क्या यूपीए-२ की सरकार के अंत की शुरुवात हो चुकी है ? कभी कांग्रेस की सदस्य रही फायरब्रांड नेता के नाम से प्रसिद्द और वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्षा व बंगाल की मुख्यमंत्री ममताबनर्जी ने फूँक-फूँक कर कदम उठाते हुए यूपीए की सरकार से नाता तोड़ने का निर्णय लेकर केंद्र की सरकार को सांसत में डाल दिया है. कोयला घोटाले से देश का ध्यान हटाने की मंशा से डीजल और ऍफ़डीआई लाने का निर्णय बताते हुए समर्थन वापिस लेने के इस निर्णय के चलते मध्यावधि चुनाव के भी आसार बनते नजर आ रहे हैं. शासन काल का उतरार्ध जिसे उल्टी गिनती शुरू होने का समय माना जाता है, में सभी सरकारों का यही प्रयास रहता है कि जनता के हित के लोकलुभावन फैसले लिए जाएँ ताकि चुनावों में जनता को एक बार फिर भरमा कर सत्ता पर पुनः कब्ज़ा जमाया जा सके. इसके ठीक विपरीत यदि देश के एक बहुत बड़े वर्ग विशेषकर आर्थिक रूप से निम्न-मध्यम और निम्न वर्ग के हितों के विरुद्ध उनकी परेशानियों में इजाफा कर उनको नाराज करने वाले फैसलों को तो स्वाभाविक रूप से आत्मघाती निर्णय ही माना जायेगा. वैसे असाधारण परिस्थितियों और अप्रत्याशित कारणों से यदि देश हित में कोई कडवे निर्णय लेने भी पड़ें जिसे मोटे तौर से जनता के हितों के विपरीत समझा जाता हो, तो देश हित को सर्वोपरी मानते हुए देश का जनसाधारण सहन भी कर लेता है. परन्तु देश के वर्तमान परिदृश्य में ऐसा कुछ नजर नहीं आता.
हाँ, इतना तो स्पष्ट है कि जिस प्रकार की आर्थिक समस्याओं से आज देश जूझ रहा है वह सभी सरकारों की गलत नीतियों के कारण ही उत्पन्न हुई हैं. देश की नीतियां समान रूप से देश की तरक्की और उत्थान के लिए न बनाकर केवल वोट बैंक को रिझाने और चुनाव जीत कर पुनः सत्ता का सुख भोगने के लिए ही बनाई जा रही हैं. चुनाव जीतने के लिए पहले सब्सिडी बांटों और फिर जब अर्थव्यवस्था बिगड़ने लगे तो घाटे के नाम पर सारा बोझ पुनः जनता पर डाल दो. यही सब तो हो रहा है. जनता और विपक्षी दल इसका विरोद्ध न करें तो क्या करे ? तमाम तरह के घोटालों, घपलों और बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर अब तो केंद्र सरकार को भीतर और बाहर से समर्थन देने वाले उसके सहयोगी भी विरोध की मुखर भाषा में बोलने लगे है. डीजल और रसोईगैस के दामों में हुई बढोतरी का विरोद्ध अब कांग्रेस के मंत्री और नेता भी करने लगे हैं. अस्थिरता की ऐसी विकट परिस्थिति में कोई भी सरकार जनविरोधी कदम बहुत ही मजबूरी में ही उठायेगी, सतही तौर से ऐसा समझ में आता है. परन्तु तमाम विरोद्धों और अंतर्विरोद्धों के बावजूद भी जिस प्रकार अभी हाल में डीजल और रसोई गैस के दामों में यकायक इतनी बढ़ोतरी की गई है उसके पीछे कोई अप्रत्याशित कारण दिखाई नहीं देता. सरकार की गलत नीतियों और हर कदम पर घोटाले, घपले और भ्रष्टाचार के चलते देश में धन की कमी, तेल कंपनियों का लगातार बढ़ता घाटा, यह सब सरकार की गलतियों और नाकामयाबियों और अनुशासनहीनता का ही परिणाम है जिसके चलते आज देश आर्थिक मंदी की मार झेल रहा है. वहीँ दूसरे ओर सहयोगी दलों की अनदेखी और विरोद्ध को दरकिनार करते हुए सरकार ने खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को मंजूरी देकर खुदरा में विदेशी निवेश का रास्ता लगभग प्रशस्त कर ही दिया है.
