हिन्दी आत्मा है भारत की

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डॉ. मधुसूदन

युनो में हिन्दी

अटल जी ने, युनो में हिन्दी में, भाषण दे कर इतिहास रचा, उसी अंतराल में मैं म. प्रदेश, अपने ननिहाल गया था. और पुराने राम-मंदिर समीप नीम तले, मण्डली मुझे सुनने इकठ्ठी हुई थी. वही गाँव, जिसे ’मेरा गाँव कहीं खोया है’ कविता में मैंने गाया है. क्या बोलता हूँ की अपेक्षा संदेह था कि, शायद हिन्दी भूल गया होऊं? सुनते थे, कि परदेश गए लोग हिन्दी भूल जाते हैं. ऐसा नहीं कि, मुझे जानते न थे. पर, ऐसा संदेह  वातावरण में रेंग रहा था.  

शायद अंग्रेज़ी की शेखी बघारुं? हिन्दी को  अनपढ गँवार भाषा मानकर दुत्कारु?  जो मेरे भोले गाँववाले सदैव सुनते आए थे, और उस अपमान के आदी हो चुके थे. साहजिक सारी आँखें मुझ पर गडी थीं.  मैं भी बातचीत से स्थिति जान ही चुका था. पर, जिन्हों ने मुझे छलकता प्रेम दिया, क्या, उन्हींका सामूहिक अपमान करने  मैं गया था ? छीः छीः, ऐसा विचार भी मुझ में सिहरन उठा देता था.  यह मेरे विश्वास से भी विपरित बात थी.

(दो)
क्या वहाँ हिन्दी बोली जाती  है?

मैंने हिन्दी में बोलना प्रारंभ किया, चार छः वाक्य ही बोले थे, कि बीच में चुलबुले बसंत ने पूछ लिया;  कि क्या वहाँ हिन्दी बोली जाती  है? मैंने भी अपनी सुविधा से, अर्थ निकाला कि क्या हम वहाँ हिन्दी का प्रयोग करते हैं. भले घर में  ही  क्यों न करते हो;  और मैं उस बालक को  निराश भी करना न चाहता था. जानता भी था; कि एकत्रित  श्रोताओं में अपनी हिन्दी पर कितना प्रेम और गौरव का आरोपण है?
अपनी भाषा, अपना देश, अपनी संस्कृति का स्वाभिमान!  यह प्रभाव संघ शाखा का गाँव में होने का परिणाम था. और मेरे मौसेरे भाई  स्व. मंगल कुमार शाह, जो मण्डल कार्यवाह रहे थे; गुजराती भाषी होते हुए भी, हिन्दी के प्रभावी वक्ता थे. मुझे संघ में  लानेवाले वही थे. पर मैं अपना उत्तर दूं, उसके पूर्व ही जानकारी रखनेवाला माधव स्वयं को रोक नहीं पाया, और अपनी बालसुलभ जानकारी से  गौरावान्वित होकर बोल उठा, …….
“अबे भोलुराम जब अटलजी युनो में हिन्दी बोले थे, तो, सभी के समझे बिना थोडी ही बोलेंगे?”

और भोलुराम की शंका का समाधान हो गया. ये अबे-तुबे वाली हिन्दी वहाँ चलती है. मैं भी ’नरो वा कुंजरो वा’ का आश्रय ले कर मौन रहा. उन बालकों को सच्चाई बताकर निराश करने का  दारुण साहस  मुझे नहीं हुआ. परमात्मा इस त्रुटि पर मुझे क्षमा करें.
अटल जी ने युनो में हिन्दी में बोलकर जो इतिहास रचा था. पर, उसकी जानकारी देहातों तक कैसे पहुँची? मैं सोच रहा था. पर पहुँची अवश्य थी. क्यों कि हिन्दी हमारी राष्ट्रीयता को अभिव्यक्त करती है.

अटल जी का युनो में हिन्दी में बोलना यह *राष्ट्रीय अस्मिता* जगानेवाला समाचार था, इसी लिए, इस छोटे गाँव तक पहुँच गया था.
बुद्धि भ्रमित संचार माध्यमों को भी इस समाचार से झटका लगा होगा. सारे जो भ्रांत बुद्ध (ब्रैन वाश्ड ) हो चुके हैं.

