपरी तह बेहद चमकदार दिखती है, परंतु सच्चाई संतालत पर काबिज होने के पश्चात खुलती है।

इस दफा की चुनावी गहमागहमी का गरमा-गरम और ताजा-तरीन मुद्वा नोटबंदी भी अपना रूख जरूर अदा करने वाला है। भाजपा के विरूद्व विपक्षी सियासतदार पार्टियाॅ इसे अपना मुखर चुनावी मुद्वा और मोदी की साख को धूमिल करने के हथियार के रूप में प्रयोग कर रही है। नोटबंदी से रही दिक्कतों के बावजूद जहां आम आदमी अपना मुॅह पर ताला लगाकर बैठी है, वही उत्तरप्रदेश के सूबे का राजनीतिक सूखा खत्म होने का अवसर तलाशती कांग्रेस भरसक तूल दे रही है, लेकिन विगत दिनों में 27 साल यूपी बेहाल का नारा करने वाली कांग्रेस पुनः अंधेरी गलियों में गुम होती दिख रही है, जिससे उभरने के मर्फत वह मुख्यमंत्री का चेहरा एलान के बावजूद गढ़बंधन का हिस्सा बनने के लिए बेताब दिख रही है। नोटबंदी को लेकर सभी विपक्षी दल भाजपा की नीतियों को घेरने में लगे है, और भाजपा को बड़े उद्योगपतियों का हिमायती बताते फिर रहे है, लेकिन इस सच्चाई से मॅुह मोड़ रहे है, कि उद्योगपतियों का तबका भी मोदी के फैसले से बेहद खुश नही है। अब जब सत्ता में विराजमान अखिलेष के हाथों में साइकिल की धुरी आ चुकी है, और मुलायम सिंह से पुत्र पर मुस्लिम विरोधी होने का पाशा फेंका है, फिर राजनीतिक गलियारों में यह कयास लगाएं जा रहे है, कि सूबे में महागठबंधन का एलान भी जल्द हो सकता है, जिसमें अखिलेष की साइकिल, काग्रंेस और राष्ट्रीय लोकदल की हिस्सेवारियाॅ होगी। इन सब के बावजूद सूबे की सियासत अब नया मोड़ पकड़ती दिख रही है।

इन पांच राज्यों का असर भारतीय वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के लिहाज से दूर तलक गूंजने वाला है। अभी तक जाति, धर्म, मजहब और मण्डल- कमण्ड़ल की राजनीति उत्तरप्रदेश जैसे हिंदी भाशी राज्यों पर ही हावी नहीं रही। पंजाब, मणिपुर और गोवा जैसे छोटे राज्यों पर भी अपना सियासी फायदा प्राप्त करने का राजनीतिक हथकंडा ईजात होता रहा है। अब विचारणीय और गहन विमर्श का केंद्र बिंदु यह हो चला है, कि भारतीय राजनीति में सत्ता की कंुजी अभी तक जातिवादी लामबंदी ओर जनता की भावना से खेलकर जीतने का रहा है, अब सियासदां कौन सा और किस बिसात का फलक बिछाते हुए दीप्तमान होंगे, जिससे जनता को बरगलाकर और ध्रुवीकरण की सियासत कर पायेंगे। भारतीय राजनीति की सत्ता का सुखद एहसास प्राप्त करने की आदत इतनी बढ़ चुकी है, कि राजनीतिक दल तुष्टीकरण से लेकर दंगा, फसाद के लौ में भी भलमानस जनता को डालते आएं है। पांच राज्यों के चुनाव के पहले सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी सुनाते हुए कहा है, कि राजनीतिक दल और नेतागण अब जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता का दामन ओढकर मत नही प्राप्त कर सकते है, और अगर ऐसा तरीका अपनाया जाता है, तो भ्रष्ट आचरण और चुनावी तरीके के मद्देनजर नेता के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी, लेकिन भारतीय परिदृश्य में जुगाड़ सबसे बड़ी चीज है, इन प्रावधानों के बावजूद राजनीतिक दल अपने तरकश से कोई न कोई अभेध तीर जरूर निकाल लेंगे, क्योंकि आज तक की राजनीतिक व्यवस्था में जाति, मजहब, धर्म और भाषा की बेड़ियों से जनता अपना पीछा नहीं छुड़ा सकी है।

अगर इन से निजात भी पा ले, तो मंदिर मस्जिद की सियासत जोर पकड़ लेती है, और शुद्व देशी राजनीतिक की हकीकत है, कि इन मुद्वों के बिना राजनीतिक सत्तालोलुप इन चमत्कारी जुगाड़ के बिना ध्रुवित सियासी मंजिल हासिल नहीं कर सकते है। मणिपुर में भाषा आधार बनती रही है, तो पंजाब में पंजाबियत को,उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड़ में दलित, मुस्लिम की भावना से खेलकर अपनी वैतरणी पार करने की आदी हो चुकी है, हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था।  खास नजर उत्तरप्रदेश पर है, जहां मुस्लिमों और दलितों का मत प्रतिशत लगभग तीस प्रतिशत से अधिक है। वहां पर स्वतः ही अभी तक इन्हीं मुद्वों पर चुनाव होता रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा छोटे लद्यु उद्योगों को बढ़ावा देने, रोजगार सृजन, विकास, चिकित्सीय सुविधाओं में वृद्वि, प्रशासनिक सुधार और सामाजिक समरसता का मुद्वा वर्षों से एजेंडे़ से बाहर हो चुके है। राजनीति में आपसी छींटाकशी और राजनीति समीकरण ही विजयी धुन के ताल बन चुके है। उत्तरप्रदेश की सरजमीं पर केंद्र की भाजपा को छोड़, सभी दल किसी न किसी जातियों को वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल करती रही है, और इन जातियों का सामाजिक उत्थान भी जैसा होना चाहिए, नहीं हो सका है। अब जब कोर्ट ने अपने फैसले में देश को जागृति कर दिया है, कि राजनीति में उनका इस्तेमाल वोटबैंक के रूप में होता रहा है, फिर इन राज्यों के चुनाव में बुद्विजीवी समाज के साथ सामाजिक परिवेश को उजाले की तरफ बढ़ना होगा, और तमाम अवरोधों को पार कर अपने हितों की संरक्षा ओर विकास के लिए जाति, मजहब की बनाई हुई राजनीतिक जंजीरों को झकझोरतें हुए विकास के लिए मताधिकार का इस्तेमाल करना होगा, जिससे लोकतांत्रिक प्रणाली मजबूत हो सके, और उच्च न्यायालय के आदर्शों का पालन कर मिशाल प्रस्तुत किया जाएं। इसके साथ जनता को अगामी पांच वर्षों के लिए विकास के लिए तरसना न पड़े।

महेश तिवारी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here