परन्तु बड़ा सवाल यहाँ मुहँ बाये यह खड़ा है कि देश को ऐसी विकट परिस्थिति में किसने पहुँचाया ? सरकार की कौन सी आर्थिक नीतियां इसके लिए जिम्मेवार हैं ? देश को विकास की दौड़ में विश्व के बराबर खड़ा करने की होड़ में अन्य तमाम आवश्यक क्षेत्रों की अनदेखी स्पष्ट नजर आ रही है. ७० प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में बसनेवाला देश जो आज भी परम्परागत कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था पर ही निर्भर है, से कभी मुंबई को शंघाई बनाने की बात की जा रही है तो कभी देश की तरक्की का पैमाना सेंसेक्स के उछाल से निर्धारित करने के प्रयास हो रहे हैं. महंगाई-डायन को मारने की नित नई-नई तारीखें घोषित कर जनता को बहलाया जा रहा है. सत्ता और निर्णय लेने के कई केंद्र स्पष्ट नजर आ रहे हैं जिसके चलते देश में असमंजस के कोहरे से राजनीतिक और शासन-सत्ता का चेहरा ढका हुआ है और हाथ बंधे हुए. नीतिगत निर्णय लेने में देरी इन्हीं कारणों से हो रही है.
धनाभाव के कारण देश की तमाम विकासोन्नमुख योजनायें, योजनाआयोग और वित्तमंत्रालय के चक्कर लगा रही हैं वहीँ हवा में उड़ने की होड़ में देश का लाखों करोड़ रुपया कोमन वेल्थ खेलों के नाम पर लुटा दिया जाता है. कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म बताने वाले देश के प्रधानमंत्री लाखों टन खाद्यान गोदामों में सड़ने पर भी अनाज को देश के गरीबों को बाँटने में अपनी असमर्थता जताते हैं. दलहन और तिलहन की कम पैदावार के चलते उनके दाम पहले से ही असमान छू रहे थे वहीँ अब चीनी के दाम ५० रुपये प्रतिकिलो की दर को छूने को बेताब हो रहे हैं. एक ओर जहाँ अनजान और गैरवाजिब कारणों से रुपये का अवमूल्यन हो रहा है वहीँ देश के मध्यम-निम्न व गरीबों को महंगाई की चौतरफा मार से बचाने में असमर्थ सरकार को कठिन परिस्थितियों में गिरती अर्थवयवस्था और घाटे में चल रही तेल कम्पनियों को बचाने के लिए उठाये गए कठोर कदमों की मजबूरी बताते हुए पेट्रोल, गैस व डीजल के दाम बढाने पड़ते हैं. देश के जनप्रतिनिधियों को देश की हर समस्या का कारण तो ज्ञात है परन्तु उचित हल के विषय में वे सर्वथा अनभिज्ञ हैं. केंद्र से बात करो तो वह राज्यों की जिम्मेवारी बताता है और यदि राज्यों से पूछो तो वह केंद्र के दायरे का मसला कह कर अपना पल्ला झाड़ते नजर आते हैं. इस सब के बीच देश की सरकारों को देश के प्राकृतिक संसाधनों व कोयले जैसे सीमित खनिज भंडारों को अपनी मर्जी से अपने चहेतों को मुफ्त में लुटाने में तनिक भी गुरेज नहीं होता. देश को फिस्कल डेफिसिट का पाठ पढ़ानेवाले यह समझने और समझाने में लाचार हैं कि १२ से तेरह रुपये खरीदा जाने वाला गेहूं किन कारणों से आटा बनकर २४ रुपये किलो तक बाजार में बिक रहा है ? अन्तरिक्ष में उपग्रह स्थापित करने का श्रेय लेनेवाले क्यूँ ग्रामीण क्षेत्रों में पीने का स्वच्छ पानी तक सुलभ करवाने में विफल रहते हैं ? धन की कमी का रोना रोनेवाली केंद्र सरकार अपने सरकारी और गैर-योजना के खर्चों में कमी करने की अपेक्षा विदेशी निवेश के बहाने देश की जीवनरेखा कहलानेवाले खुदरा व्यापार को तबाह करने का कुचक्र चलाने में सफल रहती है. वह भी उस परिस्थिति में जब इस गणतांत्रिक देश के अधिकतर गण यानि कि राज्य इसके विरुद्ध हैं. धन की कमी के चलते आज भी देश की जनता खुले में शौच जाने को मजबूर है वहीँ इस देश के योजनाआयोग के शौचालयों की मुरम्मत पर ही ३५ लाख का खर्च कर दिया जाता है.