(तीन)
मतदाताओं का आभार  हिन्दी में
चुनावी सफलता के पश्चात , मोदी जी ने मतदाताओं का आभार  प्रदर्शन, वह भी गुजरात के वडोदरा नगर में गुजराती नहीं पर हिन्दी में किया. अब ऐसा आभार यदि मोदी गुजराती में करते तो, शायद ही कोई समाचार उसका विरोध करता. चार छः श्रोताओ ने मोदी जी से, जब गुजराती में बोलने का अनुरोध किया तो इस नरेन्द्र नामक भारतपुत्र ने चतुराई से उत्तर दिया. क्या कहा नरेंद्र ने ?
कहा. …आप लोगों ने मुझे  आपका प्रतिनिधित्व करने मत देकर विजयी बनाया है. भाषण हिन्दी में प्रसारित होने से आपका प्रतिनिधित्व, मैं अधिक सफलता से कर सकूंगा. अब  मैं सारे भारत का प्रतिनिधित्व करता हूँ, और आप सभी को हिन्दी समझ मे तो आती ही है.

(चार)
देश का प्रतिनिधित्व
ऐसा प्रतिनिधित्व ममता बनर्जी बंगला में कर सकना संभव नहीं. न चंद्र बाबु नायडु द्वारा तेलुगु में करना संभव है. और कमल हासन या रजनीकान्त द्वारा तमिल में  करना भी संभव नहीं. और डिंगबाज अंग्रेज़ी में भी ऐसा प्रतिनिधित्व  बिलकुल संभव नहीं. तमिलों को भी इस सच्चाई को समझना होगा. एक सुब्रह्मण्यन स्वामी इसे सही समझता है. आज का तमिल युवा भी अपने बुढ्ढे राजनितिज्ञों को दोष दे रहा है. तमिल युवा जब शेष भारत में नियुक्त होता है, तो हिन्दी का महत्व समझता है. नन्दिनी ह्वॉइस डॉट कॉंम पर जाकर देखिए आज का तमिल युवा ९५ % मतों से हिन्दी को चाहता है. और तमिलनाडू में युवाओं द्वारा हिन्दी की माँग काफी बढी है. शासकीय शालाएँ राजनीति से विवश है, पर निजी शालाएँ हिन्दी पढा रही है. और धनी लोगों की संताने हिन्दी पढ रही हैं. आगे बढ रही हैं.

(पाँच)
मोदी जी की जीत के पीछे हिन्दी:

मोदी जी के जीत के पीछे भी हिन्दी ही प्रमुख कारण है. उत्तर प्रदेश में चका-चौंध जीत के लिए क्या बंगला. कन्नड. तमिल, और आपकी खिचडी भाषा अंग्रेज़ी में प्रचार किया जा सकता था? और उत्तर प्रदेश में विजयी होना परमावश्यक था. अंग्रेज़ी तो किसी प्रदेश की भी भाषा नहीं है. उसको राष्ट्र भाषा बनाना मूर्खों का सुझाव है.
भारत का प्रधान मंत्री संभवतः हिन्दी के प्रयोग से  ही जीत सकता है. हिन्दी ही राष्ट्र भाषा का स्थान ले सकती हैं.
चाहे तो, विद्वानॊ का आयोग बने. आंखे मूँदने पर जिन्हें केवल भारत ही दिखाई देता है ऐसे विद्वानों का आयोग बने. प्रादेशिकता की वृत्ति से  राष्ट्रीय  समस्याएँ सुलझ नहीं सकती. और राजनैतिक दृष्टि से भी नहीं.

(छ:)
शिवो ऽ हम शिवो ऽ हम :

जैसे  शिवो ऽ हम शिवो ऽ हम :……स्तोत्र का बारम्बार पाठ करने पर धीरे धीरे, व्यक्ति सारी  हीन पहचानों से मुक्त हो जाती है. ऐसी साधना व्यक्ति की मानसिकता को ऊपर उठा देती है. व्यक्ति अपने आप को शिव समझने लगती है.  यही शंकराचार्य जी ने मुक्ति का मार्ग बताया है.
और भेदभाव समाप्त होने लगते हैं.
ईश्वर व्यक्ति व्यक्ति में  भेद नहीं करता. ( विषयांतर नहीं करता. इतना अंश काफी है, मेरी प्रस्तुति के लिए.)
“अहं ब्रह्मास्मि॥” भी उसी  मानसिकता का आरोपण करता है.  जब मानसिकता ऐसी ऊपर उठ जाती है, तो दृष्टि वस्तुनिष्ठ और तटस्थ हो जाती है. आप समस्या को भी सही परिप्रेक्ष्य में समझने लगते हैं. अब इसी विधा को कुछ अलग रीति से उपयोग में लाया जा सकता है……….

