हिन्दुओं के प्रति बालीवुड टीवी सीरियलों की कुटिल चाल

डा. राधेश्याम द्विवेदी
यह एक मनोवैज्ञानिक सच है कि हम जिस तरह के माहौल में रहते है उसका उसी तरह हमारी जिंदगी पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। फिल्मे आम जन जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव डालती हैं। युवा पीढ़ी इसका अंधाधुन्ध अनुकरण करती है। आज के टीवी और सिनेमा की प्रचुरतावाले युग में आने वाली फिल्में और सीरीयल भी हमारी जिंदगी को उतना ही प्रभावित करते है जितना कि हमारा माहौल हमें प्रभावित करता है। एक तरह से देखा जाए तो आज टीवी सिनेमा हमारी जिंदगी को हमारे माहौल से ज्यादा प्रभावित करते है क्योंकि लोगों का मेलजोल दूसरे लोगों से कम और टीवी व सीरियल से ज्यादा हो रहा है। दुखद एवं चिन्तनीय है कि मनोरंजन के नाम पर टीवी और सिनेमा सकारात्मक प्रभाव कम और नकारात्मक प्रभाव ज्यादा डाल रहे हैं। 
फैशनों की नकल में नई पीढ़ी :- आज की नई पीढ़ी भी नायक, नायिकाओं का फैशनों का नकल कर रहे हैं। भारत का अधिकतम युवा नशा करते, लड़की पटाते और भाईगिरी करते हुए ज्यादा दिखते है, ये सब बॉलीवुड का असर है। आज बॉलीवुड में सिर्फ भाईगिरी और रोमांस ही ज्यादा दीखता है। अपराधियों और डॉन को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता है जिससे युवा का मन अपराध करने के लिए प्ररित होता है। लोग पोर्नस्टार को भी समर्थन कर रहे है। हम देख सकते है कि फिल्मों ने सामाजिक जीवन को बिगाड़ के रख दिया है। इसमें सुधार लाने की आवश्यता है। ऐसी फिल्में बनाने की जरूरत है जो लोगों में सकारात्मकता फैलाए तथा देशभक्ति की भावना पैदा करे। पर सुखद बात यह कि भारत में भी ऐसी बहुत सारी फिल्में बनी है जिनका समाज तथा युवा वर्ग पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
फिल्मों ने बदल दिया नजरिया :- आज की फिल्मों को देखने से आम जन मानस में यह आम धारणा बन गयी है कि एक ब्राह्मण को ढोंगी पंडित, लुटेरा के रुप में पेश किया जाता है। इसी प्रकार एक राजपूत को अक्खड़, मुच्छड़, क्रूर, बलात्कारी के रुप में दिखाया जाता है। इसी प्रकार एक वैश्य या साहूकार को लोभी व कंजूस के रुप में ही ज्यादातर दिखलाये जाते हैं। इतना ही नहीं इससे बदतर एक गरीब हिन्दू दलित को दिखाया जाता है। उन्हें कुछ पैसो या शराब की लालच में बेटी को बेच देने वाला चाचा या झूठी गवाही देने वाला जाना जाता है। वाडीवुड एक सिक्ख को जोकर आदि बनाकर मजाक उड़ाता रहता है। फिल्मों में जाट खाप पंचायत का अड़ियल रुखवाला दिखाकर उसे बेटी और बेटे के प्यार का विरोध करने वाला और महिलाओ पर अत्याचार करने वाला दिखलाया जाता है। 
गैर हिन्दुओं की छवि अच्छी दिखायी जाती है:- इन सबके विपरीत दूसरी तरफ मुस्लिम समाज को अल्लाह का नेक बन्दा, नमाजी, साहसी, वचनबद्ध, हीरो-हीरोइन की मदद करने वाला टिपिकल रहीम चाचा या पठान जैसे चरित्र के रुप में पेश किया जाता है। इतना ही नहीं ईसाई को जीसस जैसा प्रेम, अपनत्व, हर बात पर क्रॉस बना कर प्रार्थना करते रहना दिखाया जाता है। ये बॉलीवुड इंडस्ट्री, सिर्फ हमारे धर्म, समाज और संस्कृति पर घात करने का सुनियोजित षड्यंत्र है और वह भी हमारे ही धन से । हम हिन्दू और सिक्ख अव्वल दर्जे के कारटून बन चुके हैं। क्योकि ये कभी वीर हिन्दू पुत्रों महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह गुरु तेग बहादुर चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, विक्रमादित्य, वीर शिवाजी संभाजी राणा साँगा, पृथ्वीराज की कहानी नही बताते हैं। इसे साम्प्रदायिक करार कर इस पर प्रतिवंध व सेंसर लगवा देते हैं। अब युग बदल गया है आप इनके कुिटल चाल पर कभी गहराई से विचार कीजियेगा। अगर यही बॉलीवुड देश की संस्कृति सभ्यता दिखाए तो सत्य मानिये हमारी युवा पीढ़ी अपने रास्ते से कभी नही भटकेगी। ये छोटा सा संदेश उन हिन्दू युवाओं के लिए है जो फिल्म देखने के बाद गले में क्रोस, मुल्ले जैसी छोटी सी दाड़ी रख कर खुद को मॉडर्न समझते व दिखलाने की कोशिस करते है ।
