एक जमाना हुआ करता था जब शिक्षा केवल लड़कों के लिए थी । विद्यालय जाना तो दूर घर की दहलीज के भीतर ही घुट-घुट कर जीना ही लड़कियों की नियति बन कर रह गई थी । घर पर रहकर गृहस्थी के तौर-तरीके सीखना ही उनकी शिक्षा थी । कुछ आधुनिक मानसिकता वाले परिवारों में लड़कियां पढ़ भी ले तो बस अक्षरों की पहचान के लिए ताकि चिट्ठी -पत्री का कम चल सके । आजादी के बाद आधुनिकता ने पाँव जमाये और रुढियों का चलन कम होता गया । कालांतर में शिक्षा को अनिवार्य समझ कर शैक्षिक विकास और उसमें स्त्रियों की भागीदारी के अनेक आयाम विकसित होने लगे । प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में आशातीत सफलता मिलने के साथ ही उच्च शिक्षा के द्वार भी आधी आबादी के लिए खुलते गए । शहरों की तुलना में कमोबेश शिक्षा का अलख गाँव में भी जागने लगा । शादी-विवाह की चिंता से सही पर ग्रामीण अभिवावक भी लड़कियों को पढने स्कुल भेजने लगे ताकि सुयोग्य वर मिलने में कोई कठिनाई न हो । पर इतना कुछ होने पर भी बहुतायत लड़कियों को पढ़ी-लिखी होने के बावजूद चूल्हा-चौका करने पर विवश होना पड़ता था । समाज में वो आत्मनिर्भर नही थी । असल में स्त्री की आर्थिक मजबूती पति के पौरुष की तौहीन समझी जाती थी । बीबी की कमाई खाने वाले पति को बड़ी हिकारत की निगाह से देखा जाता था । इसी मानसिकता के कारण कितनी ही योग्य और क्षमतावान महिलाएं घर की शोभा बढ़ने की वस्तु बन कर रह गई !
समय ने फ़िर करवट बदली , भूमंडलीकरण का दौर आया , समाज की अनेक वर्जनाएं टूटी । आधी आबादी का सच भी बदला । महिलाएं रसोई की दुनियाँ से निकल कर विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करने लगी । मर्दों को हर उस क्षेत्र में टक्कर मिलने लगी है जो कभी परंपरागत रूप से उनके एकाधिकार में थे । आज महिलाएं तकनीकी , चिकित्सा ,मीडिया, सेना , विमानन, कॉल सेंटर , कारपोरेट आदि -आदि यत्र तत्र सर्वत्र विराजमान हैं । अपने निर्णय ख़ुद लेने लगी हैं जो उनकी सामाजिक स्थिति में अपेक्षित सुधर को इंगित करता है । आज सामाजिक आर्थिक और राजनीतिकरूप से नारी सशक्त हुई है । वैश्वीकरण के दौर महिलाओं ने आत्मनिर्भरता का पाठ तो सीखा पर अपनी नैतिक जिम्मेदारियों , मूल्यों व सरोकारों को भूल सी गई । बदलाव जरुरी ही नहीं अवश्यम्भावी होता है । लेकिन आँखें मूंद कर उनको स्वीकार कर लेना कौन सी बुद्धिमत्ता है ? नई चीजों को अपनाते समय हमेशा पुराने का ख्याल रखना चाहिए । नए -पुराने के मिलने से ठोस नतीजा सामने आता है दुष्परिणाम तो कदापि नहीं ।
सवाल यह उठता है कि यह किसकी संतान है ,उस माँ की जिसने गुडियों से खेलना सिखाया , नीरस संसार में पहचान बना आगे बढाया या फ़िर उस माँ की जिसने इस नवयुग संसार में कल्पनाएँ दी पंख फैला कर उड़ने की तो फ़िर क्यों भटक गई अपने दायित्व से !आधुनिक नारी ने अपने आप को अधिकार सम्पन्नं तो बना लिया है पर क्या अपने कर्तव्यों के प्रति भी वो उतनी सजग है ? सजगता का तात्पर्य यह है कि अपने आतंरिक और बाह्य जगत की सुन्दरता के साथ अपने पवित्र और पूज्य रूप का भी ख्याल भी जरुरी है ।
- Author :- Deepali Pandey (JOURNALISM STUDENT )
भारत् मै स्त्रिया अपनी दुर्दशा कॆ लियॆ स्व्.म् जिम्मॆदार् है..
यह सही है कि आज से 40 50 साल पहले भारत ही नहीं पूरे विश्व में महिलाओं को घर तक ही सीमित रहना पड़ता था किन्तु आज भारत ही नहीं पूरे विश्व में महिलाओे ने अपनी योग्यता को साबित किया है। पद बढता है तो जिम्मेदारी भी बढता है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाऐ तो हमारे देश में महिलाऐं पुरूषों के मुकाबले अपने दायित्वों को ज्यादा अच्छे से निर्वाह कर रही हैं।