पाठक: आप पश्चिम की सभ्यता को निकाल बाहर करने की बात कहते हैं, तब तो आप यह भी कहेंगे कि हमें कोई भी मशीन नहीं चाहिये।
संपादक: मुझे जो चोट लगी थी उसे यह सवाल करके आपने ताजा कर दिया है। मि. रमेशचन्द्र दत की पुस्तक हिन्दुस्तान का आर्थिक इतिहास जब मैंने पढ़ी, तब भी मेरी ऐसी हालत हो गई थी। उसका फिर से विचार करता हूं तो मेरा दिल भर आता है। मशीन की झपट लगने से ही हिन्दुस्तान पागल हो गया है। मैन्चेस्टर ने हमें जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी तो कोई हद ही नहीं है।
हिन्दुस्तान से कारीगरी जो करीब करीब खत्म हो गई वह मैन्चेस्टर का ही काम है। लेकिन मैं भूलता हूं। मैन्चेस्टर को दोष कैसे दिया जा सकता है? हमने उसके कपड़े बनाये। बंगाल की बहादुरी का वर्णन जब मैंने पढ़ा तब मुझे हर्ष हुआ। बंगाल में कपड़े की मिलें नहीं है, इसलिए लोगों ने अपना असली धंधा फिर से हाथ में ले लिया। बंगाल बम्बई की मिलों को बढ़ावा देता है, वह ठीक ही है लेकिन अगर बंगाल ने तमाम मशीनों से परहेज किया होता, उनका बायकाट बहिष्कार किया होता तो और भी अच्छा होता।
मशीने यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहां की हवा अब हिन्दुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है, ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूं।
बम्बई की मिलों में जो मजदूर काम करते हैं, वे गुलाम बन गये हैं। जो औरतें उनमें काम करती हैं उनकी हालत देखकर कोई भी कांप उठेगा। जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी। तब वे औरतें भूखों नहीं मरती थीं। मशीन की यह हवा अगर ज्यादा चली तो हिन्दुस्तान की बुरी दशा होगी। मेरी बात आपको कुछ मुश्किल मालूम होती होगी। लेकिन मुझे कहना चाहिये कि हम हिन्दुस्तान में मिलें कायम करें, उसके बजाय हमारा भला इसी में है कि हम मैन्चेस्टर को और भी रुपये भेजकर उसका सड़ा हुआ कपड़ा काम में लें। क्योंकि उसका कपड़ा काम में लेने से सिर्फ हमारे पैसे ही जायेंगे।
हिन्दुस्तान में अगर हम मैन्चेस्टर कायम करेंगे तो पैसा हिन्दुस्तान में ही रहेगा। लेकिन वह पैसा हमारा खून चूसेगा क्योंकि वह हमारी नीति को बिलकुल खत्म कर देगा। जो लोग मिलों में काम करते हैं उनकी नीति कैसी है, यह उन्हीं से पूछा जाय। उनमें से जिन्होंने रुपये जमा किये हैं उनकी नीति दूसरे पैसे वालों से अच्छी नहीं हो सकती। अमरीका के रॉकफेलरों से हिन्दुस्तान के रॉकफेलर कुछ कम हैं, ऐसा मानना निरा अज्ञान है। गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामी से छूट सकेगा। लेकिन अनीति से पैसेवाला बना हुआ हिन्दुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा।
मुझे तो लगता है कि हमें यह स्वीकार करना होगा कि अंग्रेजी राज्य को यहां टिकाये रखनेवाले ये धनवान लोग ही हैं। ऐसी स्थिति में ही उनका स्वार्थ सधेगा। पैसा आदमी को दीन बना देता है। ऐसी दूसरी चीज दुनियाभर में विषय भोग है। ये दोनों विषय विषमय है। उनका डंक सांप के डंक से ज्यादा जहरीला है। जब सांप काटता है तो हमारा शरीर लेकर हमें छोड़ देता है। जब पैसा या विषय काटता है तब वह शरीर, ज्ञान, मन सब कुछ ले लेता है तो भी हमारा छुटकारा नहीं होता। इसलिए हमारे देश में मिलें कायम हों, इसमें खुश होने जैसा कुछ नहीं है।
पाठक: तब क्या मिलों को बन्द कर दिया जाय?