(सात) भारतीयोऽ हम॥ भारतीयोऽहम ॥

शिवो ऽ हम शिवो ऽ हम : की जगह ***भारतीयोऽ हम॥ भारतीयोऽहम ॥***
मैं न गुजराती हूँ. न मराठी हूँ॥
न तमिल, बंगाली, उडिया हूँ॥
न कश्मिरी हूँ, मल्ल्याली हूँ, ॥
भारतीयोऽहम भारतीयोऽहम॥
—————————
न राजनीतिज्ञ हूँ, न व्यापारी हूँ॥
न परदेशी हूँ. न विदेशी हूँ॥
राष्ट्रीयोऽहम राष्ट्रीयोऽहम ॥
राष्ट्रीयोऽहम राष्ट्रीयोऽहम ॥
———————
संक्षेप में ऐसा पूरा राष्ट्रीय अस्मिता जगानेवाला स्तोत्र रचा जा सकता है.  जिसका का बार बार गम्भीर घोष  करते हुए ,सारे भारत की  विशुद्ध पहचान से स्वयं को भारतीय बना ले.
जैसे परिवार की समस्या सुलझाने के लिए आप को अपना स्वार्थ छोडकर परिवार का हित सोचना पडता है. कोई, निःस्वार्थी पिता का, बेटी का विवाह  किसी अहरे गहरे से से धन लेकर, रचाना जैसे गलत है; उसी प्रकार किसी राजनीति से, किसी प्रादेशिक निष्ठा से,  या  किसी परदेशी भाषा से प्रेरित हो कर राष्ट्र भाषा का निर्णय करना गलत होगा.

(आठ)
राष्ट्र भाषा का हल:
राष्ट्र भाषा का हल निकालने के लिए ऐसे विद्वानों का आयोग बने; जो राजनैतिक दृष्टि से ऊपर उठे हों. प्रादेशिक निष्ठा से ऊपर उठे हो. अपनी  मातृ भाषा से भी ऊपर उठे हो. भारत के हित के लिए जितनी परदेशी भाषाएँ आवश्यक हो, स्वीकार्य हैं. पर सारा सट्टा अंग्रेज़ी पर लगाना गलत है. हमारी आवश्यकताओं के आधार पर विचार किया जाए.
इसी विषय पर स्वतंत्र आलेख प्रस्तुत करने का प्रयास टिप्पणियों के आधार पर किया जा सकता है.

13 COMMENTS

  1. (१)
    समस्याएँ मान्य है. पर वैयक्तिक समस्याओं को तटस्थ राष्ट्रीय दृष्टि कोण से देखना और रखना अधिक श्रेयस्कर होगा. ऐसा मैं मानता हूँ. वैयक्तिक समस्याओं को यहाँ सुलझाना संभव नहीं.
    (२)
    और ७० वर्षों पूर्व से गलत दिशा में आगे बढी शिक्षा नीति का प्रवाह, संवेग (Momentum) धारण कर चुका है. इस लिए तत्काल बदलाव या हल संभव नहीं.
    ऐसे बदलाव Critical Path Method अपनाने पर सरलता से सम्भव होते हैं. ==>एक नदी के प्रवाह की दिशा बदलने जैसा कठिन यह होता है.
    (३)
    पर Critical Path Method (निर्णायक पथ पद्धति.) को अपनाने पर ऐसा बदलाव शीघ्रताशीघ्र संभव हो सकता है. दो आलेख इस विषय पर पर भी डाल चुका हूँ. एक:==> ’शिक्षा माध्यम के बदलाव का प्रबंधन’== और दो:==>’ भाषा रूढ कैसे की जाए?’ आप विद्वानों को अनुरोध: इन दो आलेखों को परख ले. यह आप का बडा योगदान होगा.
    (४)
    इतिहास की दिशा बदलने का अति मह्त्वका योगदान है यह. क्या आप योगदान दे सकते हैं?

