कितनी स्वतंत्र हैं आधुनिक महिलाएं?

आज चारों तरफ शोर मचा हुआ है कि आज की महिला किसी भी मामले में पुरुषों से पीछे नहीं हैं। जीवन व समाज के हर क्षेत्र में वह पुरुषों में भी बढ़कर प्रदर्शन कर रही हैं। आज उन्हें सब ओर से स्वतंत्रता मिली हुई है। उन पर किसी तरह की रोक-टोक पाबंदी नहीं है, वह पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्या जिस आजादी का ढिंढोरा हम पीट रहे हैं, वह सच में महिलाओं को मिली हुई है। 

महिलाओं के विकास की ओर बढ़ते कदम तथा बदले रूप-रंग को देखकर ऊपर से सबको भ्रम हो रहा है कि आधुनिक महिलाएं पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। वो जैसा चाहती हैं, वैसा ही करती हैं। उन्होंने अपने जीवनशैली अपनी इच्छानुसार बनाई हुई है। जीवन के हर क्षेत्र में मिल रही कामयाबी इस बात की गवाह है कि अब हमारा समाज पुरुष प्रधान नहीं रहा। आधी आबादी को उसके हिस्से के अधिकार मिल रहे हैं। पर क्या सच में आधी आबादी को वह मिला है, जिसकी वह हकदार है या फिर सागर में से कुछ बूंदें उन्हें देकर बहला दिया गया है कि ताकि वे आगे अपने किसी अधिकार की लड़ाई न लड़ सकें। आज हमारा समाज बहुत आगे बढ़ चुका है, काफी विकसित हो चुका है, इसमें दो राय नहीं है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आधुनिक महिलाएं आज भी अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रही हैं। हम यदि अपनी समाज व्यवस्था पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो हम पाएंगे कि आज भी उनकी आजादी अधूरी ही है।

सामाजिक व्यवस्था- कहने को तो हमारा समाज काफी उन्नत और जागरूक हुआ है और आधी आबादी भी अपना जीवन अपने ढंग से जी रही है। लेकिन फिर भी आज भी शादी के बाद एक बेटी को ही अपना घर छोड़कर जाना पड़ता है, पुरुष आज भी उसी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। जब हम आजाद हैं तथा स्त्री और पुरुष दोनों को बराबरी का अधिकार दिया गया है तो फिर क्यों हमेशा एक लड़की या एक औरत को ही अपना सब कुछ छोडऩा पड़ता है? फिर वह शिक्षित हो या अशिक्षित इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे ही अपना सब कुछ छोडऩा पड़ता है। शादी के बाद एक लड़की अपना घर, माता-पिता, भाई-बहन यहां तक कि अपनी पढ़ाई, अपना भविष्य भी वह अपने ससुराल वालों के लिए छोड़ देती है। वह हर सांचे में खुद को ढाल लेती है। वह शादी के बाद अपने ससुराल वालों के रंग-ढंग में रच-बस जाती है और वह ये सब अपने परिवार की खुशी के लिए करती है। आज का समाज इतना आगे निकल चुका है, परंतु फिर भी आधी आबादी के मामले में हमारा समाज क्यों पुराने रिवाजों को ही मानता है? क्यों हमारी सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों के लिए बनाए गए रिवाजों में कोई परिवर्तन नहीं हुए? आज भी अगर किसी स्त्री के साथ कोई शर्मनाक घटना घटती है तो उसमें दोष स्त्री को ही दिया जाता है। उसी के चाल-चलन व चरित्र पर ही उंगली उठती है। हर बात में उनके ऊपर पाबंदी लगाई जाती है। उनकी जीवनशैली में हस्तक्षेप व रोक-टोक की जाती है। क्यों यह सब स्त्री को ही झेलना पड़ता है और फिर भी हम कहते हैं कि हमने औरतों को पूरी आजादी व उनके हक दिए हुए हैं। ऐसे में ऊपर तौर पर स्वतंत्र दिखने वाली इन महिलाओं को कैसे पूर्णत: स्वतंत्र माना जा सकता है। महिलाओं की इस स्वतंत्रता में भी तो आखिरकार उसकी परतंत्रता ही छिपी हुई है।

