आम अवाम की कमर महंगार्इ की मार से पहले ही टूटी हुर्इ थी अब डीजल के दाम और न्यूनतम दरो पर रसोर्इ गैस की प्राप्ति पर संख्या निर्धारण ने रीढ़ भी तोड़ दी है। डीजल के दामो में इजाफे से आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर उसके जीवन के हर पहलू जलने लगा है। दीगर है डीजल का प्रयोग भारत में आम परिवहन सेवा में बहुतायत मात्रा में किया जाता है। बच्चों को स्कूल ले जाने वाली बस से लेकर आम शहरी को उसकी मंजिल तक पहुचानें की जिम्मेदारी बड़ी संख्या में आटो व टैक्सी वहन करती हैं लिहाजा जब इंधन ही महंगा हो जायेगा तो किराये में भी मूल्य वृद्धि स्वाभाविक है। हम सभी जानते है की भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की सत्तर फीसदी जनता आज भी कृषि अथवा कृषि आधारित व्यवसायों पर निर्भर है।
यहां चिंतनीय तथ्य यह है कि अंतरिक्ष अभियानों में सैकड़ा मारने वाले भारत में खेती आज भी मानसून पर आधारित है। मानसून झूम के बरसा तो फसलें भी लहलहा गयीं। अगर मानसून रूठ गया तो किसान कि डबडबायी आंखे सारी व्यथा कह देती हैं। किसानों की आत्महत्या के अंतहीन सिलसिले का बहुत बड़ा कारण यह बैरी मानसून ही है। इस मानसून कि बेवफार्इ या उसकी मगरूर आशिक की तरह देर से आने कि अदा से मिलने वाले दर्द की मरहम-पटी के लिए सिचांर्इ हेतु कृत्रिम साधनों का प्रयोग किया जाता है जिसमे दुर्भाग्य से इंधन के रूप में डीजल का ही प्रयोग होता है। लिहाजा डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी से खेती कि लागत में इजाफा होना भी स्वाभाविक है। अभी जब डीजल के दाम बढ़े है उस समय धान की खेती का समय है। जिसमें सिंचार्इ की ज्यादा जरूरत पड़ती है, ऐसी हालत में किसान पर यह चोट मृत्यु तुल्य है, पर सरकार कहती है की यह बेहद जरूरी था। सरकार के निर्णय के बावजूद तेल विपणन कंपनियों को चालू वित्त वर्ष में 1.67 लाख करोड़ रुपए का नुकसान रहने का अनुमान है। पर यह तर्क सत्य से परे लगता है। क्योंकि वर्ष 2011 में तीनों सरकारी तेल कंपनियों को भारी मुनाफा हुआ था। इंडियन आयल को 7445 करोड़ रूपये, एचपीसीएल को 1539 करोड़ रूपये और बीपीसीएल को 1547 करोड़ रूपये का मुनाफा हुआ था।
दरअसल तेल विपणन कंपनियों का कथित घाटा मात्र आंकड़ों की हेराफेरी है। सकल रिफाइनिंग मार्जिन (जीआरएम) इसका सबूत है। कच्चे व शोधित तेल की कीमत के बीच के फर्क को रिफाइनिंग मार्जिन कहा जाता है और भारत की तीनों सरकारी तेल विपणन कंपनियों का जीआरएम दुनिया में सबसे ज्यादा है। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में तेल विपणन कंपनियों का जीआरएम चार ड‚लर से सात ड‚लर के बीच रहा है। चीन भी भारत की तरह तेल का बड़ा आयातक देश है जबकि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के मुताबिक चीन का रिफाइनिंग मार्जिन प्रति बैरल शून्य से 2.73 ड‚लर नीचे है। यूरोप में तेल भारत से महंगा है लेकिन वहां भी जीआरएम महज 0.8 सेंट प्रति बैरल है। दुनिया में खनिज तेल के सबसे बड़े उपभोäा अमेरिका में रिफाइनिंग मार्जिन 0.9 सेंट प्रति बैरल है। अमेरिका और यूरोप में तेल की कीमतें पूरी तरह विनियंत्रित हैं और बाजार भाव के आधार पर तय की जाती हैं। अंडररिकवरी की पोल खोलने वाला दूसरा सबूत शेयर पर मिलने वाला प्रतिफल यानी रिटर्न अ‚न इकिवटी(आरओर्इ) है। आरओर्इ के जरिए शेयर होल्डरों को मिलने वाले मुनाफे का पता चलता है। भारतीय रिफाइनरियों का औसत आरओर्इ 13 फीसदी है, जो ब्रिटिश पेट्रोलियम(बीपी) के 18 फीसदी से कम है। अगर हकीकत में अंडररिकवरी होती तो मार्जिन नकारात्मक होता और आरओर्इ का वजूद ही नहीं होता। जाहिर है, भारत में तेल विपणन मुनाफे का सौदा है और भारतीय ग्राहक दुनिया में सबसे ऊंची कीमतों पर तेल खरीदते हैं। महंगे तेल की एक बड़ी वजह यह भी है कि हमारे देश में केंर्æ सरकार और राज्य सरकारों