  2. (१)
    समस्याएँ हैं. मान्य है. पर वैयक्तिक समस्याओं को तटस्थ राष्ट्रीय दृष्टि कोण से देखना और रखना अधिक श्रेयस्कर होगा. ऐसा मैं मानता हूँ. वैयक्तिक समस्याओं को यहाँ सुलझाना संभव नहीं.
    (२)
    और ७० वर्षों पूर्व से गलत दिशा में आगे बढी शिक्षा नीति का प्रवाह, संवेग (Momentum) धारण कर चुका है. इस लिए तत्काल बदलाव या हल संभव नहीं.
    ऐसे बदलाव Critical Path Method अपनाने पर सरलता से सम्भव होते हैं. ==>एक नदी के प्रवाह की दिशा बदलने जैसा कठिन यह होता है.
    (३)
    पर Critical Path Method (निर्णायक पथ पद्धति.) को अपनाने पर ऐसा बदलाव शीघ्रताशीघ्र संभव हो सकता है. दो आलेख इस विषय पर पर भी डाल चुका हूँ. एक:==> ’शिक्षा माध्यम के बदलाव का प्रबंधन’== और दो:==>’ भाषा रूढ कैसे की जाए?’ आप विद्वानों को अनुरोध: इन दो आलेखों को परख ले. यह आप का बडा योगदान होगा.
    (४)
    इतिहास की दिशा बदलने का अति मह्त्वका योगदान है यह. क्या आप योगदान दे सकते हैं?

    • (१)
      समस्याएँ हैं. पर वैयक्तिक समस्याओं को तटस्थ राष्ट्रीय दृष्टि कोण से देखना और रखना अधिक श्रेयस्कर होगा. ऐसा मैं मानता हूँ. वैयक्तिक समस्याओं को यहाँ सुलझाना संभव नहीं.
      (२)
      और ७० वर्षों पूर्व से गलत दिशा में आगे बढी शिक्षा नीति का प्रवाह, संवेग (Momentum) धारण कर चुका है. इस लिए तत्काल बदलाव या हल संभव नहीं.
      ऐसे बदलाव Critical Path Method अपनाने पर सरलता से सम्भव होते हैं. ==>एक नदी के प्रवाह की दिशा बदलने जैसा कठिन यह होता है.
      (३)
      पर Critical Path Method (निर्णायक पथ पद्धति.) को अपनाने पर ऐसा बदलाव शीघ्रताशीघ्र संभव हो सकता है. दो आलेख इस विषय पर पर भी डाल चुका हूँ. एक:==> ’शिक्षा माध्यम के बदलाव का प्रबंधन’== और दो:==>’ भाषा रूढ कैसे की जाए?’ आप विद्वानों को अनुरोध: इन दो आलेखों को परख ले. यह आप का बडा योगदान होगा.
      (४)
      इतिहास की दिशा बदलने का अति मह्त्वका योगदान है यह. क्या आप योगदान दे सकते हैं?

  3. हिंदी भाषा अथवा किसी भी विषय को लेकर मैं सोचता हूँ कि जब उसकी अनुपस्थिति का आभास होता है तब ही उसकी उपस्थिति का सत्त्व जाना जा सकता है| उदाहरणार्थ, सामाजिक परिस्थिति में घर, समाज, अथवा कार्यक्षेत्र में बहुधा हिंदी बोलते अधिकांश भारतीयों के जीवन में अन्य महत्वपूर्ण स्थितियों जैसे अंग्रेजी माध्यम द्वारा उच्च स्तरीय शिक्षा व कांग्रेस शासकीय कार्यशैली में भाषा की अनुपस्थिति को हम नहीं समझते| विडंबना तो यह है कि हिंदी (अथवा भारतीय मूल की अन्य क्षेत्रीय) भाषा की अनुपस्थिति के कारण अधिकांश साधारण नागरिकों की अंतर-निहित शक्ति का संचार व उसका सदुपयोग न होने पर वे आर्थिक स्तर पर निर्धन व निर्बल बने समाज में सामूहिक योगदान नहीं दे पाते और न ही ऐसी व्यवस्था में कोई उनके नागरिक अधिकारों का उल्लंघन होते देख पाता है| जब भाषा की अनुपस्थिति कोई समस्या नहीं तो कोई मुआ अखंड भारत और समस्त भारतवासियों को एक डोर में बांधती हिंदी की उपस्थिति हेतु समाधान क्यों खोजे?

