समाज साहित्‍य

हिन्दी आत्मा है भारत की

डॉ. मधुसूदन

युनो में हिन्दी

अटल जी ने, युनो में हिन्दी में, भाषण दे कर इतिहास रचा, उसी अंतराल में मैं म. प्रदेश, अपने ननिहाल गया था. और पुराने राम-मंदिर समीप नीम तले, मण्डली मुझे सुनने इकठ्ठी हुई थी. वही गाँव, जिसे ’मेरा गाँव कहीं खोया है’ कविता में मैंने गाया है. क्या बोलता हूँ की अपेक्षा संदेह था कि, शायद हिन्दी भूल गया होऊं? सुनते थे, कि परदेश गए लोग हिन्दी भूल जाते हैं. ऐसा नहीं कि, मुझे जानते न थे. पर, ऐसा संदेह  वातावरण में रेंग रहा था.  

शायद अंग्रेज़ी की शेखी बघारुं? हिन्दी को  अनपढ गँवार भाषा मानकर दुत्कारु?  जो मेरे भोले गाँववाले सदैव सुनते आए थे, और उस अपमान के आदी हो चुके थे. साहजिक सारी आँखें मुझ पर गडी थीं.  मैं भी बातचीत से स्थिति जान ही चुका था. पर, जिन्हों ने मुझे छलकता प्रेम दिया, क्या, उन्हींका सामूहिक अपमान करने  मैं गया था ? छीः छीः, ऐसा विचार भी मुझ में सिहरन उठा देता था.  यह मेरे विश्वास से भी विपरित बात थी.

(दो)
क्या वहाँ हिन्दी बोली जाती  है?

मैंने हिन्दी में बोलना प्रारंभ किया, चार छः वाक्य ही बोले थे, कि बीच में चुलबुले बसंत ने पूछ लिया;  कि क्या वहाँ हिन्दी बोली जाती  है? मैंने भी अपनी सुविधा से, अर्थ निकाला कि क्या हम वहाँ हिन्दी का प्रयोग करते हैं. भले घर में  ही  क्यों न करते हो;  और मैं उस बालक को  निराश भी करना न चाहता था. जानता भी था; कि एकत्रित  श्रोताओं में अपनी हिन्दी पर कितना प्रेम और गौरव का आरोपण है?
अपनी भाषा, अपना देश, अपनी संस्कृति का स्वाभिमान!  यह प्रभाव संघ शाखा का गाँव में होने का परिणाम था. और मेरे मौसेरे भाई  स्व. मंगल कुमार शाह, जो मण्डल कार्यवाह रहे थे; गुजराती भाषी होते हुए भी, हिन्दी के प्रभावी वक्ता थे. मुझे संघ में  लानेवाले वही थे. पर मैं अपना उत्तर दूं, उसके पूर्व ही जानकारी रखनेवाला माधव स्वयं को रोक नहीं पाया, और अपनी बालसुलभ जानकारी से  गौरावान्वित होकर बोल उठा, …….
“अबे भोलुराम जब अटलजी युनो में हिन्दी बोले थे, तो, सभी के समझे बिना थोडी ही बोलेंगे?”

और भोलुराम की शंका का समाधान हो गया. ये अबे-तुबे वाली हिन्दी वहाँ चलती है. मैं भी ’नरो वा कुंजरो वा’ का आश्रय ले कर मौन रहा. उन बालकों को सच्चाई बताकर निराश करने का  दारुण साहस  मुझे नहीं हुआ. परमात्मा इस त्रुटि पर मुझे क्षमा करें.
अटल जी ने युनो में हिन्दी में बोलकर जो इतिहास रचा था. पर, उसकी जानकारी देहातों तक कैसे पहुँची? मैं सोच रहा था. पर पहुँची अवश्य थी. क्यों कि हिन्दी हमारी राष्ट्रीयता को अभिव्यक्त करती है.

अटल जी का युनो में हिन्दी में बोलना यह *राष्ट्रीय अस्मिता* जगानेवाला समाचार था, इसी लिए, इस छोटे गाँव तक पहुँच गया था.
बुद्धि भ्रमित संचार माध्यमों को भी इस समाचार से झटका लगा होगा. सारे जो भ्रांत बुद्ध (ब्रैन वाश्ड ) हो चुके हैं.

(तीन)
मतदाताओं का आभार  हिन्दी में
चुनावी सफलता के पश्चात , मोदी जी ने मतदाताओं का आभार  प्रदर्शन, वह भी गुजरात के वडोदरा नगर में गुजराती नहीं पर हिन्दी में किया. अब ऐसा आभार यदि मोदी गुजराती में करते तो, शायद ही कोई समाचार उसका विरोध करता. चार छः श्रोताओ ने मोदी जी से, जब गुजराती में बोलने का अनुरोध किया तो इस नरेन्द्र नामक भारतपुत्र ने चतुराई से उत्तर दिया. क्या कहा नरेंद्र ने ?
कहा. …आप लोगों ने मुझे  आपका प्रतिनिधित्व करने मत देकर विजयी बनाया है. भाषण हिन्दी में प्रसारित होने से आपका प्रतिनिधित्व, मैं अधिक सफलता से कर सकूंगा. अब  मैं सारे भारत का प्रतिनिधित्व करता हूँ, और आप सभी को हिन्दी समझ मे तो आती ही है.