जनसाधारण के लिए धनाभाव का बहाना बनाने वाली केंद्र सरकार के वार्षिक बजट का यदि अवलोकन किया जाये तो लाखों करोड़ों रुपयों की विभिन्न करों की छूट कार्पोरेट सैक्टर और बड़े औद्योगिक घरानों को निरंतर दी जा रही है. परन्तु जिन कारणों के मध्येनजर यह छूट जा रही है उस कथित छूट का देश की आमजनता को लाभ और उत्पादन पर क्या प्रभाव पड़ा, यदि इसका आंकलन सरकार का कोई भी मंत्रालय नहीं कर रहा है, तो ऐसी छूट का क्या औचित्य है ? खुदरा व्यापार में एफडीआई को लाने का निर्णय करनेवाले देश के शासकों और योजनाआयोग के प्रारूपकारों को जरा वातानुकूल कक्षों से बाहर निकल कर देश के उस बहुसंख्यक वर्ग की ओर भी देखना चाहिए जो साँझ ढलने पर २ से पांच रुपयों का खाद्य तेल, आठ रुपयों के चावल और तीन रुपयों की दाल खुदरा दुकानदारों से खरीदने निकलते हैं. गली-कूचे और गावं-मोहल्ले के यह खुदरा दुकानदार अपने परिवार के पोषक होने के साथ-साथ मध्यम-निम्न और गरीबों की जीवन रेखा हैं जो आवश्यकता पड़ने पर फुटकर, सस्ता व उधारी पर सामान भी दे देते हैं. दिहाड़ी पर निर्भर करनेवाले करोड़ों परिवार अपनी कमजोर व अनिश्चित आर्थिक स्थिति और धनाभाव के कारण ही आज भी सरकारी राशन की दुकान यानि कि फेयर प्राईस शॉप का लाभ उठाने में असमर्थ हैं जिसका लाभ राशन की दुकानवाला या अन्य उठाते हैं. ऐसी परिस्थिति में खुदरा में विदेशी निवेश से कौन लाभान्वित होने जा रहा है ?
स्वतंत्रता प्राप्त हुए ६४ वर्ष बीत गए. कब और कैसे सुधरेगी देश के गरीबों की दशा ? देश की योजनायें व नीतियां किस मनस्थिति के लोग और किसके उत्थान के लिए बना रहे हैं ? ६४ वर्षों से कौन लाभान्वित हो रहा है इन योजनाओं से ? सरकार की नीतियां और योजनायें गरीबों या सर्वजन के लिए नहीं वरन वोटबैंक की स्थापना की दृष्टि से जातिविशेष और विशेष धर्मावलम्बियों को मध्येनजर रख कर ही बनाई जा रही हैं. यही नहीं देश की योजनायें बनानेवाला योजनाआयोग देश के सुदूर ग्रामीण अंचल में बैठे आमजनों के विषय में क्या जाने वह तो देश में गरीबी के कम होने जैसे विवादित घोषणा करते हुए देश को समझाने का हास्यास्पद प्रयास करता है कि ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले वह लोग जो प्रतिदिन 22.42 रूपये पर तथा शहरी क्षेत्र के वह लोग जो प्रतिदिन 28.65 रूपये पर गुजर बसर कर सकते है, गरीब नहीं माने जा सकते. उसका मानना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिव्यक्ति, प्रतिमाह 672.80 रूपयों तथा शहरी क्षेत्रों में प्रतिव्यक्ति, प्रतिमाह 859.60 रूपयों में अपनी जीविका चलानेवाला व्यक्ति गरीब नहीं है. अर्थात इससे कम पर गुजर बसर करनेवाले ही गरीब माने जायेंगे. गरीबी की रेखा तय करने का यह नया पैमाना योजनाआयोग ने क्या लोकसभा में चलायी जा रही रेलवेबोर्ड की कैंटीन में माननीयों को मिलनेवाले भोजन पदार्थों की दरों को आधार मानकर तय किया था ? देश के जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करनेवाले इन माननीयों को जिस दर से भोजन व अल्पाहार पदार्थ इस कैंटीन में सुलभ करवाए जाते हैं यह जान कर पाठक अपने दांतों तले उंगली दबा कर रह जायेंगे.
