खुशहाल बचपन हमारी सोच का संकल्प बने

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– ललित गर्ग-

आजाद भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के जन्मदिवस 14 नवम्बर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है, हममें से कई लोग सोचते हैं कि बाल दिवस को इतने उत्साह या बड़े स्तर पर मनाने की क्या जरूरत है। परन्तु आज देश का बचपन जिस बड़े पैमाने पर दबाव, हिंसा, शोषण का शिकार है, बाल दिवस मनाते हुए हमें बचपन की विडम्बनाओं एवं विसंगतियों से जुड़ी त्रासदियों को समाप्त करना चाहिए। ऐसा इसलिये भी जरूरी है कि बच्चों को देश का भविष्य माना जाता है। यदि सात दशक तक बाल दिवस मनाते एवं बच्चों के उन्नत भविष्य बनाने का संकल्प दोहराते हुए बीत गया फिर भी बच्चों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों और शोषण के विरुद्ध हमने कोई सार्थक वातावरण निर्मित नहीं किया है तो यह विचारणीय स्थिति है। ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं-ना-कहीं हमारे राष्ट्र के पहरूओं ने देश के बाल-निर्माण का सुनहरा भविष्य बुनते हुए कोई-ना-कोई त्रुटि की है। सोचने वाली बात है कि हमने बाल-दिवस को कोरा आयोजनात्मक स्वरूप दिया है, प्रयोजनात्मक नहीं। यही कारण है कि इतने लम्बे सफर के बाद भी कहां फलित हो पाया है हमारी जागती आंखों से देखा बचपन को सुनहरा बनाने का स्वप्न? कहां सुरक्षित एवं संरक्षित हो पाया है हमारा बचपन? कहां अहसास हो सका बाल-चेतना की अस्मिता का? आज भी बाल जीवन न सुखी बना, न सुरक्षित बना और न ही शोषणमुक्त।
बच्चांे के प्रति पंडित नेहरू के प्रेम को देखते हुए उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाने का मुख्य उद्देश्य यही था कि सभी भारतीय नागरिकांे को बच्चों के प्रति जागरूक करना ताकि सभी नागरिक अपने बच्चों को सही दिशा में सही शिक्षा एवं संस्कार दे, उनको शोषण एवं अपराधमुक्त परिवेश दे, उनकी प्रतिभा को उभारने का अवसर दे ताकि एक सुव्यवस्थित और सम्पन्न राष्ट्र का निर्माण हो सके जो की बच्चों के अच्छे भविष्य पर ही निर्भर करता है। लेकिन आज का बचपन केवल अपने घर में ही नहीं, बल्कि स्कूली परिवेश एवं समाज में दबाव एवं हिंसा का शिकार है। यह सच है कि इसकी टूटन का परिणाम सिर्फ आज ही नहीं होता, बल्कि युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते यह एक महाबीमारी एवं त्रासदी का रूप ले लेता है। यह केवल भारत की नहीं, बल्कि दुनिया की एक बड़ी समस्या है।
बचपन से जुड़ी समस्याओं एवं त्रासद स्थितियों पर समय-समय पर अनेक शोध हुए है, इन शोधकर्ताओं का मानना है कि स्कूल और घर दोनों ही जगह ताकत का खेल चल रहा है। स्कूल का प्रबंधन तो अपना सारा रोबदाब बच्चों को ही दिखाता है। लेकिन घर में बालक माता-पिता के कुल दीपक और बुढ़ापे के सहारे हैं, अतः वे उन्हें सक्षम बनाने एवं दुनिया का अनोखा बालक का दर्जा दिलाने के लिये अपने व्यवहार को ही कटू एवं हिंसक बना देते हैं। यदि माता-पिता किसी ऊंच्चे पद पर हैं तो बच्चों का चरित्र उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है। दोनों स्थानों में परिवार और स्कूल में लीक से हटने पर बच्चों के लिये दण्ड की व्यवस्था है। लड़कियों को धमकी दी जाती है कि यदि उन्होंने कोई गलती की तो उसका गंभीर परिणाम भुगतना पड़ेगा।
