कविता

हिंदी दिवस पर विशेष : वह एक बूढी औरत

एक बूढी औरत….

राजघाट पर बैठे-बैठे रो रही थीHindi_Divas1

न जाने किसका पाप था जो

अपने आंसुओं से धो रही थी।

मैंने पूछा- माँ , तुम कौन?

मेरी बात सुन कर

वह बहुत देर तक रही मौन

लेकिन जैसे ही उसने अपना मुह खोला

लगा दिल्ली का सिंहासन डोला

वह बोली-अरे, तुम जैसी नालायको के कारण शर्मिंदा हूँ,

न जाने अब तक क्यो जिंदा हूँ।

अपने लोगो की उपेक्षा के कारण

तार-तार हूँ, चिंदी हूँ,

मुझे गौर से देख…

मै राष्ट्रभाषा हिन्दी हूँ ।

जिसे होना था महारानी

आज नौकरानी है

हिन्दी के आँचल में है सद्भाव

मगर आँखों में पानी है।

गोरी मेंम को दिल्ली की गद्दी और मुझे बनवास।

कदम-कदम पर होता रहता है मेरा उपहास

सारी दुनिया भारत को देख कारण चमत्कृत है

एक भाषा-माँ अपने ही घर में बहिष्कृत है

बेटा, मै तुम लोगों के पापो को ही

बासठ वर्षो से बोझ की तरह ढो रही हूँ

कुछ और नही क्रर सकती इसलिए रो रही हूँ।

अगर तुम्हे मेरे आंसू पोंछने है तो आगे आओ

सोते हुए देश को जगाओ

और इस गोरी मेम को हटा कर

मुझे गद्दी पर बिठाओ

अरे, मै हिन्दी हूँ

मुझसे मत डरो

हर भाषा को लेकर चलती हूँ

और सबके साथ

दीपावली के दीपक-सा जलती

-गिरीश पंकज