कैसे बनेगा समृद्ध भारत!

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लिमटी खरे

भारत गणराज्य में न्यायपालिका को सर्वोच्च दर्जा है किन्तु देश की सबसे बड़ी पंचायत द्वारा कानून कायदे बनाए जाते हैं। इनका पालन हो रहा है या नहीं इसके लिए न तो बड़ी पंचायत और ना ही उसमें बैठे पंच और सरपंच ही संजीदा हैं। बच्चों को निशुल्क शिक्षा दिलाने के लिए बनाया गया था शिक्षा का अधिकार कानून। आज शिक्षा का अधिकार कानून है देश भर में बेअसर ही साबित हो रहा है। हालात यह है कि आज भी गरीब गुरबे वंचित हैं स्कूल जाने से। आवश्यक्ता इस बात की है कि कानून बनाने के पहले उसका पालन सुनिश्चित करे सरकार। शिक्षा माफिया सहित हर क्षेत्र का माफिया इतना ताकतवर हो गया है कि कानून की सरेआम उडती धज्जियां और देश के शासक बेबस ही नजर आते हैं।

 

अशिक्षा आज भारत गणराज्य में नासूर बन चुकी है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली सवा सौ साल पुरानी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने अपने आप को आजादी के उपरांत खासा समृद्ध कर लिया है, पर आवाम ए हिन्द (भारत गणराज्य की जनता) का अधिक हिस्सा आज भी भुखमरी के आलम में अशिक्षित ही घूम रहा है। देश में सुरसा की तरह बढती मंहगाई पर से जनता जनार्दन का ध्यान भटकाने के लिए सरकारों द्वारा नए नए छुर्रे छोडे जाते हैं। इसी तारतम्य में कुछ सालों पूर्व देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया गया।

अप्रेल फूल यानी एक अप्रेल के दिन से भारत गणराज्य में लागू हुए शिक्षा के अधिकार कानून में भारत में छः से 14 साल तक के बच्चे को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून मे यह प्रावधान किया गया था कि शाला प्रबंधन इस बात को सुनिश्चित करे कि आर्थिक तौर पर कमजोर बच्चों को शाला की क्षमता के 25 फीसदी स्थान इन बच्चों को दिए जाएं। कमोबेश यही कानून चिकित्सा के क्षेत्र में चल रहे फाईव स्टार निजी अस्पतालों के लिए लागू किए गए थे। विडम्बना यह है कि देश में कानून तो बना दिए जाते हैं पर उनके पालन की सुध किसी को भी नहीं रहती है। राजधानी दिल्ली में ही सरकार से तमाम सुविधाएं लेने वाले फोर्टिस अस्पताल द्वारा पिछले पांच सालों में महज पांच गरीबों का ही निशुल्क इलाज किया। यह बात हम नहीं दिल्ली सरकार की स्वास्थ्य मंत्री किरण वालिया कह रहीं हैं वह भी विधानसभा पटल पर जानकारी रखते हुए। इसके उपरांत आज भी फोर्टिस अस्पताल सीना तानकर अमीरों और धनाड्यों की जेब तराशी कर रहा है, वह भी सरकारी सुविधाओं और सहायता को प्राप्त करने के साथ। कुछ दिनों पूर्व ही माननीय न्यायालय ने कहा था कि रियायती कीमत पर ली गई सरकारी जमीन को वापस करो फिर इलाज के पैसे लो। एक तरफ तो अस्पतालों द्वारा सरकार से रियायती मूल्य पर जमीन ली जाती है। उस वक्त बाण्ड भी भरा जाता है पर जब चिकित्सा की दुकान चल निकलती है तब वे सारे वायदे भुला बैठते हैं। जब देश के नीति निर्धारकों की जमात के स्थल पर ही इस तरह की व्यवस्थाएं फल फूल रही हों तब बाकी की कौन कहे। अभी से शिक्षा के कानून का यह आलम है तो आने वाले दिनों में अनिवार्य शिक्षा कानून की धज्जियां अगर उडती दिख जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

