मोहन भागवत की बोध-दृष्टि में ज्ञानवापी

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-ललित गर्ग –

किसी भी देश की माटी को प्रणम्य बनाने, राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने एवं कालखंड को अमरता प्रदान करने में राष्ट्रनायकों की अहंभूमिका होती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक होते हुए भी मोहन भागवत ने भारत की वसुधैव कुटुम्बकम् एवं सर्वधर्म समभाव की संस्कृति एवं सिद्धान्तों को निरन्तर बल दिया है। संघ की जीवन-दृष्टि व्यापक एवं सर्वसमावेशक रही है। इसी दृष्टि-बोध का सन्देश है भागवत द्वारा ज्ञानवापी के सन्दर्भ में दिया गया बयान। श्री भागवत ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि काशी के ज्ञानवापी क्षेत्र के मुद्दे पर कोई नया आन्दोलन चलाने का संघ का कोई इरादा नहीं है और यह मसला अदालत के समक्ष रखे गये साक्ष्यों के आधार पर ही सुलझना चाहिए, जिसे हिन्दू व मुसलमान दोनों ही पक्षों को मानना चाहिए और सामाजिक सौहार्दता बनाये रखने में योगदान करना चाहिए-यह पूरी तरह ऐसा राष्ट्रवादी बयान है जिससे हर उदारवादी धर्मनिरपेक्षता के पक्षकार भी सहमत होंगे।
इनदिनों भारत के मन्दिरों-मस्जिदों को लेकर देश में साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिशें हो रही है। भागवत ने व्यापक राष्ट्रीय हितों के सन्दर्भ में एक सवाल किया है कि हर मन्दिर में शिवलिंग क्यों ढूंढना? उन्होंने स्पष्ट किया है कि भारत में इस्लाम आक्रान्ताओं के माध्यम से आया। आक्रान्ताओं ने हिन्दू मन्दिरों का विध्वंस किया जिससे इस देश पर उनके हमलों से निजात पाने वाले हिन्दुओं का मनोबल गिर सके। ऐसे देशभर में हजारों मन्दिर हैं। अतः भारत में आज ऐसे मन्दिरों की अस्मिता पुनः स्थापित करने की बात हो रही है जिनकी लोगों के हृदय में विशेष हिन्दू प्रतिष्ठा या मान्यता है। हिन्दू मुसलमानों के खिलाफ नहीं हैं। मुसलमानों के पुरखे भी हिन्दू ही थे। मगर रोज एक नया मन्दिर-मस्जिद का मामला निकालना भी अनुचित है। हमें झगड़ा क्यों बढ़ाना। ज्ञानवापी के मामले हमारी श्रद्धा परंपरा से चलती आयी है। हम यह निभाते चले आ रहे हैं, वह ठीक है।
भागवत द्वारा ज्ञानवापी के लिये दिया गया ताजा वक्तव्य बेहद महत्वपूर्ण, राष्ट्र के प्रति दायित्वबोध जगाने एवं राष्ट्र-बोध से प्रेरित है। उनका कहना है कि इस तरह के विवादों को आपसी सहमति से हल किया जाना चाहिए और यदि अदालत गए हैं, तो फिर जो भी फैसला आए, उसे सभी को स्वीकार करना चाहिए। वास्तव में इस तरह के विवादों को हल करने का यही तार्किक एवं न्यायसगंत रास्ता है और इसी रास्ते पर चलकर शांति-सद्भाव के वातावरण को बल देते हुए राष्ट्रीय-एकता को मजबूती प्रदान की जा सकती है।
मोहन भागवत ने यह भी स्पष्ट किया कि अब आरएसएस किसी मंदिर के लिए वैसा कोई आंदोलन नहीं करने वाला, जैसा उसने अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर को लेकर किया था। उनका यह कथन इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि इन दिनों काशी के ज्ञानवापी परिसर के साथ मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान परिसर का मसला भी सतह पर है और दिल्ली की कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद का भी, जहां के शिलालेख पर ही यह लिखा है कि इसे अनेक हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर बनाया गया। अतीत में साम्प्रदायिक उन्माद में उन्मत्त शासकों एवं संकीर्ण-कट्टरवादी ताकतों ने हिन्दू संस्कृति को कुचलने के अनेक सफल प्रयत्न किये। जबकि भारत की संस्कृति ऐसी संकीर्ण एवं साम्प्रदायिक सोच से परे सर्वधर्म समभाव की रही है। जिसमें व्यक्ति अपने-अपने मजहब की उपासना में विश्वास करें, कोई बुराई नहीं थी। लेकिन आज जहां एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय के प्रति द्वेष और घृणा का प्रचार करते हैं, वहां देश की मिट्टी कलंकित होती है, राष्ट्र शक्तिहीन होता है तथा व्यक्ति का मन अपवित्र बनता है।
साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाने में असामाजिक, कट्टरवादी एवं संकीर्ण तत्वों का तो हाथ रहता ही है, कहीं-कहीं तथाकथित राजनैतिक दल एवं धर्मगुरु भी इस आग में ईंधन डाल देते हैं। लेकिन संघ ने हमेशा उदारता का परिचय दिया है। संघ प्रमुख के बयान से स्पष्ट है कि भारत हिन्दू व मुसलमानों दोनों का ही है मगर दोनों को एक-दूसरे की उन भावनाओं का आदर करना चाहिए जिनसे उनकी अस्मिता परिलक्षित होती है। काशी विश्व की प्राचीनतम नगरी मानी जाती है और इस देश के हिन्दुओं का मानना है कि इसकी रचना स्वयं भोले शंकर ने की है तो मुसलमानों को भी आगे आकर अपनी हट छोड़नी चाहिए और स्वीकार करना चाहिए कि हिन्दुओं के लिए काशी का वही स्थान है जो मुसलमानों के लिए काबे का। क्योंकि सनातन धर्म इसी देश में अनादिकाल से चल रहा है तो भारत के कण-कण में इस धर्म के चिन्ह बिछे हुए हैं जो बहुत स्वाभाविक हैं। निश्चित तौर पर हिन्दू धर्म शास्त्रों की रचना इसी देश में हुई है जिनमें विभिन्न विशिष्ट स्थानों का वर्णन है और उन्हीं को मिलाकर भारत देश का निर्माण हुआ है। अतः संघ प्रमुख की बातों को पूरा देश मनन करे, वैचारिक वैषम्य में समन्वय स्थापित करें और देश के संविधान पर पूरा भरोसा रखे।
संघ प्रमुख श्री भागवत ने नागपुर में संघ के विशिष्ट पदाधिकारी सम्मेलन में दिये गये अपने उद्बोधन में साफ किया कि मुस्लिम भी इसी देश के हैं और उनके पुरखे भी हिन्दू ही रहे हैं। उन्होंने किसी कारणवश इस्लाम धर्म स्वीकार कर पृथक पूजा पद्धति अपनाई। अतः उनसे किसी भी प्रकार का द्वेष उचित नहीं है। श्री भागवत ने इसके साथ ही एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सन्देश देते हुए समस्त हिन्दू समाज को सचेत भी किया कि वह हर मस्जिद में शंकर या शिवलिंग ढूंढ़ने की बात न करें। वास्तविकता तो यही रहेगी कि मुस्लिम आक्रान्ता राजाओं ने अपनी सत्ता की साख जमाने के लिए मन्दिरों पर आक्रमण किये और उनमें विध्वंस भी किया।
अतीत की भूलों से वर्तमान को दूषित करना प्रासंगिक नहीं है। हिंदू धर्म तो उदारवादी रहा है, वास्तविक तो यह है कि हिंदू एक जीवन शैली है, जिसमें सभी पूजा-पद्धतियों को स्थान दिया है। यही कारण है कि भारतीयों घरों में आपको ऐसे अनगिनत परिवार मिल जाएंगे, जिनके कुछ सदस्य आर्यसमाजी, कुछ सनातनी, कुछ जैनी, कुछ राधास्वामी, कुछ रामसनेही और कुछ कृष्णभक्त होंगे। ऐसे भी उदाहरण देखने को मिलते है कि जैनी एवं हिन्दू परिवारों में सिख, ईसाई, इस्लाम मानने लोग सांझा आस्था एवं श्रद्धा से रहते हैं। वे सब अपने-अपने पंथ को श्रद्धापूर्वक मानते हैं लेकिन उनके बीच कोई झगड़ा नहीं होता। आज ऐसे ही इंसान को इंसान से जोड़ने वाले तत्व चाहिए। लेकिन किन्हीं लोगों की नादानी एवं कट्टरवादी सोच से हिन्दू-मुस्लिम लड़ते हुए देखने को मिलते हैं, तो पूरा कश्मीर ऐसी ही संकीर्णता की आग में झूलस रहा होता है। कभी पश्चिम बंगाल तो कभी राजस्थान में भी ऐसे दृश्य अस्थिरता एवं अशांति का कारण बनता है। पडौसी देश इसका फायदा उठाते हैं। आज जरूरत इंसानों को आपस में जोड़ने की है, उन्हें जोड़ने के लिये प्रेम चाहिए, करूणा चाहिए, एक-दूसरे को समझने की वृत्ति चाहिए। ये मानवीय गुण आज तिरोहित हो गये हैं और इसी से आदमी आदमी के बीच चौड़ी खाई पैदा हो गयी है, भारत की सांझा संस्कृति ध्वस्त हो गयी है।
संभव है कि कुछ हिंदू संगठन भागवत के विचारों से असहमत हो सकते हैं, लेकिन उन्हें विदेशी हमलावरों की ओर से तोड़े गए हर मंदिर की वापसी के लिए बिना किसी ठोस दावे के मुहिम चलाना एवं देश की एकता और अखण्डता को खण्डित करना ठीक नहीं है। इसके बजाय उन्हें कानून का सहारा लेना चाहिए। इसी के साथ किसी को यह अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए कि हिंदू समाज ज्ञानवापी और मथुरा जैसे अपने प्रमुख मंदिरों के ध्वंस को सहजता से भूल जाए, क्योंकि यहां खुली-नग्न आंखों से यह दिखता है कि इन मंदिरों को तोड़कर वहां मस्जिदों का निर्माण किया गया। इस कटू सच से मुस्लिम समाज भी परिचित है और उसे उससे मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। इसलिए तो काशी की ज्ञानवापी मस्जिद हो या मथुरा की शाही ईदगाह, ये हिंदू समाज को मूर्तिभंजक आक्रांताओं की बर्बरता की याद दिलाते हैं। यह देखना दुखद है कि कुछ मुस्लिम नेता उस औरंगजेब का गुणगान करने में लगे हुए हैं, जिसने काशी के ज्ञानवापी में भी कहर ढाया और मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान मंदिर में भी। अतीत की भूलों को सुधारने का रास्ता संघर्ष एवं सड़कों पर हिंसा, अराजकता, नफरत, द्वेष एवं अशांति की बजाय कानून के द्वारा विधिसम्मत निकाला जाना चाहिए, यही देश की एकता एवं शांति के लिये उचित होगा।