अब यही योजना आयोग डीजल और रसोई गैस के दामों में की गयी वृद्धी को उचित व आवश्यक बता रहा है. कोई इनसे पूछे कि – भाई इन तेल कम्पनियां को अचानक इतना बड़ा घाटा कैसे होने लगा ? किसने कहा था कि पेट्रोलियम पदार्थों पर टाटा और अम्बानी से लेकर निचले स्तर पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से सब्सिडी का लाभ खैरात में बांटा जाये ? सब्सिडी का अर्थ क्या है ? जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएं देश के गरीब व निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को सस्ती दरों पर समान रूप से उपलब्ध हों, इसके लिए राजसहायता के रूप में सस्ते दरों पर वस्तुएं केवल पात्र नागरिकों को ही उपलब्ध होनी चाहिए थी. जबकि वास्तव में इसके ठीक विपरीत देश के अरबपति को भी वित्तीय सहायता प्राप्त वस्तुएं समान रूप से सस्ते दर पर मुहैया करवाई गयी जिसका उसने खूब लाभ लिया. हिमाचल प्रदेश में भी पूर्व की कांग्रेस सरकार ने खुले बाजार में दलहन के दामों में हुई बढ़ोतरी पर प्रदेश के सभी नागरिकों को सरकारी राशन की दुकानों के द्वारा राशन कार्डधारकों को प्रतिमाह तीन किलों विभिन्न दालें, सरसों का तेल, रिफाईंड व नमक का पैकेट सस्ती दरों पर देना प्रारम्भ किया था. वर्तमान सरकार ने भी इस लोकलुभावन स्कीम को बा-दस्तूर जारी रखा है. प्रश्न यह है कि आयकर के दायरे में आनेवालों और अन्य साधनसपन्न लोगों को यह सुविधा क्यूँ मिलनी चाहिए ? इस सारे उपक्रम पर जो खर्चा प्रतिवर्ष होता है क्या उसको विकास के अन्य आवश्यक कार्यों में नहीं लगाना चाहिए ?
सस्ते दर पर पेट्रोल केवल दोपहिया वाहनों को ही मिलना चाहिए था, सस्ती रसोई गैस केवल निम्न और आयकर की रेंज से बाहर वालों को ही मिलनी चाहिए. इसी प्रकार सस्ता डीजल भी यातायात के साधनों, मध्यम वर्ग के किसानों, खाद्यान्न व रोजमर्रा की जरूरतों का सामान ढोनेवाले वाहनों को ही मिलना चाहिए था न कि बड़े किसानों, भारी सामान, वाहन व भवन निर्माण आदि में प्रयुक्त होनेवाले सामान आदि को ढोनेवाले वाहनों या डीजल की कारों को. वैसे भी चुनाव जीतने के लिए पेट्रोलियम के दाम न बढ़ाना मतदाताओं को एक प्रकार की रिश्वत नहीं तो और क्या है ? तेल कंपनियों को घाटा हुआ सो अलग से. अब अगला-पिछला सारा घाटा एक बार में ही सरकार ने पूरा करने का निर्णय लिया है. इस सिलसिले में सरकार को कर-ढांचे में भी सुधार करने की आवश्यकता है. पेट्रोलियम पदार्थों पर लगनेवाले करों को देखें तो उपभोक्ता तक पहुँचने तक पेट्रोलियम के आधारभूत मूल्यों से दुगना तो इस पर कर ही वसूल किया जाता है. जनकल्याण का दावा करने वाली केंद्र और राज्य सरकारें इस पर लगाये जाने वाले करों में कमी क्यूँ नहीं करती ? लोकसभा या प्रदेशों का चुनाव सर पर होने के दौरान तो किसी भी वस्तु के दाम नहीं बढते हैं, वहीँ चुनावोंपरांत अचानक दाम बड़ा दिए जाते हैं. राष्ट्रव्यापी और आवश्यक निर्णय संसद के सत्र से पहले या बाद में क्यूँ लिए जाते हैं ? क्या यह संसदीय परम्पराओं और मर्यादाओं की अवमानना नहीं है ?
