एक राष्ट्र अपने धर्म का अपमान करने की जब भूल करने लगता है तब उसे भारत विभाजन के दौर से गुजरना पड़ता है, जब वही राष्ट्र दुबारा अपने धर्म को भूल उसका अपमान करता है तो उसे जम्मू और कश्मीर सुंदरता नहीं एक दाग की भांति लगने लगता है| और जब वह अपने इन कठोर और बुरे अनुभवों को भूल कर फिर वही गलती दोहराने लगता है तो उसे अपने ही घर में राष्ट्रद्रोहियों को पोषित करने का पाप मिलता है| और ऐसा राष्ट्र कभी भी सुखपूर्वक जीवन नहीं व्यतीत कर सकता है| हमारे राष्ट्र में अब तक होने वाले जितने भी आतंकी हमले जो हुए हैं वो सब हमारे राष्ट्रधर्म कि अवहेलना करने के कारण ही हुए हैं|
इन दिनों हमारी संसद में एक विवाद तूल पकड़ता नजर आ रहा है धर्म सम्बन्धी विवाद, और हमारी सोशल मीडिया में भी इस पर रायशुमारी शुरू हो गयी है| मित्रगण सही कह रहे हैं की राष्ट्र धर्म को लेकर अब राष्ट्रव्यापी बहस होनी ही चाहिए, आखिर देखें तो कौन किस खेत कि मूली है| देश की आज़ादी के तुरंत बाद जब देश के प्रथम प्रधानमंत्री ने इस राष्ट्र के साथ छल किया और संविधान में जबरदस्ती धर्मनिरपेक्षता को जोड़ा गया जबकि देश का विभाजन धर्म के आधार पर करवाया गया था, इसी कारण मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान का निर्माण हुआ और वो एक पडोसी देश बनने के बजाये हमारे लिए एक भयंकर नासूर बन गया| यदि देश में यही स्थिति रखनी थी की जगह-जगह मोपला जैसे कांड होते रहें, बार बार विभाजन का डर दिलों में बना रहें तो आखिर विभाजन ही क्यों किया गया, क्या उस समय इन आने वाली कठिन परिस्थितियों पर विचार-विमर्श नहीं किया गया था| तब भी क्यों हम आने वाले खतरों को अनदेखा कर वैमनस्य को ही बढ़ावा दे रहे हैं| लोकतंत्र कि बात करने सज्जनों को ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिससे राष्ट्र को हिन्दू राष्ट्र होने से नाकारा नहीं जा सकता| वैसे भी ये तथाकथित लोकतंत्र के रक्षक अतिआधुनिक राष्ट्रों के ही तो समर्थक हैं, अमेरिका, लंदन, चीन, रूस आदि-आदि महान राष्ट्रों के उपासक ये मित्र जरा इन देशों की धार्मिक स्थिति भी संभाल लें तो इन्हें आइना नजर आएगा| लंदन और अमेरिका में तो मुस्लिम धर्म के अनुयायियों को किस दृष्टि से देखा जाता है ये किसी से छुपा नही है| भारत में आये दिन आतंकी घटनाएं होने के बाद भी सम्पूर्ण राष्ट्र मुस्लिम मित्रों को अपने अभिन्न अंग के भांति समझता है ये भारत की संस्कृति का ही चमत्कार है और वो संस्कृति है हिन्दू सनातन धर्म की संस्कृति|