विडम्बना यह है कि भारतीय बालक अपने अधिकारों से अनभिज्ञ हैं। यह काम शिक्षकों और पालकों को करना चाहिए किन्तु वे दोनों ही इनके प्रति उदासीन हैं। वे बाल अधिकार को अपनी सत्ता के लिए धमकी मानते हैं। संविधान में बच्चों के जीवन, विकास और सुरक्षा की व्यवस्था है। दण्ड को बालकों के अधिकारों का अतिक्रमण माना जाता है। लेकिन इन कानूनांे के होते हुए भी अज्ञानता के कारण बच्चे उनका लाभ नहीं ले पाते। इस गंभीर होती समस्या से निजात पाने के लिये एक विस्तृत बाल संहिता तैयार की जाए और उसमें बालक के अधिकारों को शामिल किया जाए। हमें इसकी बड़ी जरूरत है। क्योंकि हमारे देश के लोगों के मन में बच्चों को लेकर महत्वाकांक्षाएं बड़ी गहराई से जमी हुई हैं। यही कारण है कि हमारे देश का बचपन संकट एवं अंधेरों से घिरा हैं। बचपन को इस संकट एवं उन पर हो रही हिंसा एवं दबा की त्रासदी से मुक्ति के लिये समय समय पर प्रयत्न होते रहे हैं। बी. आर. कृष्णन के सभापतित्व में विशेषज्ञों की एक समिति ने ‘चिल्ड्रन कोड बिल-2000’ तैयार किया था। इसमें सुझाया गया है कि एक राष्ट्रीय तथा सभी राज्यों के अपने-अपने कमीशन बनाए जाएं। ये कमीशन महिला कमीशन जैसे हों। कोड बिल के पालकों के इस दायित्व पर जोर दिया गया है कि वे बच्चों के साथ प्यार और दयालुता का व्यवहार करंे। परिवारों और स्कूलों में संवाद का माहौल बनना चाहिए ताकि बच्चों का स्वाभाविक विकास हो सके। ताकि बचपन के सामने आज जो भयावह एवं विकट संकट और दुविधा है उससे उन्हें छुटकारा मिल सके।
लंदन के लैंकस्टर यूनिवर्सिटी मैनेजमेंट स्कूल के अर्थशास्त्र विभाग में असोसिएट रह चुकीं एम्मा गॉरमैन ने इस पर लम्बा शोध किया है। उन्होंने अपने इस शोध के लिए यूके के 7000 छात्र-छात्राओं को चुना। उन्होंने पहले उनसे तब बात की जब वे 14-16 की उम्र के थे। उसके बाद तकरीबन दस वर्षों तक उनसे समय-समय पर बातचीत की गई। गॉरमैन ने पाया कि बाल एवं किशोरावस्था के हिंसक एवं दबावपूर्ण वातावरण यानी बच्चों को अभित्रस्त करना, उन पर अनुचित दबाव डालना या धौंस दिखाना, चिढ़ाना-मजाक उड़ाना या पीटना की घटनाओं ने बच्चों के भीतर के आत्मविश्वास, स्वतंत्र व्यक्तित्व, मौलिकता, निर्णायक क्षमता का दीया बुझा दिया, समस्याओं से लड़ने की ताकत को कमजोर कर दिया, पुरुषार्थ के प्रयत्नों को पंगु बना दिया।
