वीरेन्द्र जैन
जैसे कि सुब्रमण्यम स्वामी उस जनता पार्टी के प्रमुख हैं जिस नाम की पार्टी ने कभी इमरजैन्सी लगाये जाने से आक्रोशित जनता का समर्थन हासिल करते हुए केन्द्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनायी थी, पर सुब्रमण्यम स्वामी की यह जनता पार्टी, आज वही जनता पार्टी नहीं है केवल उसका साइनबोर्ड भर है। वैसे ही अब भाजपा रूपी जनसंघ वह पार्टी नहीं रह गयी है जो आज से कुछ दशक पहले थी, या अपने जनसंघ रूप में जन्म लेने के समय थी। इसकी रीढ टूट चुकी है और अब यह एक अपंग पार्टी हो गयी है।
भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा है जो संघ के लक्ष्य को पाने के लिए उसके 62 अन्य संगठनों की तरह चुनावी मोर्चे पर इस उद्देश्य से काम करती है ताकि सरकार बना के आंतरिक सुरक्षा बलों, और आर्थिक संसाधनों पर अधिकार किया जा सके और अंततः संघ के हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। देश की बहुसंख्यक जनता संघ परिवार और उसकी साम्प्रदायिक नीतियों को पसन्द नहीं करती इसलिए जनता को भ्रमित करने के लिए उन्हें जनसंघ व भाजपा के माध्यम से उदारतावादी मुखौटे लगा कर आना पड़ा। पर जब इन मुखौटों के बाद भी उनका समर्थन मतदान में दस प्रतिशत से आगे नहीं गया तब उन्होंने अपनी नीतियों पर पुनार्विचार की जगह दूसरे दूसरे तरीकों से जनता को भरमाने और संख्याबल बढाने की हरसम्भव कोशिश की। ऐसा करके वे या तो सत्तारूढ हुए हैं या प्रमुख विपक्षी दल बन कर, सत्तारूढ पार्टी की अलोकप्रियता के समय नकारात्मक समर्थन मिलने की ताक में रहते हैं। जोड़ तोड़ की दम पर यह पार्टी न केवल राज्यों में सफल भी हुयी अपितु 1998 से 2004 के बीच उसने देश के केन्द्र में गठबन्धन सरकार चलायी।
सच तो यह है कि भाजपा ने अपनी पार्टी का शरीर कृत्रिम हवा भर कर फुलाया। संविद सरकारों के दौर में वे बिना किसी न्यूनतम कार्यक्रम के प्रत्येक संविद सरकार में सप्रयास सम्मलित हुये व भितरघात करते रहे। संघ की अनुमति से अपने संख्या विस्तार के लिए उसने बड़े पैमाने पर दलबदल को प्रोत्साहन दिया व कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी से आने वाले किसी भी उपयोगी व्यक्ति को पार्टी में प्रवेश देने या टिकिट देने में कोई संकोच नहीं किया, भले ही वह गैर कानूनी, आपराधिक कार्यों में लिप्त रहने के कारण निकाला गया हो। उसके सारे फैसले संघ के इशारों पर होते रहे हैं क्योंकि हर स्तर के संगठन सचिव संघ के प्रचारकों को ही नियुक्त किये जाने का नियम है और इस तरह उसका पूरा नियंत्रण रहता है, पर बात बात में हस्तक्षेप करने वाले संघ ने कभी भी इस दलबदल को हतोत्साहित करने की कोशिश नहीं की। कभी अपने को सैद्धांतिक और अन्य पार्टियों से भिन्न बताने वाली यह पार्टी आज दलबदल की ईंटों से खड़ी पार्टियों में सबसे प्रमुख पार्टी है। दलबदल के खिलाफ कानून बनने तक उन्होंने इसी अनैतिक कदम के द्वारा ही सरकारें बनायीं। इससे उसके वोट प्रतिशत का भी विस्तार हुआ। जिस नेहरू-गान्धी परिवार के लोगों को वे पानी पी पी कोसते हैं, उसी परिवार के दो सदस्यों मनेका गान्धी और वरुण गान्धी को अपने पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके सादर टिकिट दिया। आज वे न केवल अपनी मर्जी से ही अपना