हिंदी की इस दशा के हम गवाह ही नहीं दोषी भी है !

हिंदी दिवस पर विशेषः-

शादाब जफर ‘‘शादाब’’

आज हिंदी जिस बुरे दौर से गुजर रही है हम इस के गवाह भी है और गुनाहगार भी। हिंदी बोलने और पढने वालो को आज देश में अनपढ गंवार, मीड़िल क्लास या एकदम नीचे दर्ज का समझा जाता है। संसद हो या बडे बडे आयोजन हमारे देश के वो साहित्यकार जिन के कंधो पर हिंदी की जिम्मेदारी है हिंदी से विमुख होकर बड़ी शान से अंग्रेजी में अपना सम्बोधन देते है। उत्तर प्रदेश सहित देश की हिंदी अकादमिया में काम के नाम पर सियासी जाल बुने जा रहे कुछ में तथाकर्थित लोग हिंदी के नाम पर आपस में नूरा कुश्ती खेल रहे है। आज उत्तर प्रदेश के अलावा हिंदी देश में और कहा बोली जाती है, पंजाब में पंजाबी, हरियाणा में हरियाणवी, कष्मीर में कश्मीरी, गुजरात में गुजराती, बंगाल में बंगाली , महाराष्ट्र में मराठी, गढवाल में गढवाली, कर्नाटक में कर्नड़, चेन्नई में तमिल, हैदराबाद में हैदराबादी हर प्रदेश की अपनी अलग भाषा है दिल्ली में भाषा के नाम पर कोई एक भाषा नही बोली जाती दिल्ली में पंजाबी, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, भोजपुरी, बिहारी कई तरह की भाषाओ का इस्तेमाल होता है। असम में पिछले दिनो हिंदी भाषी लोगो के साथ जो मारपीट जुल्म किये गये उस से हम सब वाकिफ है। ये ही वजह है कि आज हिंदी सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश की भाषा बन कर रह गई है।

बात अगर देश के अन्य प्रदेशो की जाये तो आज हिंदी को सब से बड़ा नुकसान इन अहिंदी भाषी प्रदेश ही पहॅुच रहा है इन प्रदेशो में कुछ लोग हिंदी के मठाधीश बने बैठे है। हिंदी की रोटिया खा रहे है हिंदी ही इन की सेवा कर रही है ये वो तथाकर्थित लोग है जो न कविता रचते है न गीत और न हिंदी साहित्य। पर फिर भी इन की गिनती देश के वरिष्ठ कवि, कहानीकारो, आलोचको, में तो होती ही है साथ ही इन के द्वारा कविता के नाम पर एक दो चुटकुले कवि सम्मेलनो में इन्हे बीस बीस, पच्चीस पच्चीस हजार रूपये और हिंदी संस्थानो से लाखो रूपये पुरूस्कारो के रूप में भी दिला देते है। जिस भारतेन्दू हरीश चंद्र ने कर्ज लेकर हिंदी की सेवा की वही आज हिंदी और हिंदी अकादमिया कर्ज लेकर इन तथाकर्थित साहित्यकारो, कवियो, और रचनाकारो की सेवाए कर रही है। यू तो देश के हर प्रदेश में एक हिंदी अकादमी हिंदी के उत्थान के लिये स्थापित है पर अहिंदी भाषी इन प्रदेषो में हिंदी का कितना उद्वार होता है हम सब जानते है हर साल लाखो रूपये खर्च करने के बाद भी हिंदी के साथ इन प्रदेशो में भाषा के नाम पर खुल्लम खुल्ला सौतेला व्यवहार होता है। कुछ प्रदेशो में तो ये हिंदी संस्थान राजनीति का अड्डा बने हुए है पिछले दिनो किस प्रकार दिल्ली की हिंदी अकादमी में साहित्यकारो के बीच द्वंद्व युद्व मचा था हम सब जानते है। उत्तर प्रदेष हिंदी संस्थान में पिछले कई सालो से हिंदी पुरूस्कारो की घोषणा नही हुई। आखिर ऐसे में हिंदी का किस प्रकार विकास हो। देश के कुछ हिंदी संस्थानो में हिंदी के विकास और पुरूस्कार के नाम पर आये पैसे का बंदरबाट हो जाता है। और केवल कागजो में ही हिंदी के नाम की दूध की नहरे बहाकर दिखा दी जाती है।

जिस देश की राष्ट्र भाषा हिंदी हो उस देश में केवल एक ही दिन हिंदी दिवस मनाने की प्रथा किस ने और क्यो चलाई। आज पूरे विश्व में बोली जाने वाली लगभग 7000 भाषाओ मे से लगभग 40 प्रतिशत भाषाए खतरे में में है जिन में हिंदी भी है। यू तो हम लोग 14 सिंतम्बर को बडे गर्व से साल में एक दिन हिंदी दिवस मनाते है, देश के बडे बडे साहित्यकार, पत्रकार, कवि, बुद्विजीवी, समाज चिंतक, रचनाकार, समाजसेवी संस्थाए आदि हिंदी को देश के माथे की बिंदी, अपनी भाषा, अपने पुरखो की भाषा, अपने देश की भाषा, आमजन की भाषा, राष्ट्रभाषा, कह कहकर गला सूखा लेते है पर साल के 364 दिन इन लोगो को हिंदी कभी याद नही आती। 2011 की जनसंख्या के अनुसार हमारे देश की जनसंख्या 121 करोड़ को पार कर गई जिन में हिंदी भाषियो की संख्या करीब सत्तर करोड़ बताई जा रही है। आश्चर्य होता है जिस देश में सत्तर करोड़ लोग हिंदी भाषी हो वहा हिंदी का ऐसा हाल।