स्वतंत्रता पश्चात् भारत को शसक्त गणराज्य का स्वरूप देने हेतु अपने राज्य, जागीरों और रियासतों का विलय करनेवालों ५६५ राजे-रजवाड़ों को मिलनेवाले ५०००/- से २०,००,०००/- प्रतिवर्ष मिलनेवाले प्रीविपर्स को १९७१ में २६वें संविधान संशोधन द्वारा बंद करके समाजवाद और मितव्ययता के नाम पर वाह-वाही लूटनेवालों की सरकारों ने क्या संसद और विधानसभा के पदासीन व रिटायर्ड सदस्यों को मिलनेवाले पेंशन व अन्य भत्तों का हिसाब लगाया है कभी ? यही नहीं शासन-सत्ता में परिवारवाद, भाई-भतीजावाद और बड़े पैमाने की मची लूट-खसोट के साथ ही सरकारी फिजूलखर्ची ने भी आज सभी सीमाएं लाँघ दी हैं. सूचना के अधिकार से प्राप्त की गई एक जानकारी के अनुसार, भारत सरकार ने विगत तीन वर्षों में नेताओं के गौरवगान के विज्ञापनों पर ही ५८ करोड़ रुपये का खर्चा कर दिया. इसी प्रकार केंद्र और राज्य सरकारों की तमाम समितियों द्वारा अनावश्यक कार्यों को जरूरी बताकर की गई देश-विदेश की यात्राओं पर भी लगाम लगनी चाहिए जिस पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये का खर्चा कर दिया जाता है. विशेष धर्मावलंभियों को रिझाने के लिए दी जाने वाली सरकारी खर्चे की इफ्त्यार पार्टी का भी क्या औचित्य है ? सरकारी खर्चे पर ऐसी पार्टियों की प्रथा अनावश्यक और सत्ता का बेजा इस्तेमाल नहीं तो और क्या है ? यदि किसी ने ऐसी पार्टी देनी भी है तो वह अपने खर्चे पर देने के लिए स्वतन्त्र है.
डीजल गैस के दाम बढने से पूर्व ही खुदरा महंगाई दर का बढ़ कर १o.६ पर पहुचना, औद्योगिक व कृषि उत्पादन दर के साथ ही विकास दर का गिरना क्या दर्शाता है ? इन सब के मध्य सबसे चिंताजनक है नए रोजगार के साधनों की अनुपलब्धता. पहले तो ग्रामीण क्षेत्रों में किसान ही कर्ज व फसलों की बर्बादी के कारण आत्महत्या जैसे अमानवीय कृत करने को बाध्य हो रहे थे, वहीं अब शहरी क्षेत्रों के पढेलिखे नौजवान महंगाई व बेरोजगारी से त्रस्त हो आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं. आजाद देश के लिए इससे बढ़ कर शर्मनाक बात और क्या हो सकती है.
महंगाई को नियंत्रण करने में विफल सरकारे चुनाव से पूर्व जनता को लुभाने के लिए सब्सिडी का जाल फेंकती हैं और जब पानी सर से ऊपर जाने लगता है तो अपनी हर गलत नीतियों, नाकामयाबियों और विफलताओं को ढकने के लिए महंगाई बढ़ाने वाले कठोर उपायों को जरूरी बता जनता पर थोपने में जरा भी गुरेज नहीं करती. ऐसे में पहले से महंगाई की चक्की में पिस रही जनता के लिए रसोईगैस और डीजल के दामों की यह बढोतरी चुपचाप सहना मजबूरी नहीं तो और क्या है ?