टिकिट तय करते हैं अपितु वरुण की पत्नी को भी चुनाव लड़ाने जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनावों में उनके द्वारा चयनित और समर्थित प्रत्याशियों की करारी हार के बाद मनेका पीलीभीत से और वरुण सुल्तानपुर से इस विश्वास के साथ चुनाव लड़ने का मन बना चुके हैं, कि पार्टी को तो टिकिट देना ही पड़ेगा। अपना बड़ा समर्थन दिखाने के लिए उन्होंने क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्म स्टार, आदि को भर्ती किया जो उनकी सभाओं में भीड़ जुटाने के भरपूर पैसे लेते हैं जो उनकी एक दिन की शूटिंग के पारिश्रमिक से कई गुना होते हैं। इसी तरह साधु साध्वियों के भेष में रहने वाले प्रवचनकर्ताओं को लालच देकर उन्हें उनके धार्मिक काम की जगह धर्मभीरु लोगों के वोट खींचने के लिए नियुक्तियां दीं, जिनमें से कुछ को तो उन्हें विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री तक बनाना पड़ा। रामजन्मभूमि मन्दिर विवाद को उन्होंने साम्प्रदायिक रूप देकर ध्रुवीकरण कराया व साम्प्रदायिक दंगों की श्रंखला खड़ी करके ध्रुवीकरण द्वाराअपनी जीत का माहौल बनाया।
राज्यों में जहाँ जहाँ उनकी सरकारें बनीं उन्होंने संघ की संस्थाओं के नाम पर जमीनों और भवनों का कौड़ियों के मोल में अधिग्रहण किया तथा विभिन्न अवैध और अनैतिक तरीकों से अटूट धन संग्रहीत किया। संघ की ओर से इन विकृत्तियों को रोके जाने या भ्रष्ट लोगों को मंत्रिमण्डल से हटाये जाने के कभी निर्देश नहीं दिये गये। परिणाम यह हुआ कि भाजपा के संगठन और संसद में कमाऊ पूत ही स्थान पाते गये। दिवंगत प्रमोद महाजन को तो नागपुर अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना लक्षमण बतलाया था। आज भी वे पहले उसके बेटे, फिर बेटी को राजनीति से जोड़े रखने के भरपूर प्रयास करने में लगे हुए हैं। नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनते समय कभी पार्टी छोड़ देने की धमकी देने वाले गोपीनाथ मुंडे को लोकसभा में उपनेता बनाना पड़ा था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा उठाये गये इस सवाल का कि गडकरी के पास इतना पैसा कहाँ से आया, आज तक कोई उत्तर नहीं दिया गया।
भाजपा सदैव से ही ऐसी नहीं थी। अपने पूर्व नाम जनसंघ के प्रारम्भिक दौर में कुछ सिद्धांतवादिता शेष थी। स्मरणीय है कि; प्रथम, जमींदारी और जागीरदरी के खिलाफ जब वैचारिक माहौल बन रहा था और राजस्थान विधान सभा में इसे हटाने के लिए विधेयक आया तब जनसंघ के पास तेरह विधायक थे. उनमे ग्यारह विधायक ज़मींदारी के समर्थक थे. जनसंघ ने उन्हें दल से निकाल दिया और पार्टी के पास मात्र दो विधायक रह गए। जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के दौरान विपक्ष ने विधान सभा से इस्तीफा देने का निर्णय लिया. इस पर जनसंघ के पच्चीस विधायकों में से चौदह ने विरोध किया. पार्टी ने उन सबको निकाल दिया। किंतु आज येदुरप्पा से लेकर मोदी तक और वसुन्धरा से लेकर उमाभारती तक के मामलों में भाजपा दृढ़ता नहीं दिखा सकी। इसका प्रमुख कारण उसकी सत्ता लोलुपता है। कुर्सी के लिए उन्होंने जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन करने से लेकर कैसे कैसे गलत और अनैतिक समझौते किये हैं उनकी सूची बहुत लम्बी और सर्वज्ञात