  4. स्वतंत्र भारत में प्रधान मंत्रीओ की भाषा – स्वतंत्र भारत में केवल दो ऐसे प्रधान मंत्री हुए हैं जो हिंदी में बोले हैं. एक अटल बिहार बाजपेयी जी और दूसरे मोदी जी प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह तो एक नियुक्त / नामजद किया हुआ प्रधान मंत्री था। बह हनेशा ज्यादातर अंग्रेजी में बोले और कभी कभी उर्दू में बोले। मन मोहन सिंह कभी हिंदी में नहीं बोला। प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के पूर्वज मुस्लिम थे। इसकी जीवन शैली मुस्लिम लोगो से जुडी रही हैं। और पालन पोषण भी मुस्लिम वातबरण में हुआ , इसलिए नेहरू को हिंदी नहीं आती थी वह जिनदगी भर उर्दू बोले थे। भारत में स्वतंत्रता के पस्चात बह सब प्रधान मंत्री जो अलप समय तक रहे उन्होंने भी अधिकांश समय अंग्रेजी या उर्दू बोला। यह केवल मोदी जी ऐसे प्रधान मंत्री हैं जो देश और विदेश में पराया हिंदी में बोलते हैं। इसका परिणाम यह हुआ के जो लोग हिंदी विरोधी थे या फिर हिंदी के प्रति उदासीन थे उन्होंने भी हिंदी के महत्व को समझा और उन्होंने भी हिंदी में रूची लेना आरम्भ कर दिया हैं। जो लोग हिंदी समर्थक हैं और भारत में अंग्रेजी और उर्दू के प्रभाब से दुखी थे ऐसे लोगो में भी एक आशा का संचार हुआ हैं के यदि मोदी जी ५ – १० वर्ष तक प्रधान मंत्रीरह गए तो हिंदी को भारत में उच्च स्थान मिल सकता हैं और सम्भब हैं हिंदी को राष्ट्र भाषा का स्थान मिल जाये और सरकार का काम काज हिंदी में होना आरम्भ होना चालु हो जाये।

  5. जो अङ्ग्रेज़ी शिक्षित नहीं हैं वो सच बोलते हैं वरना आज —- मनोज तिवारी बीजेपी के हिन्दी शिक्षिका का अपमान मंच पर ही कर देते हैं , उत्तराखंड के सीएम शिक्षिका को मुअत्तल करवा देते हैं (पर सभी महिला समितियां – — नेत्रियाँ चुप हैं — ??? ) रिलायंस में तो परंपरा ही बन चुकी है :—- अंग्रेजी मानसिकता के प्राचार्य श्री सुंदरम के0 डी0 अम्बानी विद्यामंदिर रिलायंस टाउनशिप जामनगर से 20-26 साल के अनुभवी शिक्षकों को महज इसलिए निकलवा दिए हैं कि वे शिक्षक राष्टृभाषा- हिंदी के हैं और जब हिंदी दिवस (14सितम्बर 2010) के दिन प्राचार्य सुंदरम ने माइक पर कहा था ” हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है हिंदी शिक्षक आपको गलत पढ़ाते हैं ” तो इन हिंदी शिक्षकों ने उनसे असहमति जताई थी……………..मुकेश अम्बानी की पत्नी नीता अम्बानी उस विद्यालय की चेयरमैन हैं — रिलायंस कम्पनी के के0 डी0 अम्बानी विद्यालय में भी अन्याय चल रहा है, 11-11 साल काम कर चुके स्थाई हिंदी टीचर्स को निकाला जाता है क्योंकि वे राष्ट्रभाषा हिंदी के हैं, तथा उसपर ये कहना कि सभी हमारी जेब में हैं रावण की याद ताजा कर देता है अंजाम भी वही होना चाहिए…. जय हिंद…! जय हिंदी– !!
    पाकिस्तान से सटे इस सीमावर्ती क्षेत्र में राष्ट्रभाषा – हिंदी वा राष्ट्रीयता का विरोध अत्यंत खतरनाक हो सकता है सभी सरकारें व संस्थाएँ चुप हैं शायद वे इस क्षेत्र को भी सरदार पटेल के समय का हैदराबाद या कार्गिल बनना देखना चाहते हैं !!!बिलकुल सच कहा है आपने —- हम शिक्षक वर्ग सदियों से समाज के विष को पीकर नीलकंठ बनते रहे हैं पर आज के अंग्रेज़ियत समाज में उनको निरादर किया जाता है —आपके कॉलेज के वेतन को देखते हैं पर प्राइवेट स्कूलों में कम वेतन अधिक काम क्यों नहीं देखा जाता है — रिलायंस जैसे कॉर्पोरेट घरानों में शिक्षक-शिक्षिकाओं की दुर्दशा पर सभी चुप क्यों हैं – क्या सभी मुकेश अंबानी के टुकड़ों पर पल रहे हैं ????