शिक्षा के अधिकार कानून की धारा 13 साफ तौर पर इस ओर इशारा करती है कि स्कूलों में अनिवार्य तौर पर 25 फीसदी सीट उन बच्चों के लिए आरक्षित रखी जाएं जो कमजोर वर्ग के हों। कानून की इस धारा का पहली मर्तबा उल्लंघन करने पर 25 हजार रूपए एवं उसके उपरांत हर बार पचास हजार रूपए के जुर्माने का प्रावधान है। शिक्षा के अधिकार का कानून तो लागू हो चुका है देश के गरीब गुरबों को कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी, वजीरे आजम डॉ.एम.एम.सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने एक सपना दिखा दिया है कि गरीबों के बच्चे भी अब कुलीन परिवार के लोगों के बच्चों, धनाडयों, नौकरशाहों, जनसेवकों के साहेबजादों, के साथ अच्छी स्तरीय शिक्षा ले सकते हैं।

शिक्षा आदि अनादिकाल से ही एक बुनियादी जरूरत समझी जाती रही है। पहले गुरूकुलों में बच्चों को व्यवहारिक शिक्षा देने की व्यवस्था थी, जो कालांतर में अव्यवहारिक शिक्षा प्रणाली में तब्दील हो गई। आजाद भारत में शासकों ने अपनी मर्जी से शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग करना आरंभ कर दिया। अब शिक्षा जरूरत के हिसाब से नहीं वरन् सत्ताधारी पार्टी के एजेंडे के हिसाब से तय की जाती है। कभी शिक्षा का भगवाकरण किया जाता है, तो कभी सामंती मानसिकता की छटा इसमें झलकने लगती है।

वर्तमान में अनिवार्य शिक्षा के कानून में 6 से 14 साल के बच्चे को अनिवार्य शिक्षा प्रवेश, पहली से आठवीं कक्षा तक अनुर्तीण करने पर प्रतिबंध, शारीरिक और मानसिक दण्ड पर प्रतिबंध, शिक्षकों को जनगणना, आपदा प्रबंधन और चुनाव को छोडकर अन्य बेगार के कामों में न उलझाने की शर्त, निजी शालाओं में केपीटेशन फीस पर प्रतिबंध, गैर अनुदान प्राप्त शालाओं के लिए अपने पडोस के मोहल्लों के न्यूनतम 25 फीसदी बच्चों को अनिवार्य तौर पर निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया गया है।

जिस तरह लोगों को आज इतने समय बाद भी रोजगार गारंटी कानून के बारे में जानकारी पूरी नहीं हो सकी है, उसी तरह आने वाले दिनों में अनिवार्य शिक्षा कानून टॉय टॉय फिस्स हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस नए कानून से किसी को राहत मिली हो या न मिली हो कम से कम गुरूजन तो मिठाई बांट ही रहे होंगे क्योंकि उन्हें शिक्षा से इतर बेगार के कामों में जो उलझाया जाता था, उससे उन्हें निजात मिल ही जाएगी। अब वे धूप में परिवार कल्याण और पल्स पोलियो जैसे अभियानों में चप्पल चटकाने से बच सकते हैं। लगता है अनिवार्य शिक्षा कानून का मसौदा केंद्र में बैठे मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली सहित अन्य महानगरों और बडे शहरों को ध्यान में रखकर बनाया है। इसमें शाला की क्षमता के न्यूनतम 25 फीसदी उन छात्रों को निशुल्क शिक्षा देने की बात कही गई है, जो गरीब हैं।

अगर देखा जाए तो मानक आधार पर कमोबेश हर शाला भले ही वह सरकारी हो या निजी क्षेत्र की उसमें बुनियादी सुविधाएं तो पहले दिन से ही और न्यूनतम अधोसंरचना विकास का काम तीन साल में उलब्ध कराना आवश्यक होता है। इसके अलावा पुरूष और महिला शिक्षक के लिए टीचर्स रूम, अलग अलग शौचालय, साफ पेयजल, खेल का मैदान, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, बाउंड्रीवाल और फंेसिंग, किचन शेड, स्वच्छ और हवादार वातावरण होना आवश्यक ही होता है। छात्रों के साथ शिक्षकों के अनुपात में अगर देखा जाए तो सीबीएसई के नियमों के हिसाब से एक कक्षा में चालीस से अधिक विद्याथियों को बिठाना गलत है, फिर भी सीबीएसई से एफीलेटिड शालाओं में सरेआम इन नियमों को तोडा जा रहा है। शिक्षकों के अनुपात मे मामले में अमूमन साठ तक दो, नब्बे तक तीन, 120 तक चार, 200 तक पांच शिक्षकों की आवश्यक्ता होती है।

