पदयात्रायें कुछ न कुछ तो बदलती ही हैं

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 अरुण तिवारी

चरेवैति…चरेवैति – लक्ष्य मिले न मिले, चलते रहिए। इसका मतलब यह है कि चलते रहिए। चलते रहेंगे तो आपके द्वारा तय लक्ष्य मिले न मिले; कुछ न कुछ हासिल तो होगा ही। पदयात्राओं का सच यही है।
यात्री कोई भी हो; यात्रा कितनी ही छोटी हो अथवा लम्बी; पदयात्राओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। यात्रा मनोरंजनात्मक हो, आध्यात्मिक, धार्मिक, व्यापारिक अथवा राजनीतिक; पदयात्राओं का इतिहास बताता है कि इनके नतीजे कुछ न कुछ तो बदलते ही हैं। भारत जोड़ो यात्रा भी बदलेगी।
अनुभव कहते हैं कि पदयात्रायें बीज बिखेरने जैसा असर रखती हैं। बीज, मिट्टी के भीतर उतरेगा या नहीं ? बीज अंकुरित होगा या नहीं ? कब होगा ? ये सब उसके पर्यावरण 

मेंमौजूद हवा, नमी और गर्मी पर निर्भर करता है। हां, यदि यात्री का संकल्प मज़बूत और दृष्टि स्पष्ट है, तो यह तय है कि बिखेरा बीज अत्यंत पुष्ट होगा। वह मरेगा नहीं। वह यात्री के भीतर और बाहर…दोनो जगह कभी न कभी अंकुरित होगा ही होगा।
मात्र 12 साल की उम्र में दक्षिण से सम्पूर्ण भारत का कठिन भूगोल नापते हुए निकल पडे़ शंकर को उनकी पदयात्रा ने आदिगुरु शंकराचार्य बना दिया। वह मात्र 32 साल जिए, मगर सनातनी संस्कार और चार धाम के रुप में भारत को वह दे गए, जिसकी परिक्रमा आज तक जारी है। बालक नानक की यात्राओं ने उन्हे सेवा को धर्म मानने वाले सम्पद्राय का प्रणेता व परम् स्नेही शीर्ष गुरु बना दिया। राजकुमार सिद्धार्थ ने महात्मा बुद्ध बन यात्राओं के जरिए ही बौद्ध आस्थाओं को प्रसार दिया; अजेय सम्राट अशोक को विरक्त बना दिया। गांधी को मोहन से महात्मा और राष्ट्रपिता बनाने में उनकी पदयात्राओं का महत्व कम नहीं। विनोबा की भूदान यात्रा की खींची रेखा भूमिहीनों के अध्ययन ग्रंथों में हमेशा दर्ज़ रहेगी।
कल्पना कीजिए कि यदि रामायण में से चौदह वर्ष के वनवास की पदयात्रा कथा निकाल दी जाए, तो क्या राजकुमार राम, मर्यादा पुरुषोत्म श्री राम हो पाते ? क्या उनके स्वरूप की आभा इतनी शेष होती, जितनी आज प्रकाशमयी और विस्तारित है। मक्का में पैगम्बर मुहम्मद का जितना अधिक व हिंसक विरोध हो रहा था, यदि वह वहां से मदीना की यात्रा पर न निकल गए होते तो ? क्या इस्लाम का इतना व्यापक प्रसार हो पाता, जितना विश्वव्यापी आज है ? पैगम्बर मुहम्मद की मक्का से मदीना यात्रा ने न सिर्फ पहली महजिद दी; उनके इस्लामिक के विस्तार का आधार दिया, बल्कि पहले इस्लामी कैलेण्डर को भी जन्म दिया। हिजरत यानी प्रवास। प्रवास के फलस्वरूप अस्तित्व में आने के कारण इस्लामी कैलेण्डर का नाम ही हिजरी कैलेण्डर हो गया।
यूं ईसामसीह की जीवन यात्रा में 13 से 29 वर्ष की उम्र के बारे में कुछ स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता; फिर भी यदि स्वामी परमहंस योगानंद की किताब (द सेकेण्ड कमिंग ऑफ क्राइस्ट : द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विद इन) के दावे को सही मानें तो उनका यह काल भारत में भ्रमण करते हुए कश्मीर के बौद्ध व नाथ सम्पद्रायों के मठों में शिक्षा, योग, ध्यान व साधना में बीता। अपने दावे की पुष्टि में किताब यह भी उल्लेख करती है कि यीशु के जन्म के बाद उन्हे देखने बेथलेहम पहुंचे तीन विद्वान भारतीय बौद्ध थे। उन्होने ही यीशु का नाम ईसा रखा था। संस्कृत में ईसा का मतलब – भगवान ही होता है। यदि यह सत्य है तो कह सकते हैं कि ईसा की ज्ञान शक्ति और प्रकाशमान् स्वरूप में उनकी कश्मीर यात्रा का विशेष योगदान है।
किस-किस यात्रा के बारे में लिखूं; आधुनिक राजनीतिक कालखण्ड में भारत में देवीलाल, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, चन्द्रशेखर, सुनील दत्त से लेकर दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा के नतीजे़ हम जानते ही हैं। राजनीतिक विश्लेषक प्रशांत किशोर का बिहार यात्रा प्रस्ताव भी पदयात्रा के महत्व को रेखांकित करता है। सामाजिक कार्यकर्ताओं की बात करें तो वर्ष 2005 में नई दिल्ली से मुल्तान तक संदीप पाण्डेय के भारत-पाकिस्तान शांति मार्च ने उन्हे मैगसायसाय सम्मान दिलाया। राजेन्द्र सिंह द्वारा ग्रामीणों को एकजुट कर किए गये पानी के स्थानीय व ज़मीनी काम प्रेरक व सिखाने वाले हैं। यह सच है, किन्तु राजेन्द्र सिंह को जलपुरुष का दर्जा दिलाने तथा पानी को आम चिंतन का विषय बनाने में पानी के लिए उनके द्वारा की गई उनकी विश्वव्यापी यात्राओं का योगदान ही सबसे बड़ा है। 
मैंने खुद ज्यादा नहीं तो कुछेक नदियों के तट तो चूमे ही हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सई नदी की छह दिवसीय 

