26 जनवरी 1950 को भारतीय गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह वही दिन है, जब आजाद भारत की नींव रखी गयी थी। 26 जनवरी 1950 को भारत सरकार अधिनियम 1935 को हटाया गया तथा भारत का संविधान लागू किया गया था। संविधन ही है जिसने हमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक कराया। कहने को तो हमारे संविधान में पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार दिए गए है। लेकिन क्या वास्तविक परिदृश्य में ऐसा होता प्रतीत हो रहा है। शायद नही! कहने को तो हम 72 वां गणतंत्र दिवस मना जा रहे है। लेकिन देश की आधी आबादी आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही है। आज भी समाज मे महिलाओं को दोयम दर्ज़ा ही दिया जाता है। यहां एक सवाल अहम हो जाता है कि क्या देश की आधी आबादी के बिना भारतीय समाज की कल्पना की जा सकती है? समाज की इकाई का केंद्र ही महिलाएं है फिर क्यों उसी केंद्र को नजरअंदाज कर दिया जाता है? आज भी महिलाएं बेहतर जीवन, उच्च शिक्षा , बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। महिलाओं के प्रति हिंसा, बलात्कार जैसी घटनाएं आए दिन बढ़ती जा रही है।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि हमें संगठित होकर जागना होगा ताकि महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को रोका जा सके। वर्तमान परिवेश में भले महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रही है। देश के प्रधानमंत्री पद से लेकर राष्ट्रपति तक के सर्वोच्च पद पर महिला ने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है। भारतीय संविधान के जनक बेशक अंबेडकर जी थे। संविधान निर्माण सदस्यों में 15 प्रतिशत महिलाएं शामिल थी। जब देश की एकता अखण्डता में महिलाएं अग्रणी रही है। फिर ऐसी कौन सी वजह है कि महिलाएं आज भी इतनी दयनीय स्थिति में है। हमारी भारतीय संस्कृति में तो महिलाओं को सदैव सम्मान की दृष्टि से देखा गया है। फिर वर्तमान दौर में ऐसी क्या वजह रही जो महिलाओं की ऐसी दुर्दशा हो रही है। प्रथम दृष्ट्या देखे तो यही प्रतीत होता है कि आज समाज मे पुरुषवादी सोच का वर्चस्व है। यहां तक कि राजनीतिक परिपेक्ष में भी महिलाएं पिछड़ेपन का शिकार है। यही वजह है कि भारत मे महिला और पुरुषों के बीच आर्थिक असमानता की खाई गहराती जा रही है। जिसका असर महिलाओं पर साफ देखा जा सकता है। यहाँ तक की महिलाओं को उच्च वेतन वाले काम तक नही मिल पाते है। रिपार्ट बताती है कि महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 34 प्रतिशत कम वेतन मिलता है। यह स्थिति भारत मे ही नही अपितु विश्व भर में है। जेंडर गैप रिपोर्ट- 2020 की बात करे तो भारत मे 82 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 24 प्रतिशत महिलाएं ही कामकाजी है। जिसमे 14 प्रतिशत महिलाएं ही नेतृत्वकारी भूमिकाओं का संचालन कर रही है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्यों महिलाओं को शीर्ष पदों पर नही जाने दिया जाता? जब महिलाएं जीवन का सबसे बड़ा कष्ट सहकर बच्चे को जन्म दे सकती है। फिर इस दुनिया मे ऐसा कोई काम नही जो महिलाएं न कर सके। फिर महिलाओं की क्षमता पर शक क्यो?
वैसे एक बात है। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। ऐसा आधी आबादी को लेकर भी है। वर्तमान दौर में नारी शक्ति ने हर क्षेत्र में अपना हस्तक्षेप बढ़ाया है। नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं और बुलंदी की नई इबारत लिखी है। किंतु अब भी बहुत कुछ है, जो किया जाना बाकी है। इसके बिना आधी आबादी का लोकतंत्र अधूरा है। मेधा और मेरिट में जहां हमारी बेटियां, बेटों को हर साल पीछे छोड़ती हैं। वहां वह संख्या के अनुपात में आगे नहीं आ पा रहीं। मेरिट में श्रेष्ठता साबित करती है कि उनमें मेधा और क्षमता की कमी नहीं। कमी है तो अवसर की। कितनी ही बेटियां पढ़ने-लिखने की उम्र में चौका-बर्तन की अनिवार्यता में बंध दी जाती हैं। विद्यालय का मुंह सिर्फ इसलिए नहीं देख पातीं क्योंकि वह घर से दूर है और अभिभावक सामाजिक रूढि़वादिता व अन्य कारणों से उन्हें दूर पढ़ाई के लिए नहीं भेज पाते। कन्या भ्रूण हत्या आज की बड़ी समस्या है। यह रूढ़ि टूटनी चाहिए। तो ऐसे में क्या उम्मीद करें इस गणतंत्र दिवस से महिलाओं के लिए स्थितियां बदलेंगी? बदलनी भी चाहिए, क्योंकि समाज की प्रगति आधी आबादी की प्रगति से ही संभव है।
सोनम लववंशी
यह बूढ़ा मामा प्रवक्ता.कॉम पर सोनम बिटिया द्वारा एक ही सप्ताह में लिखे दो राजनीतिक निबंध, “आधी आबादी का गणतंत्र” और “चाह रही वह जीना, लेकिन घुट-घुटकर मरना भी क्या जीना?,” दोनों में संतुलन खोज रहा है| इक्कीसवीं सदी में जिस देश की कुल जनसँख्या का लगभग पैंसठ प्रतिशत जनसमूह आज भी गाँव में रहता हो, वहां पारंपरिक समाज में केवल परिवार को सुदृढ़ बनाने के उपाय ढूँढने होंगे| सुदृढ़ परिवार समाज को सुदृढ़ व सशक्त और सुदृढ़ व सशक्त समाज ही राष्ट्र को सुदृढ़, सशक्त, व संपन्न बना पाने में समर्थ है|
इसी लय में प्रवक्ता.कॉम के इन्हीं पन्नों पर सुश्री निर्मल रानी द्वारा प्रस्तुत लेख, “अवसर मिले तो-महिलायें,क्या कुछ न कर दिखाएं ?” पर अपनी टिप्पणी के संदर्भ में पाठकों को गूगल पर Feminism has destabilized the American family, by Mona Charen खोज मैं उसे पढ़ने को कहूँगा|
पारंपरिक भारत (इंडिया का नाम बदल देश केवल भारत के नाम से पहचाना जाए) में ही विनोद बंसल जी का “ऐसे लौटेगा भारत में राम राज्य..” सार्थक हो पाए गा जब हिंदी व प्रांतीय भाषाओं में लेखक केवल सकारात्मक विचारों से जनमत को प्रभावित करते समाज में कुरीतियों से छुटकारा दिला पाएं| इंडिया में अब तक अंग्रेजी भाषा में बहुधा पाश्चात्य सोच को प्रस्तुत किया गया है जिसका अच्छा अथवा बुरा प्रभाव सीधा नगरीय जनसमूह पर दिखाई देता है लेकिन राष्ट्र की आत्मा, “पारंपरिक भारत” अभी भी गाँव में है जिसे पाश्चात्य सोच से नहीं बल्कि भारतीय मूल की भाषाओं द्वारा सनातन धर्म पर आधारित भारतीय सोच से पुनः विकसित करना होगा|