आधी रहे न पूरी पावे

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हर व्यक्ति की तरह हर राजनीतिक दल का भी अपना मूल चरित्र होता है। वह चाह कर भी इससे हट नहीं
सकता। तीन तलाक और अनुच्छेद 370 पर संसद की बहस ने फिर इसे सही सिद्ध कर दिया है।
सबसे पहले कांग्रेस की चर्चा करें। किसी समय यह आजादी के लिए संघर्ष करने वालों का एक मंच थी; पर
गांधीजी के हाथ में आने बाद मुस्लिम तुष्टीकरण शुरू हो गया। खिलाफत आंदोलन का साथ, केरल में
मुस्लिम मोपलाओं के अत्याचारों का समर्थन, जिन्ना की जी हुजूरी, गोहत्या पर चुप्पी, झंडा कमेटी की राय
के बावजूद भगवे झंडे का तिरस्कार, देश का मजहब के आधार पर विभाजन, मजहबी दंगों में हिन्दुओं को
पिटने, लुटने और मरने के बावजूद पाकिस्तान में ही रहने की सलाह; पर बिहार में मुसलमानों पर मार पड़ते
ही उनकी रक्षा में जा पहुंचना, पाकिस्तान को 55 करोड़ रु. देने का दुराग्रह..जैसे कई उदाहरण दिये जा सकते
हैं।
इस परम्परा को नेहरू ने भी आगे बढ़ाया। उन्होंने शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर में राजा बनाने के लिए
महाराजा हरिसिंह को निर्वासन दे दिया। फिर अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए लाकर राज्य को उनकी बपौती
बना दिया। अयोध्या में श्रीराममंदिर का विषय सोमनाथ की तरह हल हो सकता था; पर उनका रवैया
ढुलमुल रहा। गोरक्षा को वे बेकार की बात मानते थे। हिन्दी की बजाय वे उर्दू के हिमायती थे। हिन्दू कोड
बिल में तो उन्होंने रुचि ली; पर मुस्लिम समाज में सुधार का कोई प्रयास नहीं किया। राजीव गांधी ने भी
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बावजूद कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं के हितों का गला घोंट दिया।
इस मुस्लिम तुष्टीकरण का पहले तो कांग्रेस को लाभ मिला; पर फिर देश में हिन्दुत्व का उभार होने लगा।
राम मंदिर आंदोलन का लाभ उठाकर भारतीय जनता पार्टी आगे बढ़ने लगी; पर कांग्रेस कूपमंडूक ही बनी
रही। अतः वह अब देश और अधिकांश राज्यों की राजनीति में अप्रासंगिक हो चली है। 2014 में पराजय के
बाद बनी एंटनी कमेटी ने कहा था कि कांग्रेस की छवि हिन्दू विरोधी और मुस्लिमों की समर्थक जैसी बन
गयी है। अतः 2019 के चुनाव में राहुल गांधी सैकड़ों मंदिरों में गये। कैलास मानसरोवर यात्रा की। जनेऊ और
नकली गोत्र का सहारा भी लिया; पर वे अपने दाग नहीं धो सके। इसलिए वे फिर तुष्टीकरण पर लौट रहे हैं।
लोकसभा में अनुच्छेद 370 पर हो रही बहस के दौरान राहुल ने ट्वीट कर इसे हटाने को मूर्खतापूर्ण कहा है।
उन्हें लगता है कि इससे मुसलमान नाराज हो जाएंगे; पर वे यह भूल रहे हैं कि उनके इस कदम से हिन्दू
इतने दूर हो जाएंगे कि कांग्रेस कहीं की नहीं रहेगी।
अब भारतीय जनता पार्टी को देखें। उसकी आत्मा हिन्दुत्व में है। जनसंघ के समय से ही वह गोरक्षा, जम्मू-
कश्मीर का एकीकरण, समान नागरिक संहिता, भारतीय भाषाओं का सम्मान, राम मंदिर निर्माण और
अवैध धर्मान्तरण पर प्रतिबंध आदि की बात करती रही है। बीच में एक समय ऐसा आया, जब लोकसभा में
उसके दो ही लोग पहुंच सके। यद्यपि इसका मुख्य कारण राजीव गांधी को इंदिराजी की हत्या से मिली

सहानुभूति थी; पर इससे भा.ज.पा. में चिंता गहरा गयी। अतः उन्होंने गांधीवादी समाजवाद का नारा दिया;
पर यह कार्यकर्ताओं के गले नहीं उतरा। क्योंकि भा.ज.पा. की नींव में हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद है। अतः पार्टी
ने इसे छोड़ दिया।
इसके बाद पार्टी ने फिर से हिन्दुत्व की राह पकड़ी। अटलजी के बदले कमान आडवाणीजी को सौंपी गयी।
उनके नेतृत्व में राममंदिर के लिए सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकाली गयी। मुरली मनोहर जोशी
के नेतृत्व में कन्याकुमारी से कश्मीर तक तिरंगा यात्रा हुई। इनसे परिदृश्य बदलता गया और आज
भा.ज.पा. की पूर्ण बहुमत की सरकार दिल्ली में है। मोदी ने धर्मान्तरण के कारोबारी एन.जी.ओ को मिल रहे
विदेशी धन को रोका है। तीन तलाक के फंदे से मुस्लिम महिलाओं को मुक्त किया है तथा जम्मू-कश्मीर का
पुनर्गठन कर राज्य को सच्ची आजादी दिलाई है। ये हिन्दुत्व के एजेंडे को मजबूत करने वाले कदम ही हैं।
क्षेत्रीय दलों में उ.प्र. की समाजवादी पार्टी, बिहार में नीतीश बाबू तथा बंगाल में ममता बनर्जी अपनी जीत में
मुस्लिम वोटों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं। इसलिए तीन तलाक और 370 पर वे सरकार के साथ
नहीं गये। मायावती का मूलाधार दलित वोट हैं। उन्होंने 370 पर सरकार का साथ दिया, चूंकि इससे जम्मू-
कश्मीर में दलित हिन्दुओं को नागरिकता एवं अच्छी नौकरी मिल सकेगी। अन्य क्षेत्रीय दल भी इसी तरह
अलग-अलग हिस्सों में बंटे हैं।
असल में अधिकांश नेताओं को देश की बजाय अपनी सम्पत्ति और खानदानी सत्ता की चिंता है और इसके
लिए वोट बैंक जरूरी है। वे सब जानते हुए भी उन प्रतिगामी विचारों से चिपककर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार
रहे हैं। देश का मूड न समझने वाले दलों के भविष्य पर किसी ने ठीक ही कहा है – आधी छोड़ पूरी को धावे,
आधी रहे न पूरी पावे।।

  • विजय कुमार, देहरादून

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