करोना से भी खतरनाक वायरस है नफरत

              *केवल कृष्ण पनगोत्रा*

करोना वायरस ने विश्व भर में स्वास्थ्य संकट के साथ-साथ रोजमर्रा के जीवन-यापन का संकट भी उत्पन्न किया है। खासकर विकासशील देशों में जीवन-यापन के संकट का खतरा चिंतनीय है। भारत में वैसे तो समाज के हर वर्ग पर करोना के दुष्प्रभाव देखे जा सकते हैं, लेकिन लॉकडाउन के चलते जीवन-यापन को लेकर करोना वायरस के पहले शिकार निम्न-निर्धन परिवार हैं जिन्हें रोज कमाना और खाना होता है। जो घर छोड़ कर कमाने के लिए बेघर हुए हैं।
करोना के कहर का सामना करने के लिए शासन-प्रशासन हर तरह से प्रयासरत है। सरकार और समाज के सामने दोहरी चुनौती है। बढ़ते हुए संक्रमण को स्थाई तौर पर समाप्त करना और बिगड़ती हुई अर्थव्यवस्था को संभालना। फिलहाल लॉकडाउन के बजाए अन्य कोई भी स्वीकृत चिकित्सीय समाधान सामने नहीं आया। अमेरिका, इटली, फ्रांस, ब्रिटेन आदि विकसित देश हाथ खड़े किये हैं।

सांप्रदायिक वैमनस्य है भारत की चिंता:

समस्त देश कमोबेश एक ही तरह की समस्याओं से घिरे हैं। हर देश को अर्थव्यवस्था के संकट के साथ स्वास्थ्य के संकट से भी निपटना पड़ रहा है। लेकिन भारत में अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य संकट के साथ एक तीसरा संकट भी उभार ले रहा है। यह संकट सांप्रदायिक घृणा का है। कोई दो राय नहीं कि तबलीगी जमात से संबंधित लोगों की लापरवाही से लॉकडाउन के अपेक्षित परिणाम नहीं आ सके। लॉकडाउन को गंभीरता से न लेने वालों को विधि सम्मत दंड देने में कोई नरमी नहीं होनी चाहिए। लेकिन सवाल तो यह भी है कि दो हफ्ते से ज्यादा हो रहे लॉकडाउन के दौरान आम जनता को समझने और समझाने में सरकार को दिक्कत क्यों हो रही है? क्या इस नासमझी के लिए सिर्फ मुसलमान ही जिम्मेदार है? रोज़ कमाने-खाने वाले  गरीबों की चिंता का समाधान कहां तक हुआ है? खाने-पीने की सामग्री वितरित होने वाले स्थानों पर  भीड़ का आलम, पुलिस द्वारा करवाई जाने वाली उठक-बैठक और डंडा परेड के दोषी क्या सारे ही मुसलमान हैं? बावजूद मुसलमानों को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है।   मुसलमान कोई भी हो इस नफरत का शिकार हो सकता है, फिर चाहे वह कोई आम मुसलमान हो या भारतीय क्रिकेटर इरफान पठान।
सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने वाली इस मानसिकता के किस्से पुराने हैं। 1998 में भी नफरत की घटनाओं का तूफान आया था। मुसलमानों और ईसाइयों के धार्मिक स्थलों पर हमले हुए थे। कर्नाटक के चिकमंगलूर जिले में बाबा बुदनशाह की दरगाह हो, इसाई मिशनरियों पर हमले और ननों से बलात्कार हो, पाकिस्तान के गजल गायक गुलाम अली के प्रोग्राम पर रोक हो, या फिर करोना का ठीकरा सिर्फ मुसलमानों पर फोड़ने की बात हो, नफ़रत का यह सियासी खेल भारत की घर्म निरपेक्ष तासीर के लिए करोना से भी ज्यादा खतरनाक वायरस है।
करोना संकट को लेकर सरकार के प्रयासों की सफलता का हर देशवासी हामी है लेकिन सांप्रदायिक नफ़रत की आग में देश को झोंकना हर किसी को गवारा नहीं है। फिर भी नफ़रत का माहौल बनाने का मक़सद?  सवाल वही है जो बार-बार उठता है। समस्या वही है जिसका समाधान नहीं होता। समस्या वास्तविक में मज़हब के रथों और धर्म के घोड़ों पर सवार होकर देश में शासक बनने की सपने देखते रहना है। कई बार जनता मज़हब के ठेकेदारों के सपने चकनाचूर भी कर देती है। देश की संस्कृति से या ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की किसे फिक्र है। भाषण मात्र की बातें हैं असल में। संस्कृति की दुहाई देने का मक़सद शासन की चौधराहट कायम रखना मात्र है। फिर बहाना कोई भी हो सकता है।
किसी शायर ने मौजूदा हालात पर सटीक पंक्तियां कही हैं :

दुनिया के हर शख्स के दिल से मिट जाएगा मैल!

ऐ मुहब्बत, तू भी तो कभी करोना की तरह फैल!!
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