ने तेल विपणन को खजाना भरने का जरिया बना लिया है। पेट्रोल पर तो करों का बोझ इतना है कि ग्राहक से इसकी दोगुनी कीमत वसूली जाती है। पिछला बढ़ोत्तरी के बाद दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 73.14 रुपए है और जबकि तेल विपणन कंपनियों के सारे खचोर्ं को जोडकर पेट्रोल की प्रति लीटर लागत 30 रुपए के आस-पास ठहरती है। राज्य सरकारें भी वैट, सरचार्ज, सेस और इंट्री टैक्स के मार्फत तेल में तडका लगाती हैं। दिल्ली में पेट्रोल पर 20 फीसदी वैट है जबकि मध्य प्रदेश में 28.75 फीसदी, राजस्थान में 28 फीसदी और छत्तीसगढ़ में 22 फीसदी है। मध्य प्रदेश सरकार एक फीसदी इंट्री टैक्स लेती है और राजस्थान में वैट के अलावा 50 पैसे प्रति लीटर सेस लिया जाता है।
गोवा में इसी साल के शुरू में आयी भाजपा सरकार ने पेट्रोल पर वैट समाप्त कर यह कर भी दिखाया है। पूरे देश में सबसे सस्ता पेट्रोल गोवा में ही मिलता है। इस बात पर राहत महसूस की जा सकती है कि पेट्रोल के मूल्य में फिलहाल वृद्धि नहीं की गयी है, वरना मंगलवार को केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री एस.जयपाल रेड्डी बता चुके हैं कि पेट्रोल पर भी सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों को प्रति लिटर छह रुपये का नुकसान हो रहा है। कहना नहीं होगा कि यह बयान देश के पेट्रोलियम मंत्री से ज्यादा तेल कंपनियों के लेखाधिकारी का लगता है, लेकिन हैरत की बात है कि जब मनमोहन सिंह सरकार बहुत पहले ही पेट्रोल के मूल्य निर्धारण को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर चुकी है तो फिर तेल कंपनियां नुकसान क्यों उठा रही हैं? इस सवाल का जवाब तो तेल कंपनियां या सरकार नहीं देगी, पर बिना जवाब के भी नियंत्रित मूल्य और नयंत्रण मुक्त मूल्य के छलावे का पर्दाफाश तो हो ही जाता है।
खैर डीजल के दाम बढने से सभी तरह की वस्तुओं की कीमतों में फिलहाल 3 से 5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो सकती है। खाध वस्तुओं की कीमतों में इसका असर ज्यादा हो सकता हैं। माल ढुलार्इ महंगा होने से व्यापारियों और बिचौलियों को खेलने के ज्यादा मौके मिलेंगे। रसोर्इ गैस के सब्सडी वाले सिलेंडर की संख्या के निर्धारित होने से रसोर्इ घर परेशान हो गया है। रसोर्इ गैस सिलेंडरों का कोटा तय करने की सुगबुगाहट अरसे से थी, लेकिन कोटा तय करते समय सरकार इतना अव्यावहारिक रुख अपनायेगी, यह उम्मीद किसी को नहीं रही होगी। मंत्रियों, सांसदों को तमाम नियम-कानूनों को ताक पर रखकर हर हफ्ते गैस सिलेंडर उपलब्ध कराने वाली सरकार ने आम परिवारों के लिए छह सिलेंडर का कोटा तय किया है यानी दो माह में एक सिलेंडर। पता नहीं ऐसे फैसले लेने वाले राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही को इस वास्तविकता का अहसास है भी या नहीं कि एक छोटे परिवार में भी एक सिलेंडर एक महीने ही चल पाता है। ऐसे में रसोर्इ गैस के मूल्य में घोषित वृद्धि के बिना ही आम उपभोक्ता पर कोटे की यह मार भारी पड़ेगी।
सरकार की यह पूंजीवादी दृष्टि ही है कि वह भारत के सामाजिक ढांचे को ही नजरंदाज कर रही है। भारत में संयुक्त परिवारों कि परंपरा अभी भी बड़े पैमाने पर कायम है। अतरू 10-12 लोगों के मानव संसाधन में मात्र छह सिलेंडर वार्षिक पर गुजरा हो पाना संभव नहीं है। सवाल उठता है कि कुछ दहार्इ रुपयों के दैनिक व्यय के आधार पर गरीबी रेखा निर्धारित होने वाले समाज में बढ़ी दरों पर चूल्हे कि आग को खरीदने की हैसियत कितने गरीब हिन्दुस्तानियों की होगी। यधपि भारत का आम आदमी सामंजस्य की सोच वाला है। किन्तु कीमतों के बढने से सडक से लेकर उसके घर तक आग लगी है। यह आग प्रतिदिन लोगो को सरकार कि नीतिगत विकलांगता और जनविरोधी सोच का अहसास कराएगी। विचारणीय विषय है कि कहीं यही आग सरकार के लिए भविष्य में दावानल न बन जाए।