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  1. मोहन भागवत की बोध-दृष्टि में ज्ञानवापी स्वयं अपने में उस अलौकिक हिंदुत्व के आचरण का पालन है जिसे विश्व में सभ्य देश वहां सामाजिक शिष्टाचार हेतु न्याय व विधि व्यवस्था द्वारा अपने अपने नागरिकों में शांति-सद्भाव के वातावरण को बल देते हुए राष्ट्रीय-एकता को मजबूती प्रदान करते हैं| प्रायः देखा गया है कि पारंपरिक भारत में अंग्रेजी भाषा के अज्ञान के कारण अधिकांश भारतीय १८६० में थोपे गए Indian Penal Code व तत्पश्चात पारित अधिनियमों से अनभिज्ञ, चिरकाल से केवल सात्विक आचरण में एक दूसरे के लिए सद्भावना व परस्पर सौहार्द द्वारा ही एकता बनाए हुए हैं| तिस पर किसी प्रकार के भेद-भाव व तत् परिणाम कोई भय, संशय अथवा क्रोध से दूर, मोहन भागवत जी का संबोधन हमें आज लोकतांत्रिक पथ पर चलते अतीत की भूलों को न्याय व विधि व्यवस्था के अंतर्गत विधिसम्मत निकाल राष्ट्र में एकता और शान्ति बनाए रखने हेतु प्रशंसनीय है|

    आलेख को भारतीय मूल की विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित किया जाना चाहिए ताकि आज इक्कीसवीं सदी में ज्ञानवापी अथवा अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को मोहन भागवत जी की बोध-दृष्टि से देख व समझ हम सभी लाभान्वित हो पाएं|

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