है। आज भाजपा के रूप में जनसंघ का केवल नाम चल रहा है, जहाँ अवैध पैसे की दम पर वोट खरीदे जाते हैं तथा झूठ और षड़यंत्र के सहारे चुनाव के समय साम्प्रदायिकता फैला कर ध्रुवीकरण किया जाता है। हिन्दू एकता का ढोंग करने वाले आज चुनावों में जातिवाद का भरपूर सहारा लेते हैं और अपने राजनीतिक आर्थिक हितों के लिए जातिवादी दलों के साथ गलबहियां करते हैं। वे वोटों के लालच में सारे सांसदों को गालियाँ देने वाले बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे तक किसी भी आन्दोलन में घुसने की कोशिश करते हैं जबकि एक बड़े आकार का दल होने के कारण ये राजनीतिक आन्दोलन उन्हें स्वयं चलाने चाहिए थे।
आज भाजपा चुनावी सौदेबाजी में माहिर और सिद्धांतहीन गठजोड़ के लिए सदैव उतावली संस्था के रूप में सत्ता के लिए टकटकी लगाये रहती है। आज यह उस संस्था के रूप में जानी जाती है जिसमें मूल्य और लोकतंत्र की जगह जिद और दबाव के आगे बार बार झुकने के दृष्य सामने आ रहे हैं। आज भाजपा सिद्धांतों के लिए सत्ता का दाँव इसलिए नहीं खेल पा रही क्योंकि वो रीढहीन हो चुकी है जो भ्रष्टाचार के आरोप में कैमरे के सामने आये राष्ट्रीय अध्यक्ष को तब तक पार्टी में ढोती है जब तक कि उसे सजा नहीं हो जाती व उसकी गैर राजनीतिक पत्नी को लोकसभा में भेजने को विवश होती है।
अपने षड्यंत्रकारी तरीकों के कारण वे हर सहभागी से डरते हैं जो उनकी पोल खोल सकता है, वे राज्यों के हर उस मुख्यमंत्री और मंत्री से डरते हैं जो उनके खजाने को निरंतर भर रहे हैं और इसी के सहारे अपने खजाने को भी कुबेर का खजाना बना लेते हैं। आज उनकी सबसे बड़ी ताकत पैसा, अवसरवादिता, सैद्धांतिक लोच, और विकल्प हीनता वाले क्षेत्र ही हैं। यही कारण है कि आज अनुशासन नाम का भी नहीं रह गया है और इसी के अनुसार उसके नेतृत्व की छवि भी प्रभावित हुयी है इस रीढहीनता के चलते वे कभी भी विलुप्त जातियों की सूची में सम्मलित हो सकते हैं।
विरेंद्रजी के लेख ये दर्शाते हैं की उनका एकमात्र अजेंडा भाजपा और संघ परिवार को कोसना और उनकी कमियां ढून्ढ ढून्ढ कर सामने लाना है. क्या भाजपा के अलाव्बा उन्हें और किसी दल विशेष कर पिछले पेंसठ में से चौवन साल सत्ता पर काबिज कांग्रेस के कारनामे दिखाई नहीं देते हैं या वो देखना नहीं चाहते हैं. उन्हें ये तो दीख गया की भाजपा जब सत्ता में आती है तो संघ के संगठनों के नाम पर इमारतें ‘कब्जाने’ का काम कर्ट है लेकिन देश में लाखों करोड़ की संपत्तियां केवल एक खानदान के नाम पर बनायीं गयी हैं और सेंकडों की संख्या में योजनाये उसी परिवार के नाम पर चलायी जा रही हैं जिनमे लाखों करोड़ का बजट झोंका जाता है उस पर कोई उंगली उठाने का साहस वीरेंदर जी दिखाएँ तो समझ में आये. आज देश में जिस प्रकार के एक से बढ़कर एक घोटाले सामने आ रहे हैं जिनमे लाखों करोड़ का घोटाला हुआ है उन पर श्रीमान विरेंद्रजी की नजर नहीं जाती.
anil ji
नजर तो सब आता है परन्तु स्वार्थी दोषों न पश्यति .ये समझते हैं बार बार झूठ बोलने से लोग सच मन लेतें है. बेशर्म जो है .
वीरेन्द्र जी बहुत बढियां लिख रहे है.सच का साक्षातकार करवा रहे हैं.कुछ पीलियाग्रस्त रोगियों को यह सच बयानी रास नहीं आ रही है. जब तस्वीर बदरंग है तो लोग आईने को क्यों दोष देते हैं?