 पदयात्रा ने मुझे जितने स्थाई चित्र व सबक मेेरे मन-मस्तिष्क पर अंकित किए, उतने गंगासागर से लेकर बिजनौर तक की प्रवाह के उलट गंगा यात्रा ने भी नहीं। यहां ऐसी अनेक यात्राओं के उल्लेख संभव हैं।
और अधिक छोड़िए, यदि हम कुछ घण्टे, दिन या मिनट के लिए ही पैदल निकल जाएं तो भीतर से कुछ तरोताजा हो जाते हैं कि नहीं ? भोजन हो या पानी अथवा प्रेरणा…..ऊर्जा के सभी स्त्रोत अंततः जाकर विद्युत-चुम्बकीय तरंगों में ही परिवर्तित हो जाते हैं। अतः आप चाहे अकेले ही चलें; लम्बी पदयात्रायें तो ऊर्जा का अनुपम स्त्रोत होती ही हैं। क्यों ? क्योंकि यात्री की ऊर्जा प्रसारित होती है। वह जिस परिवेश अथवा व्यक्ति के सम्पर्क में आता है, उनकी ऊर्जा यात्री को स्पर्श करती है। कुछ को वह ग्रहण भी करता है। ऊर्जा पुष्ट करती हैं। तरंगें समान हों तो यात्री व कई अन्य एकभाव होने लगते हैं; यहां तक कि परिवेश भी। यह सब कुछ न सिर्फ यात्री के भीतर बदलाव व बेहतरी लाता है; बल्कि उसके आसपास के परिवेश व सम्पर्कों को भी बदल देता है।
अतः एक बात तो दावे से कही जा सकती है कि भारत जोड़ो भी कुछ न कुछ तो बदलेगी ही। क्या ? ’कुछ दिनों में शायद मैं कुछ और समझदार हो जाऊं’ – राहुल गांधी ने ऐसा कहा। शायद यह बदलाव हो। क्या यह होगा ? क्या कांग्रेस  को कुछ फायदा होगा ? क्या विपक्ष मज़बूत होगा ? क्या इससे भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व की एक पार्टी फैलाव की लालसा पर लगाम लगेगी ? क्या एकरंगी  होती जा रही भीड़, वापस भारत के मूल इन्द्रधनुषी संस्कारों की ओर लौटेगी ? क्या भारत की राजनीति में व्यवहार बदलेगा ? क्या भारतीय राजनीति मेें कुछ स्वच्छ होने की गुजाइश बनेगी ?
कह सकते हैं कि ये सब यात्रियों की नीयत, नैतिकता, वाणी, व्यवहार, विचार, संयम, अनुशासन और सम्पर्क में आने वालों पर निर्भर करेगा। इस पर निर्भर करेगा कि वे एक राजनेता के तौर पर व्यवहार करते हैं, प्रतिनिधि के तौर पर, भारत जानने आए श्रोता के तौर पर अथवा भारत जोड़ने आए प्रणेता के तौर पर। यात्रा के एक व्यक्ति के केन्द्रित हो जाने के जहां चुम्बकीय फायदे हैं, वहीं इसके अपने नुक़सान भी हो सकते हैं।

नुकसान हो या फायदा; पदयात्रा से अच्छा शिक्षक कोई नहीं। अच्छा शिक्षक अच्छे एहसास और बदलाव के बीज का वाहक होता ही है। अतः भारत जोड़ो यात्रा की इस भूमिका से इंकार तो स्वयं भारतीय जनता पार्टी भी नहीं कर पायेगी। यह तय है।

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