लेखक : आदर्श गौतम
महीने के चार दिन वो खुद से लड़ती है,
खुद को अकेला समझती है,
तकलीफ में रहती है,
रोती है, बिलखती है,
पर फिर भी सब झेलती है।।
महीने के चार दिन ना हो तो परेशान हो जाती है,
और आने पर अपवित्र कहलाती है,
इसलिए सबसे छुपाती है,
सारे काम कर जाती है,
सारे नखरे भूल जाती है,
क्योंकि वो घबराती है।।
महीने के चार दिन मैं भी घबरा सा जाता हूँ,
कुछ समझ नही पाता हूँ,
बस इतना बतलाता हूँ,
कि उसकी तकलीफ में हिस्सेदार बन जाना चाहता हूँ।।
महीने के चार दिन वो मुझे आवाज़ लगाती है,
अपने पास बुलाती है,
सब कुछ बता देना चाहती है, और
आखिर में मेरे हांथों पर सर रख कर सो जाना चाहती है।।
महीने के चार दिन वो मेरे और करीब आ जाती है,
बिना बोले सब समझाती है, और
इतना सब झेल कर भी मुस्कुराने वाली,
“एक नारी कहलाती है ” कहलाती है।।