संपादक: यह बात मुश्किल है। जो चीज स्थायी या मजबूत हो गई है, उसे निकालना मुश्किल है। इसीलिए काम शुरू न करना पहली बुद्धिमानी है। मिल मालिकों की ओर हम नफरत की निगाह से नहीं देख सकते। हमें उन पर दया करनी चाहिये। वे यकायक मिलें छोड दें यह तो मुमकिन नहीं है। लेकिन हम उनसे ऐसी विनती कर सकते हैं कि वे अपने इस साहस को बढ़ायें नहीं। अगर वे देश का भला करना चाहें तो खुद अपना काम धीरे धीरे कम कर सकते हैं। वे खुद पुराने प्रौढ पवित्र चरखे देश के हजारों घरों में दाखिल कर सकते और लोगों का बुना हुआ कपड़ा लेकर उसे बेच सकते हैं।
अगर वे ऐसा न करें, तो भी लोग खुद मशीनों का कपड़ा इस्तेमाल करना बन्द कर सकते हैं।
पाठक: यह तो कपड़े के बारे में हुआ। लेकिन यंत्र की बली तो अनेक चीजें हैं। वे चीजें या तो हमें परदेश से लेनी होंगी या ऐसे यंत्र हमारे देश में दाखिल करने होंगे।
संपादक: सचमुच हमारे देव (मूर्तिया) भी जर्मनी के यंत्रों में बनकर आते हैं तो फिर दियासलाई या आलपिन से लेकर कांच के झाड़ फानूस की तो बात ही क्या। मेरा अपना जवाब तो एक ही है। जब ये सब चीजें यंत्र से नहीं बनती थी तब हिन्दुस्तान क्या करता था, वैसा ही वह आज भी कर सकता है। जब तक हम हाथ से आलपिन नहीं बनायेंगे तब तक उसके बिना हम अपना काम चला लेंगे। झाड़फानूस को आग लगा देंगे। मिट्टी के दीये में तेल डालकर और हमारे खेत में पैदा हुई रूई की बत्ती बना कर दीया जलायेंगे। ऐसा करने से हमारी आंखें (खराब होने से) बचेंगी। पैसे बचेंगे और हम स्वदेशी रहेंगे और स्वराज्य की धूनी जगायेंगे।
यह सारा काम सब लोग एक ही समय में करेंगे या एक ही समय में कुछ लोग यंत्र की सब चीजें छोड़ देंगे, यह संभव नहीं है। लेकिन अगर यह विचार सही होगा तो हम हमेशा शोध खोज करते रहेंगे और हमेशा थोड़ी थोड़ी चीजें छोड़ते जायेंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो दूसरे लोग भी ऐसा करेंगे। पहले तो यह विचार जड़ पकड़े यह जरूरी है। बाद में उसके मुताबिक काम होगा। पहले एक ही आदमी करेगा, फिर दस, फिर सौ यों नारियल की कहानी की तरह लोग बढ़ते ही जायेंगे। बड़े लोग जो काम करते हैं उसे छोटे भी करते हैं और करेंगे समझेंगे तो बात छोटी और सरल है। आपको और मुझे दूसरों के करने की राह नहीं देखना है। हम तो ज्यों ही समझ लें त्यों ही उसे शुरू कर दें। जो नहीं करेगा वह खोयेगा समझते हुए भी जो नहीं करेगा वह निरा दंभी कहलायेगा।
पाठक: ट्रामगाड़ी और बिजली की बत्ती का क्या होगा?
संपादक: यह सवाल आपने बहुत देर से किया इस सवाल में अब कोई जान नहीं रही। रेल ने अगर हमारा नाश किया है तो क्या ट्राम नहीं करती। यंत्र तो सांप का ऐसा बिल है, जिसमें एक नहीं बल्कि सैकड़ों सांप होते हैं। एक के पीछे दूसरा लगा ही रहता है। जहां यंत्र होंगे वहां बड़े शहर होंगे। जहां बडे शहर होंगे, वहां ट्रामगाड़ी और रेलगाड़ी होगी। वहीं बिजली की बत्ती की जरूरत रहती है। आप जानते होंगे कि विलायत में भी देहातों में बिजली की बत्ती या ट्राम नहीं है।
प्रामाणिक वैद्य और डाक्टर आपको बतायेंगे कि जहां रेलगाड़ी ट्रामगीड़ी वगैरा साधन बढ़े हैं वहां लोगों की तन्दुरुस्ती गिरी हुई होती है। मुझे याद है कि यूरोप के एक शहर में जब पैसे की तंगी हो गई थी तब ट्रामों, वकीलों और डाक्टरों की आमदनी घट गयी थी लेकिन लोग तन्दुरुस्त हो गये थे। यंत्र का गुण तो मुझे एक भी याद नहीं आता जब कि उसके अवगुणों से मैं पूरी किताब लिख सकता हूं।
पाठक: यह सारा लिखा हुआ यंत्र की मदद से छापा जायगा और उसकी मदद से बांटा जायगा। यह यंत्र का गुण है या अवगुण?
संपादक: यह जहर की दवा जहर है की मिसाल है। इसमें यंत्र का कोई गुण नहीं है। यंत्र मरते मरते कह जाता है कि मुझ से बचिये, होशियार रहिये। मुझ से आपको कोई फायदा नहीं होने का। अगर ऐसा कहा जाय कि यंत्र ने इतनी ठीक कोशिश की तो यह भी उन्हीं के लिए लागू होता है जो यंत्र के लालच में फंसे हुए हैं।
लेकिन मूल बात न भूलियेगा, मन में यह तय कर लेना चाहिये कि यंत्र खराब चीज है। बाद में हम उसका धीरे धीरे नाश करेंगे। ऐसा कोई सरल रास्ता कुदरत ने ही बनाया नहीं है कि जिस चीज की हमें इच्छा हो वह तुरन्त मिल जाय। यंत्र के ऊपर हमारी मीठी नजर के बजाय जहरीली नजर पड़ेगी तो आखिर वह जायगा ही।
जारी….
अवश्य पढें :
‘हिंद स्वराज की प्रासंगिकता’ को लेकर ‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ पर व्यापक बहस की शुरुआत
हिंद स्वराज : अशांति और असंतोष
हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान कैसे गया?
हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान की दशा
हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान की दशा (रेलगाडिया)
हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान की दशा (हिन्दू-मुसलमान)
हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान की दशा(वकील)
हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान की दशा (डाक्टर)
हिंद स्वराज : सच्ची सभ्यता कौन सी?
हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान कैसे आजाद हो?