कहने को तो हमारा देश प्रत्येक क्षेत्र में विकास की ओर उन्मुख है तथा कई क्षेत्रों में तो हमने आशातीत कामयाबी हासिल भी कर ली है। विश्व के कई देशों ने इस बात को स्वीकार किया है कि राष्ट्र के विकास से संबंधित कई मुद्दों को महिलाएं बेहतर समझ सकती हैं। हमारे देश की तथा विदेशी राजनीतिज्ञ महिलाओं ने अपनी प्रतिभा से इस बात को सिद्ध भी किया है। लेकिन फिर भी छोटे से लेकर बड़े स्तर पर महिलाओं की योगयता को कम ही आंका जाता है। माना हमारे देश में अन्य देशों के मुकाबले महिलाओं को मतदान का अधिकार काफी पहले ही मिल गया था, लेकिन उसका स्वतंत्र प्रयोग करने की सामथ्र्य उसमें आज भी नहीं है। आज भी वह अपने परिवार, पिता या पति की इच्छानुसार ही मतदान करती है। यदि वह ऐसा न करे तो उनके आपसी रिश्तों में दरार आ जाती है। अपने परिवार में सौहार्द, शांति व प्रेम बनाए रखने के लिए वह खुशी-खुशी अपने इस अधिकार को भी त्याग देती है। इस तरह सभी क्षेत्रों में उन्हें मिली आजादी पर कोई न कोई प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रतिबंध लगा ही हुआ है, उन्हें आगे बढऩे के पर्याप्त अवसर नहीं उपलब्ध कराए जाते, तो ऐसे में किस मुंह से कहें कि आधुनिक महिलाएं पूरी तरह से स्वतंत्र हैं।

किसी भी देश के विकास में वहां की शिक्षित महिला का बहुत बड़ा योगदान होता है। एक शिक्षित महिला न केवल स्वयं को बल्कि अपने पूरे परिवार को शिक्षित करती है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि पिछले कुछ वर्षों में भारत में महिलाओं के शिक्षा स्तर में काफी सुधार हुआ है लेकिन फिर भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। माना दो दशक पहले की तुलना में आज की महिलाएं शिक्षा के प्रति कहीं ज्यादा जागरूक हैं। महिलाओं में शिक्षा का स्तर बढऩे से उनकी सोचने व समझने की क्षमता का विकास हुआ है लेकिन यह स्थिति शहरी महिलाओं की है। जबकि आज भी हमारे देश का ज्यादातर हिस्सा गांवों में बसता है। इन इलाकों में देश की ६० फीसदी महिलाएं रहती हैं, जिन्हें विकाास की परिभाषा तक मालूम नहीं है। शिक्षा के नाम पर इन महिलाओं में शायद कुछ ही कॉलेज क्या, स्कूल तक पहुंची हों। क्या विकासशी भारत की ये महिलाएं सच में आजाद हैं जिन्हें दो वक्त का खाना बनाने और घर के सदस्यों की देखभाल करने के अलावा और कुछ भी पता नहीं है। भारत के दूर-दराज के इलाकों की बात तो बहुत दूर है शहरी क्षेत्रों में भी लड़कियों को उच्च शिक्षा के लिए काफी पापड़ बेलने पड़ते हैं। शहरी क्षेत्रों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कि शिक्षा के मामले में बेटे व बेटियों में फर्क करते हैं। बेटों के लिए ऊंचे सपने देखते हैं तथा उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बड़े-बड़े स्कूलों में पढ़ाने के लिए जी-जान लगा देते हैं। जबकि लड़कियों को किसी भी सरकारी स्कूल में पढऩे के लिए भेज देते हैं, उन्हें इस बात से कोई सरोकार तक नहीं होता कि वहां पढ़ाई ठीक से हो रही है या नहीं। वे तो बस स्कूल में दाखिला कराकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। शहरी क्षेत्रों में चाहे महिलाएं कितनी ही आत्मनिर्भर दिखती हों लेकिन सच्चाई तो यह है कि शिक्षा, मान्यताओ, सोच व सामाजिक बंधनों के स्तर पर आज तक उन्हें आजादी नहीं मिल पाई है।