पिछले वर्ष 26 सितंबर को भारत सरकार के राजभाषा विभाग की ओर से विभाग की सचिव महोदया ने एक पत्र जारी किया था जिस का विषय था ‘‘सरकारी कामकाज में सरल और सहज हिंदी के प्रयोग के लिये नीति-निर्देश’’ ये पत्र केंद्र सरकार के मंत्रालयो और विभागो के सचिवो को प्रेषित किया गया था। वैसे ऐसा पहली बार नही हुआ देश का राजभाषा विभाग समय समय पर जरूरत के हिसाब से न जाने कितनी बार ऐसे दिशा निर्देश जारी कर सरकारी विभागो को समय समय पर ये कहता रहा है कि सरकारी कामकाज की भाषा आसान होनी चाहिये परन्तु हिंदी की शुद्वता की चिंता, राजभाषा के मिटने की दुहाई देकर देष का एक बडा हिंदी प्रेमी वर्ग ऐसे राजभाषा विभाग के आदेशो का उपहास उड़ाने लग जाता है। देश के कुछ पत्रकार, साहित्यकार और इलैक्टोनिक्स मीडिया का एक बडा वर्ग भी इन के साथ हो जाता है। दरअसल आज देष में एक बहुत बडा वर्ग ऐसा है जो आसान हिंदी बोलता और समझता है जिसे कुछ लोग हिन्दुस्तानी भाषा भी कहते है और सरल हिंदी भाषा भी ये वो भाषा है जो कि सिनेमा, टीवी सीरियल, समाचार पत्र पत्रिकाओ और काफी अधिक संख्या में हमारे देश में लोग बोलते और समझते है।

में जब जब बालीवुड सुपर स्टार श्री अमिताब बच्चन जी को हिंदी में बोलते हुए देखता हॅू तो उन के द्वारा बोले जाने वाले हिंदी के एक एक शब्द को सुनकर मजा आने के साथ ही गर्व का अनुभव होता है। जब कि देश के कुछ बडे बडे पद्वम श्री और पद्वम भूषण व पद्वम विभूषण हिंदी के नाम की बरसो से रोटी खाने वाले और हिंदी के सहारे ही शौहरत की बुलंदी पर पहुॅचने वाले न जाने कितने ही लोगो को बहुत खास मौको पर भी अंग्रेजी में बोलते हुए देखता हॅू तो मन दुखी होता है। हिंदी फिल्मी गीतकारो ने जिस प्रकार हिंदी की सेवा की और साधारण और सरल भाषा में हिंदी गीत रचकर ये साबित कर के दिखाया की यदि सलीके से हिंदी गीतो को रचा जाये तो हिंदी गीत निसंदेह ऊर्दू शायरी में रचे गये गीतो की तरह ही लोगो के दिलो में उतर सकते है। गीतकार इंदीवर द्वारा रचे गीत ‘‘कोई जब तुम्हारा ह्दय तोड़ दे’’, शुद्व और आसान हिंदी भाषा में रचा सुन्दर गीत था तो वही ‘‘चंदन सा बदन चचंल चितवन’’ के अलावा ‘‘दर्पण को देखा तूने जब जब किया श्रृंगार’’ जैसे कर्णप्रिय हिंदी गीतो को तब से आज तक पसंद किया जाता रहा है। ये सब हिंदी और आम हिंदी भाषा का ही जादू था। गोपाल दास नीरज और संतोष आनंद जी के लिखे हिंदी के गीतो को फिल्म निर्माता हाथो हाथ लेने को तैयार रहते थें।

एक जमाने में कवि सम्मेलनो में हिंदी राज किया करती थी, देश के समाचार पत्रो में काम करने वाले लाखो कर्मचारी हिंदी वर्णमाला के एक एक शब्द को चुन चुनकर हर रोज़ हिंदी में छपने वाले समाचार पत्रो का किसी नव यौवना की तरह श्रृंगार किया करते थे। देश की आजादी के आन्दोलन के दौरान समाचार पत्रो और उन के मालिको, पत्रकारो की सीमाए सीमित थी, आय का कोई खास जरिया नही था। इस सब के बावजूद उस वक्त के रचनाकारो, पत्रकारो, साहित्यकारो और खुद समाचार पत्रो के मालिको को हिंदी के विकास की चिंताए रहती थी। ये सब लोग तन, मन, धन से हिंदी को परिनिष्ठित करने और उसे जन जन की भाषा बनाने, माजने में जुटे रहते थे। ये ही वजह थी की हिंदी उस वक्त समृद्व थी। पर आज हिंदी भाषा सिर्फ कागजी रिकॉर्ड में ही राजभाषा रह गई है या फिर कुछ लोगो के लिये हिंदी कमाई का धंधा मात्र बन कर रह गई है आज हिंदी हमारे देश की राष्ट्रभाषा है ये न तो संसद में साबित होता है न कवि सम्मेलनो और न हिंदी के अखबारो और न हिंदी के टीवी चैनलो सें।

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