  6. हिंदी भाषा अथवा किसी भी विषय को लेकर मैं सोचता हूँ कि जब उसकी अनुपस्थिति का आभास होता है तब ही उसकी उपस्थिति का सत्त्व जाना जा सकता है| उदाहरणार्थ, सामाजिक परिस्थिति में घर, समाज, अथवा कार्यक्षेत्र में बहुधा हिंदी बोलते अधिकांश भारतीयों के जीवन में अन्य महत्वपूर्ण स्थितियों जैसे अंग्रेजी माध्यम द्वारा उच्च स्तरीय शिक्षा व शासकीय कार्यशैली में भाषा की अनुपस्थिति को हम नहीं पहचानते| विडंबना तो यह है कि हिंदी (अथवा भारतीय मूल की अन्य क्षेत्रीय) भाषा की अनुपस्थिति के कारण अधिकांश साधारण नागरिकों की अंतर-निहित शक्ति का संचार व उसका सदुपयोग न होने पर वे आर्थिक स्तर पर निर्धन व निर्बल बने समाज में सामूहिक योगदान नहीं दे पाते और न ही ऐसी व्यवस्था में कोई उनके नागरिक अधिकारों का उल्लंघन होते देख पाता है| जब भाषा की अनुपस्थिति कोई समस्या नहीं तो कोई मुआ समाधान क्यों खोजे?

  7. डॉ. मधुसूदन जी ने इस लेख द्वारा हिंदी के महत्व को बताया हैं इनके अनुसार मोदी जी के जीत के पीछे हिंदी का बहुत योगदान हैं। भारत का कोई भी व्यक्ति यदि प्रधान मंत्री बनना चाहता हैं तो उसे हिंदी का सहारा अबश्या लेना पडेगा बरना बह ब्यक्ति जीत नहीं सकता। दक्षिण के लोगो ने भी हिंदी के महत्व को समझ लिया हैं। और उन्होने भी अब हिंदी सीखना आरम्भ कर दिया हैं। किन्तु समस्या यह हैं के हिंदी के बढ़ते प्रभाव के बाबजूद भारत का सारा कामकाज अंग्रेजी में चलता हैं ब्यापारी लोग भी अधिकांश कामकाज अंग्रेजी में करते हैं. हिंदी फिल्मो की नामाबली भी अंग्रेजी में होती हैं। बिना अंग्रेजी ज्ञान के लोगो को कही भी नौकरी नहीं मिलती। आबश्यकता हैं के सरकार अपना काम काज हिंदी में करे और हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाये।

    • मोहन जी नमस्कार.
      अंग्रेज़ी परम्परा बन चुकी है.
      इस लिए परिवर्तन में समय लगेगा.
      ऐसे बदलाव समय लेते हैं.
      टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
      मधुसूदन

  8. Your anecdotes about use of Hindi language are consistent with what we have seen in India in last one decade. I think Hindi is currently spreading like wildfire. In Pune, out of all places, even Marathi youths converse with each other in Hindi. Of course, it’s not pure Hindi – like Atalji’s or Modi’s — Prakash Waghmare

  9. Prof. Shakuntala Bahadur
    हिन्दी आत्मा है भारत की

    आदरणीय मधुसूदन भाई,
    इस ज्ञानवर्धख एवं प्रेरणाप्रद आलेख के लिये
    अनेकशः साधुवाद ।

  10. अति शुभम सुंदरम।

    Truly,
    Hari B. Bindal, PhD, P.E.

    Recipient, Pravasi Bharatiya Samman Award 2017, from the President of India.
    Retired, US Coast Guard, Vessel Environmental Program Manager, 2012.
    Founder, American Society of Engineers of Indian Origin (ASEI), 1983.
    Commissioner, PG County, Solid Waste Advisory Committee, 2016 – current.
    Member, Governing Council Vishwa Hindu Parishad of America, 2005 – current.
    Engineer, writer, Poet, and Community Activist.

    7605 Quicksilver Ct
    Bowie, MD 20720

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