माना देश निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर होता जा रहा है। जहां महिलाओं को भी रोजगार के अवसर मिल रहे हैं लेकिन अब भी महिलाओं को उतने अधिकार नहीं मिल पाए हैं, जिनकी वह वास्तविक हकदार हैं। सामाजिक रूप से हम अभी भी काफी पिछड़े हुए हैं। आज भी देश में सिर्फ १३ फीसदी महिलाएं ही काम करती हैं उनमें भी ज्यादातर मामलों में वही स्त्रियां काम करती हैं, जिनकी पारिवारिक आय काफी कम हो। इनमें भी ज्यादातर महिलाएं निजी क्षेत्रों में काम करती हैं जहां आए दिन उनके अधिकारों का हनन होता है। किसी न किसी रूप में उनकी स्वतंत्रता बाधित होती है, आए दिन उन्हें किसी न किसी रूप में अपने स्त्री होने की कीमत चुकानी पड़ती है। यह देखने में आता है कि जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी है वहां पर महिलाओं के नौकरी या घर से बाहर काम करने का प्रतिशत भी कम है। कुल मिलाकर अब भी सामाजिक बंधनों के कारण महिलाएं चाहकर भी अपना योगदान आर्थिक विकास में नहीं दे पा रही हैं। हम चाहें कितनी भी आर्थिक आजादी की बातें कर लें पर जब तक महिलाओं के विकास व आजादी को लेकर खुलापन नहीं आएगा तब तक आर्थिक आजादी अधूरी नजर आती है। 

ऊपरी तौर पर देखने को मिलता है कि बड़े शहरों की महिलाओं को पूरी आजादी है। वह हर क्षेत्र में अपना कॅरियर बना रही हैं। लेकिन सच्चाई तो यह है कि निजी क्षेत्रों में महिलाएं केवल उनकी ब्रांड एम्बेसडर है। ब्रांड एम्बेसडर के रूप में उन्हें शोहरत तो मिल रही है लेकिन उनकी स्वतंत्रता की कीमत पर। ब्रांड एम्बेसडर बनी इन महिलाओं की निजी जिंदगी तक इनके मालिकों द्वारा संचालित होती है। ऐसे में आर्थिक रूप से स्वतंत्र होकर भी ये महिलाएं वास्तविक रूप से परतंत्र ही हैं।

आज हमारे देश में महिलाओं की आजादी को लेकर जो सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा हुआ है वह है महिलाओं की सुरक्षा को लेकर। आज हमारे देश में महिलाएं घर में ही सुरक्षित नहीं हैं। जीवन के हर मोड़ पर उनके जीवन पर खतरा मंडरा रहा है। कहीं वो अपनों का शिकार बनती है तो कहीं अनजाने लोगों का। पुलिस रिकॉर्ड में महिलाओं के खिलाफ  भारत में अपराधों का उच्च स्तर दिखाई पड़ता है। भारत के जनजातीय समाज में अन्य सभी जातीय समूहों की तुलना में पुरुषों का लिंगानुपात कम है। कई विशेषज्ञों ने माना है कि भारत में पुरुषों का उच्च स्तरीय लिंगानुपात कन्या शिशु हत्या और लिंग परीक्षण संबंधी गर्भपातों के लिए जिम्मेदार है। बेटे की चाह रखने वाले माता-पिता कन्या को जन्म से पहले ही इस दुनिया में आने से रोक देते हैं। जन्म से पहले अनचाही कन्या संतान से छुटकारा पाने के लिए इन परीक्षणों का उपयोग करने की घटनाओं के कारण बच्चे के लिंग निर्धारण में इस्तेमाल किए जा सकने वाले सभी चिकित्सकीय परीक्षणों पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन बावजूद इसके कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध नहीं रुक रहे हैं। इसके अलावा हमारे यहां दहेज परंपरा भी विद्यमान है, जिसकी वजह से कई महिलाओं का जीवन तो नर्क से भी बदतर हो गया है। दहेज परंपरा का दुरुपयोग लिंग-चयनात्मक गर्भपातों और कन्या शिशु हत्याओं के लिए मुख्य कारणों में से एक रहा है। घरेलू हिंसा भी हमारे समाज में काफी प्रचलित हैं, जहां हमारे देश की अबलाएं चुपचान पुरुष सत्तात्मक वातावरण के तहत बेरहम पुरुषों के अत्याचार सहने को विवश हैं। घरेलू हिंसा की घटनाएं निम्न स्तरीय सामाजिक-आर्थिक वर्गों में अधिक होती हैं। कई मामलों में तो दहेज प्रथा भी घरेलू हिंसा के मामलों को बढ़ावा देता है। जहां आज के आधुनिक युग में भी हमारी बेटियां या हमारे समाज की औरतें चुपचाप इतने अत्याचार सहने को विवश हैं तो ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि हमारे देश की आधुनिक महिलाएं स्वतंत्र हैं। क्या उनके ऊपर हो रहे ये अत्याचार किसी भी तरह से उनकी स्वतंत्रता की कहानी बयां करते हैं। हमारे देश को तो 15  अगस्त 1947 को आजादी मिल गई थी लेकिन हमारे देश की महिलाओं को आज भी आजादी का इंतजार है। उन्हें इंतजार है उस दिन का जब वह अपने घर और अपने आसपास की सभी जगहों पर सुरक्षित रह सकेंगी। उन्हें इंतजार है उस कल का जब पुुरुष उन्हें भी मनुष्य समझकर उनकी भावनाओं से खेलने व उन पर अत्याचार करने की बजाय उनको सम्मान देगा।

