लोकसभा चुनावों के मद्देनजर भाजपा आई चुनावी मोड में, कांग्रेस ने नहीं तोड़ा मौन!

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लिमटी खरे

इस साल अप्रैल अथवा मई माह में होने वाले आम चुनावों के मद्देनजर रण सज चुका है। सभी की नजरें निर्वाचन आयोग पर टिकी हैं, कि वह कब चुनावों की तारीख का ऐलान कर पाएगा। भाजपा से लेकर भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन जिसे इंडी एलाईंस भी कहा जाता है के द्वारा चुनावी तैयारियां आरंभ कर दी गई हैं। नरेंद्र मोदी सभाएं कर रहे हैं तो लालू यादव, अखिलेश यादव सहित अन्य नेता भी सभाओं में व्यस्त हैं, पर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकाुर्जन खड़गे उस तरह सक्रिय नजर नहीं आ रहे हैं जैसा आम चुनावों के एन पहले कांग्रेस अध्यक्ष को होना चाहिए।

भाजपा के द्वारा लोकसभा चुनावों के लिए 195 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर बाजी मार ली है। इधर कांग्रेस दो दिन बाद भी प्रत्याशियों की सूची तो छोड़िए अभी भी गठबंधन दलों के साथ सीट शेयरिंग पर ही सर जोड़े बैठी दिख रही है। होना तो यह चाहिए था कि सीटों के बटवारे के बारे में कांग्रेस को अपने सहयोगी दलों के साथ बैठक कर फरवरी के दूसरे पखवाड़े में ही सब कुछ तय कर उसे कागज पर ले लेना चाहिए था। इससे उलट कांग्रेस के गठबंधन दल ही कांग्रेस को आंखें दिखाते प्रतीत हो रहे हैं। इससे बड़ी बात क्या होगी कि अभी तक कांग्रेस चुनाव समिति की पहली बैठक भी नहीं हो पाई है।

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के सामने कांग्रेस कुछ मजबूर ही दिखी 400 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस के खाते में महज 17 सीट अर्थात सवा चार फीसदी सीटें लेकर ही कांग्रेस को संतुष्ट होना पड़ा। इस बारे में राहुल गांधी सहित कांग्रेस के आला नेताओं को विचार करना होगा कि आखिर क्या वजह है कि जिस प्रदेश में कांग्रेस की तूती बोला करती थी, जिस प्रदेश से कांग्रेस ने सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिए उस प्रदेश में महज सवा चार फीसदी सीटों को लेकर वह संतुष्ट हो गई। यह तब हुआ जब सोनिया गांधी की पुत्री प्रियंका वढ़ेरा खुद अपना पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर केंद्रित किए हुए थीं और उत्तर प्रदेश से सोनिया गांधी वर्तमान में सांसद हैं और राहुल गांधी इसके पहले सांसद रहे हैं।

निश्चित तौर पर इस तरह की स्थिति को देखकर खाटी कांग्रेसी नेताओं को मन में संताप होना स्वाभाविक ही है। कांग्रेस के रणनीतिकारों को विचार करना होगा कि आखिर वे क्या वजहें हैं जिनके कारण कांग्रेस आज इस स्थिति में पहुंची है। कहीं राहुल गांधी की किचिन कैबनेट ही तो उन्हें इस तरह के मशविरे तो नहीं दे रही है, जिसके चलते कांग्रेस बहुत तेजी से रसातल की ओर अग्रसर होती जा रही है।

किसी भी नेता को चाहिए कि अगर वह सफल होना चाहता है तो समय के साथ चले और जनता की नब्ज पहचाने। हर काम का समय निर्धारित होता है। इसी तरह चुनाव के एन पहले जनता को रिझाने का उपक्रम तेज गति से होना चाहिए। किसी ने सच ही कहा है कि मनुष्य किसी भी सामान्य घटना या बात को बहुत ज्यादा दिन तक याद नहीं रख पाता है। अमेरिका के हास्य अभिनेता और लेखक स्टीव मार्टिन का कहना था कि पब्लिक मेमेरी इस शार्ट। उनकी बात में दम है। हम अपने आसपास या देश विदेश की बड़ी बड़ी घटनाओं को आखिर कितने दिन याद रख पाते हैं, कितने दिन उस पर चर्चा करते हैं। अब कोविड को ही लीजिए तो कोरोना के बारे में महीने में एकाध बार ही आप बात करते होंगे जबकि अभी दो साल पहले ही कोविड दूर गया है। कुछ सालों बाद आप इसे भी भूल जाएंगे।

कांग्रेस के आला नेता किस रास्ते पर इसे ले जा रहे हैं यह बात तो वे ही जानें पर अगर 2024 में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा तो आने वाले सालों में कांग्रेस के लिए मुश्किलें बहुत तेजी से बढ़ भी सकती हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि राहुल गांधी 2029 का इंतजार कर रहे हैं। सवाल यही है कि 2024 में परीक्षा की तैयारी 2029 को लक्ष्य लेकर की जाए तो क्या यह तर्कसंगत होगा! जाहिर है नहीं, क्योंकि 2029 का सिलेबस कैसा होगा यह कहना मुश्किल ही है। कहने का तातपर्य यही है कि 2029 में युवा वोटर्स की तादाद बढ़ चुकी होगी और युवा वोटर्स के सामने कांग्रेस का प्रदर्शन क्या संकेत उनके मानस पटल पर अंकित करेगा।

इधर, भाजपा की तैयारियां देखिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 दिनों में 12 राज्यों का भ्रमण कार्यक्रम बना लिया है। वे तेलंगाना और तमिलनाडू में सभाएं कर चुके हैं। उन्होंने पिछली बार 2019 के आम चुनावों में पंच लाईन दी थी, ‘मैं भी हूं चौकीदार‘ . . .। विपक्ष के पास इसकी कोई काट नहीं थी। अब नरेंद्र मोदी ने नया नारा या पंच लाईन दी है, ‘मैं हूॅ मोदी का परिवार‘ . . .। इसके बाद विपक्ष की रणनीति क्या होगी पर धारा 370, जम्मू काश्मीर का मामला हो, राम मंदिर का मसला हो, हर मामले में नरेंद्र मोदी सरकार के कदमों से आम जनता का जुड़ाव भाजपा से हुआ है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।

फिलहाल भाजपा पूरी तरह चुनावी मोड में नजर आ रही है, पर विपक्ष की तैयारियों में कुछ कमी ही महसूस हो रही है। हालात देखकर यही प्रतीत हो रहा है कि आने वाले समय में विपक्ष के द्वारा एक बार फिर ईवीएम मशीन को पुरानी फिल्मों के विलेन के मानिंद जनता के समक्ष पेश करने की तैयारी पूरी कर ली गई है, वरना विपक्ष के इस तरह मंथर गति से चुनावी तैयारियों की दूसरी और क्या वजह हो सकती है!

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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