
समय ने फ़िर करवट बदली , भूमंडलीकरण का दौर आया , समाज की अनेक वर्जनाएं टूटी । आधी आबादी का सच भी बदला । महिलाएं रसोई की दुनियाँ से निकल कर विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करने लगी । मर्दों को हर उस क्षेत्र में टक्कर मिलने लगी है जो कभी परंपरागत रूप से उनके एकाधिकार में थे । आज महिलाएं तकनीकी , चिकित्सा ,मीडिया, सेना , विमानन, कॉल सेंटर , कारपोरेट आदि -आदि यत्र तत्र सर्वत्र विराजमान हैं । अपने निर्णय ख़ुद लेने लगी हैं जो उनकी सामाजिक स्थिति में अपेक्षित सुधर को इंगित करता है । आज सामाजिक आर्थिक और राजनीतिकरूप से नारी सशक्त हुई है । वैश्वीकरण के दौर महिलाओं ने आत्मनिर्भरता का पाठ तो सीखा पर अपनी नैतिक जिम्मेदारियों , मूल्यों व सरोकारों को भूल सी गई । बदलाव जरुरी ही नहीं अवश्यम्भावी होता है । लेकिन आँखें मूंद कर उनको स्वीकार कर लेना कौन सी बुद्धिमत्ता है ? नई चीजों को अपनाते समय हमेशा पुराने का ख्याल रखना चाहिए । नए -पुराने के मिलने से ठोस नतीजा सामने आता है दुष्परिणाम तो कदापि नहीं ।
सवाल यह उठता है कि यह किसकी संतान है ,उस माँ की जिसने गुडियों से खेलना सिखाया , नीरस संसार में पहचान बना आगे बढाया या फ़िर उस माँ की जिसने इस नवयुग संसार में कल्पनाएँ दी पंख फैला कर उड़ने की तो फ़िर क्यों भटक गई अपने दायित्व से !आधुनिक नारी ने अपने आप को अधिकार सम्पन्नं तो बना लिया है पर क्या अपने कर्तव्यों के प्रति भी वो उतनी सजग है ? सजगता का तात्पर्य यह है कि अपने आतंरिक और बाह्य जगत की सुन्दरता के साथ अपने पवित्र और पूज्य रूप का भी ख्याल भी जरुरी है ।
- Author :- Deepali Pandey (JOURNALISM STUDENT )
भारत् मै स्त्रिया अपनी दुर्दशा कॆ लियॆ स्व्.म् जिम्मॆदार् है..
यह सही है कि आज से 40 50 साल पहले भारत ही नहीं पूरे विश्व में महिलाओं को घर तक ही सीमित रहना पड़ता था किन्तु आज भारत ही नहीं पूरे विश्व में महिलाओे ने अपनी योग्यता को साबित किया है। पद बढता है तो जिम्मेदारी भी बढता है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाऐ तो हमारे देश में महिलाऐं पुरूषों के मुकाबले अपने दायित्वों को ज्यादा अच्छे से निर्वाह कर रही हैं।