हे देवि! अब मृजया रक्ष्यते को लेकर हमारी शर्मिंदगी भी स्‍वीकार करें

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अतिवाद कोई भी हो, वह सदैव संबंधित विषय की उत्‍सुकता को नष्‍ट कर देता है। अति  की घृणा, प्रमाद, सुंदरता, वैमनस्‍य, भोजन, भूख, जिस तरह जीवन को प्रभावित करती  हैं और स्‍वाभाविक प्रेम, त्‍याग, कर्तव्‍य को खा जाती हैं उसी प्रकार आजकल ”अति  धार्मिकता” अपने कुछ ऐसे ही दुष्‍प्रभावों को हमारे सामने ला रही है। जो धर्म से जुड़ी  उत्‍सवधर्मिता कभी हमारी खासियत हुआ करती थी और अपने ही रंग में देश के हर  वर्ग को तथा हर क्षेत्र को रंगकर उत्‍साह भरती थी, आज वही अतिवाद की शिकार हो  गई है।

इसी ”अति धार्मिकता” ने जहां धर्म को तमाम फर्जी बाबाओं के हवाले किया,  वहीं सोशल मीडिया और बाजारों में लाकर ‘धर्म के उपभोक्‍तावाद’ का प्रचार किया।

इस सारी जद्दोजहद के बीच इन उत्‍सवों को मनाने का जो मुख्‍य मकसद था, वह  तिरोहित हो गया। कभी जीवन पद्धति में तन-मन की स्‍वच्‍छता को निर्धारित करने  वाला हमारा धर्म ही बाजार और फाइवस्‍टार सुविधाओं वाले आश्रमों के जरिए समाज की  कमजोरी बन गया।

जिन धार्मिक उत्‍सवों को मनाने का सर्वोपरि उद्देश्‍य स्‍वच्‍छता हुआ करता था, उसके  लिए आज देशभर में प्रधानमंत्री को चीख-चीखकर कहना पड़ रहा है कि स्‍वच्‍छता को  संकल्‍प बनाएं। ये हमारे लिए बेहद शर्म की बात है कि आज स्‍वच्‍छता सिखानी पड़ रही  है, कचरे के ढेरों पर बैठकर हम देवी-देवताओं की (बाजार के अनुसार) आराधना तो कर  रहे हैं परंतु स्‍वच्‍छता का संकल्‍प नहीं लेते।

इस ओढ़ी हुई ”अति धार्मिकता” के कारण ही हर त्‍यौहार को मनाने की बाध्‍यता ने तन  और मन दोनों की स्‍वच्‍छता पीछे डाल दी तथा धार्मिक उपदेशों-प्रवचनों-परंपराओं-रूढ़ियों  के मुलम्‍मे आज के इन धार्मिक आयोजनों की हकीकत बन गए।

हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी कल से एक बार फिर शारदीय नवरात्र की स्थापना हो  चुकी है। बाजारवाद के कारण ही सभी को धन, धान्य, सुख, समृद्धि और संतुष्टि से  परिपूर्ण जीवन की कामनाओं वाले स्‍लोगन से सजे संदेश इनबॉक्‍स को भरने लगे हैं।  कब श्रावण माह की गहमागहमी के बाद श्रीकृण जन्‍माष्‍टमी के बाद गणपति की  स्‍थापना-विसर्जन, श्राद्ध पक्ष और अब नवरात्रि का विजयदशमी तक चलने वाला दस  दिवसीय उत्‍सव आ गया, पता ही नहीं चला। मगर इस बीच जो सबसे ज्‍यादा प्रभावित  रही, वह है स्‍वच्‍छता जबकि उपर्युक्‍त सभी उत्‍सवों में स्‍वच्‍छता प्रधान है।

कोई भी पूजा मन, वचन और कर्म की शुद्धि व स्‍वच्‍छता के बिना पूरी नहीं होती,  शारदीय नवरात्र देवी के आगमन का पर्व है। देवी उसी घर में वास करती है, जहां  आंतरिक और बाह्य शुद्धि हो। वह कहती भी है कि मृजया रक्ष्यते (स्‍वच्‍छता से रूप की  रक्षा होती है), स्‍वच्‍छता धर्म है इसीलिए यही पूजा में सर्वोपरि भी है। शरीर, वस्त्र,  पूजास्‍थल, आसन, वातावरण शुद्ध हो, कहीं गंदगी ना हो। यहां तक कि पूजा का प्रारंभ  ही इस मंत्र से होता है -”ऊँ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्‍थां गतोsपिवा।

इसके अलावा  देवीशास्‍त्र में 8 प्रकार की शुद्धियां बताई गई हैं- द्रव्‍य (धनादि की स्‍वच्‍छता अर्थात्  भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो), काया (शरीरिक स्‍वच्‍छता), क्षेत्र (निवास या कार्यक्षेत्र के आसपास  स्‍वच्‍छता), समय (बुरे विचार का त्‍याग अर्थात् वैचारिक स्‍वच्‍छता), आसन (जहां बैठें  उस स्‍थान की स्‍वच्‍छता), विनय (वाणी में कठोरता ना हो), मन (बुद्धि की स्‍वच्‍छता)  और वचन (अपशब्‍दों का इस्‍तेमाल ना करें)। इन सभी स्‍वच्‍छताओं के लिए अलग  अलग मंत्र भी हैं इसलिए आपने देखा होगा कि पूजा से पहले तीन बार आचमन, न्‍यास,  आसन, पृथ्‍वी, दीप, दिशाओं आदि को स्‍वच्‍छ कर देवी का आह्वान किया जाता है।

विडंबना देखिए कि देवी का इतने जोर शोर से आह्वान, बाजारों में चुनरी-नारियल के  ढेर, मंदिरों में लगी लंबी-लंबी लाइनें ”देवी आराधना” के उस मूलतत्‍व को ही भुला चुकी  हैं जो देवी (स्‍वच्‍छता की ओर) के हर मंत्र में निहित किया गया है। बाजार आधारित इस समय में पूरे नौ दिनों के इस उत्‍सव को लेकर जिस उत्‍साह के दिखावे की हमसे अपेक्षा की जाती है, उसे हम बखूबी पूरा कर रहे हैं। हमारे स्‍मार्टफोन इसके गवाह हैं मगर देवी आराधना की पहली शर्त को हम मानने से इंकार करते हैं, जिसका उदाहरण हैं हमारे आसपास आज भी लगे गंदगी के ढेर।

यह ”अति धार्मिकता” का प्रकोप ही है कि देवी की मृजया रक्ष्यते की सीख को ध्‍वस्‍त करते हुए बिना कोई शर्मिंदगी दिखाए हम जोर जोर से लाउडस्‍पीकरों व घंटे-घड़ियालों के साथ उच्‍चारित करते जा रहे हैं- या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्‍मीरूपेण संस्‍थिता…नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमो नम: …. साथ ही शुभकामनाओं के साथ इस मंत्र का मैसेज फॉरवर्ड भी करते जा रहे हैं… कुछ सेल्‍फियों के साथ और इस अति ने कुछ इसी तरह स्‍वच्‍छता को तिरोहित कर दिया है सो हे देवि अब हमारी शर्मिंदगी भी स्‍वीकार करें।

-अलकनंदा सिंह

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