हिन्दू नौजवानौं रगो में धीमा जहर भरा जा रहा :-हमारे देश के हिन्दू नौजवानौं के रगो में धीमा जहर भरा जा रहा है। इसे फिल्म जेहाद भी कह सकते हैं। यदि आप सलीम – जावेद की जोड़ी की लिखी हुई फिल्मो को देखे, तो उसमे आपको अक्सर बहुत ही चालाकी से हिन्दू धर्म का मजाक तथा मुस्लिम व इसाई को महान दिखाया जाता मिलेगा। इनकी लगभग हर फिल्म में एक महान मुस्लिम चरित्र अवश्य होता है और हिन्दू मंदिर का मजाक तथा संत के रूप में पाखंडी ठग देखने को मिलता है। फिल्म ‘शोले’ में धर्मेन्द्र भगवान् शिव की आड़ लेकर हेमामालिनी को प्रेमजाल में फंसाना चाहता है जो यह साबित करता है कि – मंदिर में लोग लडकियां छेड़ने या पटाने के लिए ही जाते है। इसी फिल्म में ए. के. हंगल इतना पक्का नमाजी है कि – बेटे की लाश को छोड़कर, यह कहकर नमाज पढने चल देता है कि उसे उपरवाले ने और बेटे क्यों नहीं दिए कुर्बान होने के लिए। ‘दीवार’ फिल्म अमिताभ बच्चन नास्तिक है और वह भगवान् का प्रसाद तक नहीं खाना चाहता है। लेकिन 786 लिखे हुए बिल्ले को हमेशा अपनी जेब में रखता है और वह बिल्ला भी बार बार अमिताभ बच्चन की जान बचाता है। ‘जंजीर’ फिल्म में भी अमिताभ बच्चन नास्तिक है और जया भगवान से नाराज होकर गाना गाती है। इसी फिल्म में शेरखान को एक सच्चा इंसान के रुप में दिखलाया गया है। फिल्म ‘शान’ में अमिताभ बच्चन और शशिकपूर साधू के वेश में जनता को ठगते है लेकिन इसी फिल्म में अब्दुल जैसा सच्चा इंसान भी दिखलाया गया है जो सच्चाई के लिए अपनी जान तक दे देता है। फिल्म ‘क्रान्ति’ में माता का भजन करने वाला राजा (प्रदीप कुमार) गद्दार है और करीमखान (शत्रुघ्न सिन्हा) एक महान देशभक्त, जो देश के लिए अपनी जान दे देता है। ‘अमर-अकबर-अन्थोनी’ में तीनो बच्चो का बाप किशनलाल एक खूनी स्मग्लर है लेकिन उनके बच्चों अकबर और अन्थोनी को पालने वाले मुस्लिम और ईसाई महान इंसान है। साईं बाबा का महिमामंडन भी इसी फिल्म के बाद शुरू हुआ था। 
कुल मिलाकर आपको इनकी फिल्म में हिन्दू नास्तिक मिलेगा या धर्म का उपहास करता हुआ कोई कारनामा दिखेगा और इसके साथ साथ आपको शेरखान पठान, डीएसपी डिसूजा, अब्दुल, पादरी, माइकल, डेबिड, आदि जैसे आदर्श चरित्र देखने को मिलेंगे। हो सकता है आपने पहले कभी इस पर ध्यान न दिया हो लेकिन अबकी बार जरा ध्यान से देखना। केवल सलीम जावेद की ही नहीं बल्कि कादर खान, कैफी आजमी, महेश भट्ट, आदि की फिल्मो का भी यही हाल है। फिल्म इंडस्ट्री पर दाउद जैसों का नियंत्रण रहा है। इसमें अक्सर अपराधियों का महिमामंडन किया जाता है और पंडित को धूर्त, ठाकुर को जालिम, बनिए को सूदखोर, सरदार को मूर्ख कामेडियन, आदि ही दिखाया जाता है। फरहान अख्तर की फिल्म भाग मिल्खा भाग में हवन करेंगे बोल का कोई मतलब समझ में नहीं आता है। फिल्म पी के में भगवान् का रोंग नंबर बताने वाले आमिर खान अल्ला के रोंग नंबर 786 पर कोई फिल्म कभी भी नहीं बनायेंगे। मेरा मानना है कि यह सब महज इत्तेफाक नहीं है बल्कि वामपंथी तथा तथाकथित सेकुलरों की यह सोची समझी साजिश है एक चाल है । ये लोग हमेशा ही हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने तथा मुस्लिम व ईसाई धर्म को ऊंचा या आदश्र दिखाकर धर्मान्तरण करवाने की चालें चलते रहते हैं और हिन्दू समाज इनके चाल को समझने में स्वयं को सक्षम नहीं पाता है।

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