Home साहित्‍य व्यंग्य होशंगशाह किले की व्यथा

होशंगशाह किले की व्यथा

होशंगशाह गौरी का किला है कुछ खास
खण्डहर हो चुका कभी था वह आवास
नर्मदा का तट था सुल्तान को भाया
सन चोदह सौ एक में किला बनवाया
मंगलवारा घाट से मैं उसे अक्सर निहारू
किले के अतीत का चिंतन मन में विचारु
अनगिनत सवालों का सैलाब मन में होता
अपने घर लौट आता ख्याल जिगर में सँजोता ।
एक दिन यकायक किले ने मुझे पुकारा
कहा तनिक बैठो, चाहिए मुझे थोड़ा सहारा
मैं किला हूँ मेरी तुम विवशता भी सुनो
क्यों क्षुब्द हूँ, क्यो व्यथित हूँ इसे भी गुनो
सदिया बीती बसंत बीते कई पतझड़ भी गए
स्याह काली राते उजास भरे दिन भी गए
दर्द सहते कुछ न कहते मैं अकेला खड़ा हूँ
मैं एतेहासिक किला प्राकृतिक कुचक्रों से लड़ा हूँ ॥
मुझे याद आता है गुजरा हुआ जमाना
प्रेम करने वालों का खाक में मिल जाना
यही नर्मदातट पर बैठा करता दीवाना
उसकी बंसीधुन में रानी का रीझ जाना
जिस दिन बंसीधुन न सुन पाती रानी
व्याकुल दिल होता आंखो से बहता पानी
दीवाने की आंखो में भी बस गई वह रानी
पागल प्रेमी ओर रानी की शुरू हुई कहानी ॥
एक दिन सुल्तान ने देखा, सुल्तान हुआ पागल
रानी का दिल था बंसीवाले पागल पे घायल
बोला सुल्तान पागल को अगर भूल जाये रानी
माफ कर दूंगा में रानी की सारी नादानी
सुनकर राजा की बाते रानी खिलखिलायी
प्रेम प्रेम है सुन राजा रानी के मन सजा भायी
सुन बातें पागल हुआ सुल्तान, पागल बुलबाया
दोनों को मृत्यु दंड का राजा ने फरमान सुनाया॥

पर रानी थी पागल को नहीं भूली
रानी संग पागल के फांसी पे झूली
वह फांसी जिसे भुला सारा जमाना
इतिहास भी भूला यह किस्सा पुराना
तभी से दोनों की आत्माये यहा रोती
पीव आंसुओं से मेरे गुंबज-दीवारे धोती
गुमसुम सा सुन रहा मैं किले की जुबानी
भवानी मिश्र के सन्नाटा सी ये कहानी ॥
(2)
किले ने नई नई बातों का पिटारा दिया खोल
होशंगाबाद में मिले दर्द को बता रहा है तोल-तोल
बोला, मेरे बाद बने अस्थिपंजर से कई किले है
बदरंग किलो के इतिहास में नहीं किस्से मिले है
शिल्पकारों की प्रस्तरखंड सी वे अधूरी रचनाये
मरु मरीचिकाये की बनी उद्वेगभरी कल्पनाये
सैकड़ों सैलानियों के समूह उन्हे देखने आते है
गाइड उन किलों का गौरव बढ़ा चढ़ा कर बताते है॥
मेरा इतिहास मुझमे दफन है,बस स्मारक बन रह गया
राजा रानी ओर सामंतों का, सब आक्रोश-घृणा सह गया
एक गुमनाम सा स्मारक बनकर रह गया हूँ आज
सन चोदह सो पाँच में, मेरे वैभव पर था सबको नाज
रानी ओर उनकी दासियों का प्यार था विछोह था
सुल्तान के लिए रानी का प्रेम दगा था विद्रोह था
मेरे एतेहासिक वैभव को, भूली जनता ओर सरकार
अतीत की स्मृतियों में गुम हूँ चाहू, भविष्य का प्यार ॥
मैंने देखी है, सुल्तान के सामंतों की करतूतें
अत्याचार कर खजाना लूटे, निर्दोषों की मौते
मेरे अंचल में यही कहीं, रख छोड़ा है खजाना
जनश्रुतिवश खजाना खोदने, आता अब भी जमाना
नगरपालिका को मेरी दशा पर, दया खूब आई
60 लाख खर्चा करके, की मरम्मत ओर सफाई
स्याह काली रातों में, तंत्र मंत्र के आते उच्चाटक
खजाना पाने निरीह पशुओ की, बलि दे करते नाटक॥
जमाने के दिये जख्मों की, हर टीस पर मैं कराहता
दर्द असीम लिए, दर्शन, शिल्प ओर कला को तलाशता
अतीत में अमानवीयता खूब सही, अब आत्मा मेरी रोती
भावी पीढ़ी मेरे इतिहास से वंचित, सरकार क्यों है सोती
मेरी तरंगित संवेदनाओ को, क्यो नही दुनिया को बताते ?
सुन रहा सन्नाटा की सिसकी, लोग सुनने क्यो नही आते ?
अपने स्वर्णयुग के इंतजार में, कब तक दर्द सहता रहूँगा
पीव पर्यटकदल अभिनंदन करे,आगे उपेक्षा मैं न सहूँगा ॥

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