बच्चा अपनी मर्जी से कुछ भी करता है या अपनी आंखों से दुनिया देखने की कोशिश करने लगता है तो उसे मौखिक उपदेश से लेकर पिटाई तक झेलनी पड़ती है। उसे वह बनने की कवायद करनी पड़ती है जो घर के लोग चाहते हैं। इस तरह उसकी इच्छा, कल्पनाशीलता और सर्जनात्मकता की बलि चढ़ जाती है। घर में आमतौर पर संवादहीनता का माहौल रहता। मां-बाप बच्चों से बात नहीं करते। उसकी शिकायतों, उसकी परेशानियों को जानने की कोशिश नहीं करते। ऐसे में बच्चे के भीतर बहुत सी बातें दबी रह जाती हैं जो धीरे-धीरे कुंठा का रूप ले लेती हैं, जो आगे जाकर बच्चों को मनोरोगी बना देती है।
स्कूली परिवेश एवं घर के माहौल में बच्चों के साथ होने वाले नकारात्मक प्रभाव वयस्क होने के बाद जब सामने आता है तो वहां एक ऐसी ढलान होती है जहां संभावनाभरे इंसान का जन्म असंभव हो जाता है। हमें उन धारणाओं एवं मान्यताओं को बदलना होगा जो बच्चों पर दबाव एवं हिंसा की त्रासदी का आधार है, जिनको सन्दर्भ बनाकर हमने गलतफहमियों, सन्देहों और अपनी महत्वाकांक्षाओं की दीवारें इतनी ऊंची खड़ी कर दी कि बचपन ही संकट में आ गया है। आधुनिकता के इस युग में सभी अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा खूब पढ़े और इंजीनियर, डॉक्टर या कोई आईपीएस अधिकारी बने इसके लिये माता-पिता शुरू से ही बच्चे से अतिश्योक्तिपूर्ण अपेक्षाएं रखते हैं और इसके लिये उसे अभित्रस्त करते हैं, उस पर अनुचित दबाव डालते हैं और हिंसक हो जाते हैं। इस बीच अभिभावक या शिक्षक बच्चे की क्षमता को परखना भूल जाते हैं, उस पर दबाव एवं धौंस जमाने, उसको डराने, चिढ़ाने, मजाक उड़ाने या पीटने के कारण बच्चा बेहतर रिजल्ट देने के बजाय कमजोर हो जाता है, उसकी नैसर्गिक क्षमताएं अवरुद्ध हो जाती है। इसके कारण बाल एवं किशोरावस्था में दबाव, शोषण एवं हिंसा का शिकार होने वालें बच्चों में से 40 प्रतिशत के मनोरोगी होने की आशंका रहती है। मनोरोग के लक्षण प्रायः तब उभरते हैं जब बच्चे 20-25 की उम्र में पहुंचते हैं। मनोरोगों में डिप्रेशन प्रमुख होता जिसके चलते उन्हें नौकरी मिलने में दिक्कत होती है।
बाल दिवस केवल एक दिन स्कूलों में मना लेने से इस दिवस का उद्देश्य खत्म नहीं हो जाता है क्योंकि आज भी हमारे देश में बालमजदूरी, यौन शोषण, दबाव एवं हिंसा जैसे जघन्य अपराध होते रहते है। जिस उम्र में बच्चो के हाथ में किताबे होनी चाहिए उस उम्र में इन बच्चों को आर्थिक कमजोरी के चलते इन्हें काम करने पर मजबूर कर दिया जाता है, जिसके चलते इनके जीवन में पढाई का कोई महत्व नहीं रह जाता है ऐसे में अगर बच्चे पढ़-लिख न सके तो एक विकसित राष्ट्र का सपना कैसे आकार लेगा? ऐसे में बस यही प्रश्न उठता है हमारे देश की सरकारों को बच्चांे को बालमजदूरी, यौन-शोषण, पारिवारिक हिंसा से बचाने के लिए कानून का निर्माण किया जाय और पूरी सख्ती से इसे लागू भी किया जाय। साथ में इन बच्चांे के पढाई के खर्चांे को भारतीय सरकारों को एक सीमा तक खुद उठाना चाहिए तभी हम एक विकसित राष्ट्र का सपना देख सकते है और तभी बाल दिवस मनाने का उद्देश्य भी पूरा होगा।

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