लोग कहते हैं बदलता है जमाना अक्सर, मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं.केवल साईन बोर्ड वाली जनता पार्टी के अध्यक्ष डॉ. सुब्रमण्यम स्वामीजी ऐसे ही एक ७२ वर्षीय युवा मर्द हैं जिन्होंने अकेले ही अलीबाबा चालीस चोर की पूरी जमात को नाकों चने चबवा रखे हैं. भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश में आज तक जितने भी संघर्ष हुए हैं उनमे सबसे सार्थक संघर्ष डॉ.स्वामी ने ही किया है. और उनके हौसले पूरे बुलंद हैं. विदेशी गोरी चमड़ी के पीछे दम हिलाने वाले हमारे अभिजात्य वर्ग के भारतीय नेताओं को आईना दिखाते हुए एड्विगे एंटोनिया मायिनो (उर्फ़ सोनिया) गाँधी को बेनकाब करने का सहस उस अकेले जवान मर्द ने ही दिखलाया है.(कृपया देखें :हाऊ मच यु नो योर सोनिया?).और जहाँ तक क़ाबलियत का सवाल है तो कृपया उनकी क़ाबलियत के बारे में भी जानकारी करलें. जहाँ तक भाजपा का सवाल है, जनता पार्टी और भाजपा की तुलना बेमानी है. आज भाजपा की जो स्थिति है वो वास्तव में अपने हिंदुत्व के अजेंडे से भटक जाने के कारन है. रही बात जातिगत सम्जहुतों की तो भाजपा का प्रयास हमेशा से ही विभिन्न जातियों को जोड़ने का रहा है ताकि हिन्दू समाज का एकीकरण हो. तीन बार मायावती को समर्थन भी इसी कारन दिया था ( अपने समर्थकों की नाराजगी झेलकर भी) की हिन्दू समाज एक जुट रहे.ये अलग बात है की बहनजी ने इसे इस रूप में नहीं लिया और विपरीत आचरण किया. आज जो लोग सत्ता की खातिर देशघाती ताकतों के साथ तरह तरह के समझौते कर रहे हैं उन्हें भाजपा के हिंदुत्व के अजेंडे पर ऊँगली उठाने का अधिकार नहीं है.
क्या वीरेंदर जी पश्चिम बंगाल में निकाय चुनाव हारने का झटका अब लगा है या सदमे से बाहर आने में इतना समय लग गया हा हा हा हा हा …………
मेरी समझ मे यह नहीं आया की भाजपा से समबन्धित लेखा का प्रारंभ आपने सुब्रमण्यम स्वामी से क्यों किया?
यदि इसलिए की वह भी कभी इनके जनता पार्टी के तरह साइनबोर्ड बन जायेगी तो आप को यह ज्ञान थी है की अकेले हे यूस शक्श ने अभी के सरकार को रामेश्वरम का समुद्र जल पिला दिया है? कभी चक कर देखें की वह कितना खरा होता है?
अब रही भाजपा रूपी जनसंघ के बात तो क्या यह आश्चर्य नहीं की पानी पी पी कर कोसने वाले जनवादी अब जनसंघ के कायल हो गए हैं..
आपलोग जनसंघ के कबसे समर्थक हो गए?
और इसकी अपंगता पर आपके घरियाली आंसू आने लगे.
मना की भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा है जो संघ के लक्ष्य को पाने के लिए उसके 62 नहीं १६२ अन्य संगठनों की तरह चुनावी मोर्चे पर इस उद्देश्य से काम करती है ताकि सरकार बना के आंतरिक सुरक्षा बलों, और आर्थिक संसाधनों पर अधिकार किया जा सके और अंततः संघ के हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके पर क्या यह देश की बहुसंख्यक जनता के संघ परिवार के प्रति९ आस्था के हो सकता है?
मुखौटे की बात पुरानी हो चली है इस देश में कोई हरी टोपी वाला है तो कोई लाल जो किसी के सिद्धांतो का लाल है ..
जब लड़ाई इनसे हो तो कुछ तो करना हे था उनको भी इसके लिए क्यों परेशान हैं बंधू?
नीतियों पर पुनर्विचार और संख्याबल बढाने में सम्बन्ध यही है तो वह घटना नहीं चाहिए था सत्तारूढ हुएया प्रमुख विपक्षी दल बन कर,रहे पर आपका अपना क्या हाल है ऊपर पूरब की में पाकिट और दखिन के साइड पाकिट तो किसने काटी ? उसीने जिसकी गोदमे बैठ प्रगति का समर्थन दिया.
अब और तो कोई पाकिट आपके पास है नही ।
संघ तो पुरे हिन्दू समाज की बात करता है कोई आया या गया क्या अंतर पड़ता है
अब गैर कानूनी, आपराधिक कार्यों में लिप्त तो बहुत लोक हैं- नाक्साल्वादियों , माओवादियों के बारे में आपका क्या ख्याल है?
संघ ने प्रचारकों को लगायातो वह नियंत्रण रखेगा ही – दलबदल एक प्रवृत्ति है विचार नहीं की इस पर बहुत विचार किया जाये?
