—विनय कुमार विनायक
हे पार्थ! जीव आत्मा है परमात्मा है,
पर शरीर से जाना पहचाना जाता है!
शरीर की गतिविधि से ही ज्ञात होती,
आत्मा की स्थिति, मानसिक अवस्था!
शारीरिक क्रियाकलाप से ही पता चलता
आत्मा की उपस्थिति और जीव की दशा!
शरीर ही पहचान है सब जीव-जन्तुओं का,
देह की वजह से ही किसी का नेह मिलता,
देह की वजह से कोई घृणा पालने लगता!
शरीर के कारण से जीव शरीर से प्यार करता,
शरीर से ही जीव,जीव-जन्तु का शिकार करता!
शरीर से कोई ब्राह्मण जाति, कोई शूद्र हो जाता,
काया ही कारण नस्लभेद,अपनापन रिश्ते नाते का,
शरीर से दिखावा किया जाता धर्म मजहब फिरका!
देह अगर सुन्दर है, सुन्दर मानती है ये दुनिया,
देह की विभिन्न आकृति-विकृति, भाव-भंगिमा से,
कोई अपनाए जाते, कोई खारिज कर दिए जाते!
सच तो यह है कि देहयष्टि की वजह से ही,
कोई स्वीकार किए जाते या मार दिए जाते!
यह शरीर ही है जो आत्मा को ढके हुए रहता,
यह शरीर ही है जो आत्मा आत्मा में भेद करता!
आत्मा शरीर की वजह से ही अभिव्यक्त है,
मगर शरीर आत्मा के कारण से जीवित है!
शरीर के अंगों के कटने फटने और टूटने से,
कटती फटती टूटती और बंटती नहीं आत्मा!
शरीर को मरते देखकर भी मरती नहीं है आत्मा,
शरीर विकृत होने पर भी विकृत होती नहीं आत्मा!
अंगों के टेढ़े मेढ़े होने पर भी अविकल होती आत्मा,
आत्मा को देखना है तो अष्टावक्र की देह में देख लो,
हे पार्थ! देखने की नजरिया से ही पता चलता है कि
तुम ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हो या चर्म कर्मी चर्मकार हो!
हे पार्थ! देह को देखोगे तो देह में खोकर रह जाओगे,
कभी उर्वशी देवअप्सरा में, कभी आम्रपाली नगरवधू में,
कभी हनीप्रीत हूरपरी, अर्पिता कैशक्वीन में भरमाओगे!!
—विनय कुमार विनायक