भले ही हम महिलाओं को अधिकार संपन्न व आधुनिक बनाने की कितनी ही बात कर लें पर सच्चाई तो यह है कि आज भी हमारे देश के अधिकांश भारतीय परिवारों में महिलाओं को उनके नाम पर कोई भी संपत्ति नहीं मिलती है और उन्हें पैतृक संपत्ति का हिस्सा भी नहीं मिलता। महिलाओं की सुरक्षा के कानूनों के कमजोर कार्यान्वयन के कारण उन्हें आज भी जमीन और संपत्ति में अपना अधिकार नहीं मिल पाता। वास्तव में जब जमीन और संपत्ति के अधिकारों की बात आती है तो कुछ कानून महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं। १९५६ के दशक के मध्य के हिन्दू पर्सनल लॉ (हिंदू, बौद्ध, सिखों और जैनों पर लिए लागू) ने महिलाओं को विरासत का अधिकार दिया। हालांकि बेटों को पैतृक संपत्ति में एक स्वतंत्र हिस्सेदारी मिलती थी जबकि बेटियों को अपने पिता से प्राप्त संपत्ति के आधार पर हिस्सेदारी दी जाती थी। इसलिए एक पिता अपनी बेटी को पैतृक संपत्ति में अपने हिस्से को छोड़कर उसे अपनी संपत्ति से प्रभावी ढंग से वंचित कर सकता था लेकिन बेटे को अपने स्वयं के अधिकार से अपनी हिस्सेदारी प्राप्त होती थी। इसके अतिरिक्त विवाहित बेटियों को, भले ही वह वैवाहिक उत्पीडऩ का सामना क्यों ना कर रही हों उसे पैतृक संपत्ति में कोई आवासीय अधिकार नहीं मिलता था। २००५ में हिंदू कानूनों में संशोधन के बाद महिलाओं को अब पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने के प्रावधान तो कर दिए गए हैं लेकिन फिर भी आज भी हमारे देश की महिलाएं अपने इस अधिकार के लिए भी जूझ रही हैं। विवाह के बाद संबंध विच्छेद की स्थिति में भी स्त्री को अपना हक लेने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ता है। आज भी वह आसानी से न पिता से और न पति से अपने अधिकार प्राप्त नहीं कर सकती।

आज के युग में भी महिलाओं की डगर काफी कठिन है। जहां हर कदम पर हमारे पुरुष प्रधान समाज की प्रताडऩा का उसे शिकार होना पड़ता है। हर बार पुरुष के अहं के आगे महिलाओं की आवाज व अधिकारों को बड़ी आसानी से कुचल दिया जाता है और वह चुपचाप अपने साथ दोहराई जाने वाली कहानी को सदियों से सहती आई है और न जाने कब तक सहती रहेगी।

आधुनिक महिलाओं की आजादी सिर्फ हमारे देश के संविधान के पृष्ठों में दर्ज होकर रह गई है। व्यावहारिक स्तर पर देखें तो वह आजादी आज भी महिलाओं से कोसों दूर है। महिलाओं को स्वतंत्र मानना केवल उनके साथ एक छलावा प्रपंच है, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। हिंदुस्तान की मां, बहन, बेटी, बहू और पत्नी भले ही आधुनिक हो गई हो पर स्वतंत्र नहीं हुई है, वह आज भी परतंत्रता की बेडिय़ों में ही जकड़ी हुई है।

लेखक परिचय 

लक्ष्मी अग्रवाल

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