जिस नेहरू-गान्धी परिवार के लोगों को वे पानी पी पी कोसते हैं, उसी परिवार के दो सदस्यों मनेका गान्धी और वरुण गान्धी को अपने पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके सादर टिकिट दिया। आज वे न केवल अपनी मर्जी से ही अपना टिकिट तय करते हैं अपितु वरुण की पत्नी को भी चुनाव लड़ाने जा रहे हैं क्योंकि वे दोनों अपने विदेशी सम्बंधोयों के विरोधी है फिर कांटे से ही कांटा निकलता है ना?
राजनीती के तमाशे में खिलाड़ी, फिल्म स्टार, आदि तो आते ही हैं- इसी तरह साधु साध्वियों पर ये तो शशक दल में भी है और दुसरे में भी जो उन्हें विधायक, सांसद बनाते रहे हैं.
रामजन्मभूमि मन्दिर विवाद को उन्होंने तो खड़ा किया नहीं था जिसने कभी मंदिर को मस्जिद बनाए की कोशिश की उसके विरुद्ध वहां की जनता लड़ रही थी
क्या रामलला की मुती यदि घुसी गयी तो वे भी संघ के थे?
जमीनों और भवनों का कौड़ियों के मोल में अधिग्रहण किया तथा विभिन्न अवैध और अनैतिक तरीकों से अटूट धन संग्रहीत किया। संघ की ओर से इन विकृत्तियों को रोके जाने या भ्रष्ट लोगों को मंत्रिमण्डल से हटाये जाने के कभी निर्देश देने की अपेक्षा आप संघ से करते है यानी उसी संघ के प्रशंशक भी है? भाई आप हैं कौन और कैसे विरोधाभास्से बयान एक ही सास में दे लेते हैं?
प्रमोद महाजन को अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना लक्षमण बतलाया था तो क्या हर्क्स आखिर हरकिशन सुरजीत तो यह नहीं कहते?
बेटे,-बेटी को राजनीति से जोड़े रखने के भरपूर प्समर्थन से ही तो अभी भी maan -बेटा का राज्य है -एक बैरम खान के संरक्शंमे
महासचिव दिग्विजय सिंह पास राज्य कहाँ से आया इसकी खोज करें? आश्चर्य की एक साम्यवादी राजाओं का साथ दे ?
जनसंघ के प्रारम्भिक दौर में कुछ सिद्धांतवादिता शेष थी पर उस समय सुभद्रा जोशी व दंगे व नम्बूदरीपाद तो कभी ऐसा नहीं बोले . मुझे हाल तक नहीं मालूम था की प्रथम, जमींदारी और जागीरदरी के खिलाफ जब वैचारिक माहौल बन रहा था और राजस्थान विधान सभा में इसे हटाने के लिए विधेयक आया तब जनसंघ के पास तेरह विधायक थे. उनमे ग्यारह विधायक ज़मींदारी के समर्थक थे. जनसंघ ने उन्हें दल से निकाल दिया और पार्टी के पास मात्र दो विधायक रह गए। जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के दौरान विपक्ष ने विधान सभा से इस्तीफा देने का निर्णय लिया. इस पर जनसंघ के पच्चीस विधायकों में से चौदह ने विरोध किया. पार्टी ने उन सबको निकाल दिया।
येदुरप्पा -मोदी ,वसुन्धरा ,उमाभारती सब का मामला अलग है
जगन के मामले कांग्रेस की दृढ़ता का फल देख ही रहे हैं सकी। जनसंघ काआप समथन कर रहे हैं तो बहुत सारे भाजपाईयों को अच्छा लगेगा.
अपराधी भ्रस्त सांसदों को गालियाँ देने वाले बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे तक के आप विरोधी कैसे हैं? क्या आपको उन सांसदों का समर्थक मान लिया जाये?
एक रीढविहीन सिनेबोर्ड दल को आप एक बड़े आकार का दल कैसे मान बैठे? विरोधाभासी द्रिस्तिकों है आपका. भाई इधर रहो व उधर इन भाजपाइयों की तरह दोनों तरफ नहीं.
राजनीतिक की गैर राजनीतिक पत्नी? थोडा लालूजी से सीखिए?
पैसा, अवसरवादिता, सैद्धांतिक लोच, और विकल्पहीनता, अनुशासनहीनता की जरूर उन्हें चिंता करनी चाहिए?