एक जानकारी के अनुसार इस्लामिक धर्म को अधिकतम 1500 वर्ष ही हुए है और ईसाई धर्म 2014 वर्ष से ज्यादा पुराना है नहीं, तब सोचिये इससे पहले भी कोई धर्म इस संसार में निर्विवाद विचरण करता होगा| सृष्टि का निर्माण तो इन सबसे पहले हो चुका था तो क्या तब तक हम अधर्मी थे, नहीं न| तब हम सब हिन्दू थे, और आर्यवृत विश्व का सबसे पुराना राष्ट्र था| हमारे पूर्वज उन्नत थे वे किसी के मोहताज नहीं थे| आप ने अपनी इतिहास की पुस्तकों में इतना तो खैर पढ़ा ही होगा की लगभग 16 वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत से व्यापार करने मुग़ल बादशाह जहांगीर के शासन के दौरान प्रवेश किया था, और 1612 में हिन्द महासागर में भारत के लिए पुर्तगाली और ईस्ट इंडिया में लड़ाई हुई थी तो जरा ये समझिए उस समय हम इतने अमीर थे की ये समृद्ध राष्ट्र हमारे साथ व्यापार करने के लिए आपस में लड़ते थे| मुग़ल भी हमारे देश की समृद्धि देखकर ही आये थे, वे आर्यवृत से सम्बन्ध नहीं रखते थे| अत: इन सबसे पहले भारत एक हिन्दू राष्ट्र था वह सनातन धर्म का समर्थक था, वह धर्म जिसने अन्य राष्ट्रों को गौतम बुद्धा और महावीर जैसे उपासक देकर जीवन जीने का तरीका सिखाया था|
फिर ये सब आज हम क्यों भूल रहे हैं, इसके पीछे का कारण क्या हैं? क्या आप ये जानते हैं, नहीं! तो चलिए मैं बताता हूँ| हम अपने कृत्तव्यों को भूल गए हैं और अपने अधिकारों की मांग करने लगे हैं| हम अपने पुत्र होने का कर्त्तव्य छोड़कर, स्वार्थ में घिर सम्पत्ति में अपना अधिकार मांगने लगे हैं| आपमें से कितने मित्र ऐसे हैं जो अपने कृत्तव्यों को भलीं भांति समझते हो! मुझे लगता हैं आप मात्र कुछ ही संख्या में होंगे| आप अपना इतिहास नहीं जानते और न ही उसे पढ़ने की कोशिश करते हैं, आपके पूर्वजों के बारे में आप केवल अपने दादा-परदादा तक ही जानते हैं उससे आगे आप न तो जानते हैं और न ही जानने कि ईच्छा ही रखते हैं| इसका सीधा सा उदाहरण हैं कि आपके ही एक धर्मग्रन्थ जिसे पूरा विश्व आदर की दृष्टि से देखता हैं ‘गीता’, उसे जब राष्ट्रीय धर्मग्रन्थ माना जाने लगे तो विरोध शुरू हो गया.. क्यों? योग, एक ऐसी विधा जिसने भारत आज पुनः विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर किये हुए हैं को बार-बार अपमानित होना पड़े ऐसी स्थिति आखिर क्यों? ऐसे ही राष्ट्र धर्म पर भी इस तरह का विवाद उठाना भी अपने धर्म से विमुख होने और अपने कृत्तव्यों को भूल जाना भी इसका ही एक उदाहरण हैं|
हमें इस दिशा में सोचना अब ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगा हैं की हम वाकई भारतीय हैं या पूरी तरह से इंडियन हो चुके हैं| भारतीय वह जो अपनी संस्कृति से प्यार करता हैं, जिसे संस्कृत भाषा भी एक उन्नत भाषा के तौर पर स्वीकार की जाती हो| जो हिन्दू-मुस्लिम और ईसाई में कोई भेद न समझता हो वही हिन्दू है और वही भारतीय भी है| पर इंडियन वह है जो असंस्कारी हैं, जिसे संस्कृत से ज्यादा जर्मन भाषा में अपनत्व नजर आता हो, और इस भाषा में बस विवाद ढूंढता हो, जिसे हिन्दू एक अपमानजनक शब्द लगता हो, जो केवल और केवल अंग्रेजी प्रेमी हो और जिसे अपने राष्ट्र कि एकता और अखंडता से कोई लेना देना नहीं हो| ऐसे लोग 1947 में अंग्रेजों के देश छोड़ने पर जो संकरित बीज कुछ देश में बचे थे वे लोग येही हैं|
इन्हें धिक्कार है….
