हबीब तनवीर का लोक संसार

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habibनाचा छत्तीसगढ़ की पारम्परिक प्रतिष्ठापूर्ण लोकविधा है। नाचा का संसार न केवल विविधताओं से परिपूर्ण है बल्कि इसमें सामाजिक जागरूकता का भाव भी है। छत्तीसगढ़ की लोक विधा नाचा को इस सदी के महान रंगकर्मी हबीब तनवीर ने पहचाना और नाचा को विश्व रंगमंच पर प्रतिष्ठित किया। नाचा के साथ ही छत्तीसगढ़ की लोककलाओं को विका रंगमंच पर प्रतिष्ठित करने वाले इस सदी के महान रंगकर्मी हबीब तनवीर रायपुर से हैं। हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की लोककलाओं को विका रंगमंच में प्रतिष्ठित करने के लिये स्थानीय कलाकारों को अपनी टीम का हिस्सा बनाया। वे दुनिया की नब्ज जानते थे। रंगकर्म से उनका पुराना रिश्ता था। हबीब तनवीर और उनका नया थियेटर एक दूसरे के पूरक बन गये थे। उनका हर प्रदर्शन कालजयी बना। हबीब तनवीर केवल नाट्य संस्था संस्थापक नहीं थे, वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो अनेक कला विधाओं के विशेषज्ञ और सृजनकर्ता भी थे। हबीब तनवीर व्यक्ति न रहकर एक अनन्य संस्था बन गए थे। नाट्य आलेख लेखक, कवि, संगीतकार, अभिनेता, गायक, निर्देशक और संचालक, और क्या नहीं, सभी कुछ, हबीब तनवीर थे। इस तरह छत्तीसगढ़ और हबीब तनवीर का रंगकर्म एक दूसरे के पर्याय बन गये, पहचान बन गये।

हबीब तनवीर शुरू से अपनी जमीन से जुड़े हुए थे और इस जमीन में ही उन्होंने अपने जीवन के लक्ष्य-रंगमंच-के लिए नई भारतीय पहचान की खोज शुरू की। उन्होंने बंबई में च्आवामी थियेटरज् से नाटक के क्षेत्र में पहले कदम रखे। फिर वे दिल्ली चले गए। दिल्ली में उन्होंने हिन्दुस्तानी थियेटर की स्थापना की। इंग्लैण्ड में उन्होंने रंगमंच का प्रशिक्षण भी लिया। इस तरह रंगमंच के पश्चिमी मानदंडों का अनुभव प्राप्त कर छत्तीसगढ़ लौैटे और यहां उन्होंने राजनांदगांव में नाचा का स्वस्फूर्ति और सहज परंपरागत रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। नाचा का प्रदर्शन देखा। इस प्रदर्शन को देखने के बाद उन्होंने अपनी जमीन और अपनी हवा को संजोए रखते हुए नए सिरे से अपने रंगकर्म को आगे बढ़ाया। उन्होंने लोकरंग शैली के ओज और आनंद के तत्वों को इस तरह प्रस्तुत किया जिससे बारतीय रंगमंच की नई पहचान बननी शुरू हो गई। उन्होंने एक बार फिर च्नया थियेटरज् नाम से रंग संस्था शुरू की जा उन्होंने व्यक्तित्व का पर्याय बन गई।

नाचा के इतिहासकर जानते हैं कि नाचा मूलत: रायपुर दुर्ग औऱ राजनांदगांव जिलों में ग्रामीण कलाकारों द्वारा आत्मरंजन के लिए प्रस्तुत किया जाता था। इसमें ग्राम विशेष में प्रचलित नृत्य, संगीत, हास्य और व्यंग्य के माध्यम से छोटी-छोटी कहानियां या घटनाएं प्रस्तुत की जाती थीव। कहावतों, मुहावरों, रीति-रिवाजों, धार्मिक और अन्य गीत इसमें शामिल रहते और उनका अभिनय भी किया जाता। ये सारी बातें क्षेत्र के बाहर क्षेत्र विशेष की घटनाओं की प्रस्तुति दर्शक के समझ के बाहर होती। इस प्रस्तुति में कोई निर्धारित पटकथा या अपने आप में पूर्ण एक कहानी नहीं होती थी। उसमें उपर्युक्त सभी तत्व अनगढ़ मिश्रण के रूप में होते जिससे उसका हर अंश या हर अंक स्वतंत्र रचना होती। उसमें सामान्य नाटकों की भांति न आदि होता, और न अंत। इसलिए नाटक की प्रस्तुति में कोई क्लाइमेक्स या चरमबिन्दु नहीं होता।