(चार)
देश का प्रतिनिधित्व
ऐसा प्रतिनिधित्व ममता बनर्जी बंगला में कर सकना संभव नहीं. न चंद्र बाबु नायडु द्वारा तेलुगु में करना संभव है. और कमल हासन या रजनीकान्त द्वारा तमिल में  करना भी संभव नहीं. और डिंगबाज अंग्रेज़ी में भी ऐसा प्रतिनिधित्व  बिलकुल संभव नहीं. तमिलों को भी इस सच्चाई को समझना होगा. एक सुब्रह्मण्यन स्वामी इसे सही समझता है. आज का तमिल युवा भी अपने बुढ्ढे राजनितिज्ञों को दोष दे रहा है. तमिल युवा जब शेष भारत में नियुक्त होता है, तो हिन्दी का महत्व समझता है. नन्दिनी ह्वॉइस डॉट कॉंम पर जाकर देखिए आज का तमिल युवा ९५ % मतों से हिन्दी को चाहता है. और तमिलनाडू में युवाओं द्वारा हिन्दी की माँग काफी बढी है. शासकीय शालाएँ राजनीति से विवश है, पर निजी शालाएँ हिन्दी पढा रही है. और धनी लोगों की संताने हिन्दी पढ रही हैं. आगे बढ रही हैं.

(पाँच)
मोदी जी की जीत के पीछे हिन्दी:

मोदी जी के जीत के पीछे भी हिन्दी ही प्रमुख कारण है. उत्तर प्रदेश में चका-चौंध जीत के लिए क्या बंगला. कन्नड. तमिल, और आपकी खिचडी भाषा अंग्रेज़ी में प्रचार किया जा सकता था? और उत्तर प्रदेश में विजयी होना परमावश्यक था. अंग्रेज़ी तो किसी प्रदेश की भी भाषा नहीं है. उसको राष्ट्र भाषा बनाना मूर्खों का सुझाव है.
भारत का प्रधान मंत्री संभवतः हिन्दी के प्रयोग से  ही जीत सकता है. हिन्दी ही राष्ट्र भाषा का स्थान ले सकती हैं.
चाहे तो, विद्वानॊ का आयोग बने. आंखे मूँदने पर जिन्हें केवल भारत ही दिखाई देता है ऐसे विद्वानों का आयोग बने. प्रादेशिकता की वृत्ति से  राष्ट्रीय  समस्याएँ सुलझ नहीं सकती. और राजनैतिक दृष्टि से भी नहीं.

(छ:)
शिवो ऽ हम शिवो ऽ हम :

जैसे  शिवो ऽ हम शिवो ऽ हम :……स्तोत्र का बारम्बार पाठ करने पर धीरे धीरे, व्यक्ति सारी  हीन पहचानों से मुक्त हो जाती है. ऐसी साधना व्यक्ति की मानसिकता को ऊपर उठा देती है. व्यक्ति अपने आप को शिव समझने लगती है.  यही शंकराचार्य जी ने मुक्ति का मार्ग बताया है.
और भेदभाव समाप्त होने लगते हैं.
ईश्वर व्यक्ति व्यक्ति में  भेद नहीं करता. ( विषयांतर नहीं करता. इतना अंश काफी है, मेरी प्रस्तुति के लिए.)
“अहं ब्रह्मास्मि॥” भी उसी  मानसिकता का आरोपण करता है.  जब मानसिकता ऐसी ऊपर उठ जाती है, तो दृष्टि वस्तुनिष्ठ और तटस्थ हो जाती है. आप समस्या को भी सही परिप्रेक्ष्य में समझने लगते हैं. अब इसी विधा को कुछ अलग रीति से उपयोग में लाया जा सकता है……….

(सात) भारतीयोऽ हम॥ भारतीयोऽहम ॥

शिवो ऽ हम शिवो ऽ हम : की जगह ***भारतीयोऽ हम॥ भारतीयोऽहम ॥***
मैं न गुजराती हूँ. न मराठी हूँ॥
न तमिल, बंगाली, उडिया हूँ॥
न कश्मिरी हूँ, मल्ल्याली हूँ, ॥
भारतीयोऽहम भारतीयोऽहम॥
—————————
न राजनीतिज्ञ हूँ, न व्यापारी हूँ॥
न परदेशी हूँ. न विदेशी हूँ॥
राष्ट्रीयोऽहम राष्ट्रीयोऽहम ॥
राष्ट्रीयोऽहम राष्ट्रीयोऽहम ॥
———————
संक्षेप में ऐसा पूरा राष्ट्रीय अस्मिता जगानेवाला स्तोत्र रचा जा सकता है.  जिसका का बार बार गम्भीर घोष  करते हुए ,सारे भारत की  विशुद्ध पहचान से स्वयं को भारतीय बना ले.
जैसे परिवार की समस्या सुलझाने के लिए आप को अपना स्वार्थ छोडकर परिवार का हित सोचना पडता है. कोई, निःस्वार्थी पिता का, बेटी का विवाह  किसी अहरे गहरे से से धन लेकर, रचाना जैसे गलत है; उसी प्रकार किसी राजनीति से, किसी प्रादेशिक निष्ठा से,  या  किसी परदेशी भाषा से प्रेरित हो कर राष्ट्र भाषा का निर्णय करना गलत होगा.

(आठ)
राष्ट्र भाषा का हल:
राष्ट्र भाषा का हल निकालने के लिए ऐसे विद्वानों का आयोग बने; जो राजनैतिक दृष्टि से ऊपर उठे हों. प्रादेशिक निष्ठा से ऊपर उठे हो. अपनी  मातृ भाषा से भी ऊपर उठे हो. भारत के हित के लिए जितनी परदेशी भाषाएँ आवश्यक हो, स्वीकार्य हैं. पर सारा सट्टा अंग्रेज़ी पर लगाना गलत है. हमारी आवश्यकताओं के आधार पर विचार किया जाए.
इसी विषय पर स्वतंत्र आलेख प्रस्तुत करने का प्रयास टिप्पणियों के आधार पर किया जा सकता है.