भोजन, आवास, और सुरक्षा जीवन की मूलभूत अत्यावश्यकतायें हैं जिनके लिये संघर्ष होते रहे हैं । इन आवश्यकताओं की सुनिश्चितता के लिये कुछ शक्तिशाली लोग कभी राजतंत्र तो कभी लोकतंत्र के सपने दिखाकर स्वेच्छा से ठेके लेते रहे हैं । सभ्यता के विकास के साथ-साथ अवसरवादी लोगों ने भी धर्म के ठेके लेने शुरू कर दिये । भोजन, आवास और सुरक्षा की उपलब्धि के लिये एक सात्विक मार्ग के रूप में “धर्म” का वैचारिक अंकुश तैयार किया गया था किंतु अब मौलिक आवश्यकताओं की सुनिश्चितता के अन्य उपाय खोज लिये गये हैं और धर्म एक ऐसी भौतिक उपलब्धि बन गया है जिसकी प्राप्ति के लिये अधर्म और अनीति के रास्ते प्रशस्त हो चुके हैं । धर्म अब रत्नजड़ित मुकुट हो गया है जिसे पाने के लिये हर अधार्मिक व्यक्ति लालायित है । अधर्म ने धर्म का मुकुट पहनकर अपनी सत्ता को व्यापक कर लिया है । धर्म के नाम पर किये जाने वाले सारे निर्णय अब अधर्म द्वारा किये जाते हैं ।
धर्म के नाम पर भारत को खण्डित किया गया । पाकिस्तान बना, बांग्लादेश बना और अब मौलिस्तान और कश्मीर बनाने की तैयारी चल रही है । पूरे विश्व में धर्म के नाम पर हिंसा होती रही है …लोग बटते रहे हैं …समाज खण्डित होता रहा है …..स्त्रियों के साथ यौनाचार होता रहा है । धर्म के नाम पर वह सब कुछ होता रहा है जो अधार्मिक है । यह धर्म है जिसने लोगों को अपनी मातृभूमि छोड़ने के लिए विवश किया । यह धर्म है जिसने लोगों को अपने ही घर में शरणार्थी बनने पर विवश किया । ब्रितानिया पराधीनता से मुक्ति के बाद भी कश्मीरी पण्डितों को 1990 में अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा । धर्म यदि ऐसा विघटनकारी तत्व है जो हिंसा की पीड़ा का मुख्य कारक बन सकता है तो ऐसे धर्म की आवश्यकता पर विचार किए जाने की आवश्यकता है ।
भारत के संविधान में धर्म की स्वतंत्रता के साथ-साथ धर्म के प्रचार की भी स्वतंत्रता प्रदान की गयी है । इस प्रचार की स्वतंत्रता ने ही धर्म को एक वस्तु बना दिया है । धर्म अब आयात किया जाता है, धर्म के नाम पर अरबों रुपये ख़र्च किये जाते हैं । धर्म ने अपने मूल अर्थ को खो दिया है और अब वह व्यापार बन चुका है ।
मैं यह बात कभी समझ नहीं सका कि जिस धार्मिक स्वतंत्रा के कारण देश और समाज का अस्तित्व संकटपूर्ण हो गया हो उसे संविधान में बनाये रखने की क्या विवशता है ? क्या धार्मिक स्वतंत्रा को पुनः परिभाषित किये जाने की आवश्यकता नहीं है ? क्या धार्मिक स्वतंत्रता की सीमायें तय किये जाने की आवश्यकता नहीं है ? हम यह मानते हैं कि जो विचार या जो कार्य समाज और देश के लिये अहितकारी हो उसे प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिये । मनुष्यता और राष्ट्र से बढ़कर और कुछ भी नहीं हो सकता । परस्पर विरोधी सिद्धांतों और विचारों को अस्तित्व में बनाये रखने की स्वतंत्रता का सामाजिक और वैज्ञानिक कारण कुछ भी नहीं हो सकता । ऐसी स्वतंत्रता केवल राजनीतिक शिथिलता और असमर्थता का ही परिणाम हो सकती है ।
बहुत से बुद्धिजीवी सभी धर्मों के प्रति एक तुष्टिकरण का भाव रखते हैं यह उनकी सदाशयता हो सकती है और छल भी । हम उन सभी बुद्धिजीवियों से यह जानना चाहते हैं कि यदि सभी धर्म मनुष्यता का कल्याण करने वाले हैं तो फिर उन्हें लेकर यह अंतरविरोध क्यों है? सारे धर्म एक साथ मिलकर मानव का कल्याण क्यों नहीं करते ? धर्म को लेकर ये अलग-अलग खेमे क्यों हैं ? ये एक ही लक्ष्य के लिये पृथक-पृथक मार्गों की संस्तुति क्यों करते हैं ? कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत एक प्रकार के लक्ष्य के लिये विभिन्न मार्गों की संस्तुति नहीं करता तब धर्म के साथ ऐसा क्यों है ?
आप कह सकते हैं कि धर्म और विज्ञान दो पृथक-पृथक विषय हैं, उन्हें एक साथ रखकर किसी सिद्धांत की व्याख्या नहीं की जा सकती । मेरी सहज बुद्धि यह स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है । विज्ञान से परे कुछ भी नहीं है, धर्म और विज्ञान को पृथक नहीं किया जा सकता । पृथक करने से जो उत्पन्न होगा वह अधर्म ही होगा ।