1973 में हबीब तनवीर ने नाचा पर कार्यशाला आयोजित की। इस समय तक नाचा में फिल्मी नाच और गानों का प्रवेश हो गया था। जिससे नाचा की मूल कला प्रदूषित हो रही थी। तनवीर ने यह प्रयास किया कि नाचा के मूल रूप को पुन: आविष्कृत किया जाए और इसे इस तरह प्रस्तुत किया जाय कि असंबद्ध क्षेत्र के दर्शक भी समझ सकें कि यह क्या कला है और इसमें क्या हो रहा है। दर्शन कला की शक्तिमत्ता और सृजनात्मकता को ग्रहण कर सकें, उससे आनंद प्राप्त कर सकें और उस आनंद को अपने जीवन अनुभव से जोड़ सकें। हबीब तनवीर ने नाचा कलाकारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति को बरकरार रखने के लिए अपने निर्देशन को न्यूनतम कर दिया। उन्होंने कलाकारों को सृजनात्मक कार्य का अभ्यास कराया और विषय वस्तु से लेकर शैली के विकास तथा रंगमंच पर प्रस्तुत करने की सामूहिकता को प्रोत्साहित किया। नाचा का अभ्यास करते-करते उपजी पटकथा की वजह से नाचा किसी ग्राम विशेष की सीमित प्रस्तुति से उठकर विका रंगमंच का अभिमान्य प्रदर्शन बन गया। यहां यह गौर करने की बात है कि पटकथा तो वह खाखा था जिसके भीतर नाचा के कलाकार अपनी उन्मुक्त और अलौकिक कलात्मकता को लौकिक धरातल पर प्रस्तुत करते थे। तनवीर ने ग्रामीण और शहरी संस्कारों, लौकिक और अलौकिक चेतना तथा पूर्वी और पश्चिमी दृष्टियों को इस तरह मिला-जुला दिय कि उनका प्रदर्शन आधुनिक संस्कृति का प्रतिनिधि रंगमंच बन गया।

हबीब तनवीर के रंगकर्म को अनेक कोणों को देखा जा सकता है लेकिन जिस एक विशेषता के कारण वे अनन्य हैं वह है कि उन्होंने भारतीय रंगकर्म को विका रंगमंच पर स्थापित किया। इस उपलब्धि के लिए उन्होंने पूर्व और पश्चिम के रंगकर्म का विवेकपूर्ण समन्वय किया था। इस समन्वय से न केवल भारतीय रंगकर्म की आधुनिकता सामने आई वरन् पूरे विका में रंगकर्म का अधुनातन रूप उभर कर आया। इस प्रक्रिया में स्वयं हबीब तनवीर विका के अग्रणी रंगकर्मी के रूप में अभिस्वीकृत हुए। हबीबजी ने नाट्य के ज्ञान और अनुशासन को ध्यान में रखकर, भारतीय लोक रंग शैली के आनंद और ओज, सहजता और उन्मुक्तता और अभिधा और व्यंजना को एक साथ समेटकर और पश्चिम के विधान को लक्ष्य करते हुए रंगकर्म की एक अलग पहचान बनाई। और इस पहचान में सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोपान था, नाचा से उनका तादात्म्य। लोक रंग को छत्तीसगढ़ के सुदूर ग्राम्य अंचल से उठाकर विका रंगमंच पर प्रतिष्ठित कर दिया। उनका यह प्रयास लोक और शास्त्र से हटकर, टाइम और स्पेस से परे जा कर समकालीन प्रासंगिकता अर्जित करने तक सीमित नहीं था। उनका यह प्रयास संस्कृति को कालजयी सिद्ध करने वाला था।

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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