अपने वेतन भत्ते और सुविधाओं में जनता के गाढे पसीने की कमाई खर्च कर सरकारी खजाना खाली करने वाले देश के जनसेवकों ने अब देश का भविष्य गढने की नई तकनीक इजाद की है। अब किराए के शिक्षक देश का भविष्य तय कर रहे हैं। कल तक पूर्णकालिक शिक्षकों का स्थान अब अंशकालीन और तदर्थ शिक्षकों ने ले लिया है। निजी स्कूल तो शिक्षकों का सरेआम शोषण कर रहे हैं। अनेक शालाएं एसी भी हैं, जहां शिक्षकों को महज 500 रूपए की पगार पाकर 2500 रूपए पर दस्तखत कर रहे हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि केंद्र की कांग्रेस नीत संप्रग सरकार द्वारा साठ के दशक के पहले राजकपूर अभिनीत चलचित्र सपनों के सौदागर की तरह सपने ही बचने पर आमदा है। इन सपनों को हकीकत में बदलने का उपक्रम कोई नहीं कर रहा है। दो वक्त की रोटी न मिल पाने के चलते फाका मस्ती में दिन गुजारने वाला आम हिन्दुस्तानी आज नजरें उठाकर अपने शासकों की तरफ देखने को मजबूर है। शासक हैं कि वे भारत गणराज्य की जनता को भुलावे में रखकर रोज नया सपना दिखा रहे हैं। आलम यह है कि भारत में आज किसी के तन पर कपडा नहीं है किसी के सर पर जमीन नहीं तो कोई रोटी के निवाले को तरह रहा है। इस सबसे शासकों और जनसेवकों को क्या लेना देना। जनसेवक तो अपनी मौज मस्ती में व्यस्त हैं, उनके वेतन भत्ते और सुख सुविधाओं में कहीं से कहीं तक कोई कमी नहीं है।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को शिक्षा का अधिकार का मशविरा देने वालों ने उन्हें देश की भयावह जमीनी हकीकत नहीं दिखाई होगी। आज भी देश में वर्ग और वर्णभेद उसी तरह हिलोरे मार रहा है जैसा कि आजादी के पहले था। आज अमीर का मित्र अमीर ही है, अमीर गरीब के बीच का फासला बहुत ही ज्यादा बढ चुका है। अमीर और अधिक अमीर होता जा रहा है तथा गरीब गुरबे की कमर टूटती ही जा रही है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई उद्योगपति, नौकरशाह, सांसद, विधायक, जनसेवक आदि यह बर्दाश्त कर सकता है कि उसके घर झाडू फटका करने या बर्तन मांझने वाले का कुलदीपक बाजू में बैठकर उसी शाला में पढे? जवाब नकारात्मक ही होगा। तब क्या नामी गिरामी दून, मेयो, मार्डन, डीपीएस आदि स्कूल में पढने वाले ‘‘बाबा साहब‘‘ अर्थात साहब बहादुरों के बच्चों को यह गवारा होगा कि उसके बाजू में बैठकर एक गरीब शिक्षा ग्रहण करे? ये सारी बातें फिल्मों में ही शोभा देती हैं जिसमंे अमीरी गरीबी को सगी बहनें जतलाकर इनके बीच के भेद को अंत में मिटा दिया जाता है।

शिक्षा के अधिकार कानून में अमीरी गरीबी के बीच की खाई के कारण होने वाली दिक्कत को अब मानव संसाधन विभाग द्वारा ‘‘व्यवहारिक कठिनाई‘‘ की संज्ञा देने की तैयारी की जा रही है। इस कानून के पालन में शालाओं विशेषकर निजी तौर पर शिक्षा माफियाआंे द्वारा संचालित शालाओं के संचालकों को बहुत ही अधिक ‘‘व्यवहारिक कठिनाई‘‘ का सामना करना पड रहा है। अनेक शिक्षण संस्थाओं के संचालकों ने इस ‘‘व्यवहारिक कठिनाई‘‘ के चलते अपनी शिकायत से मानव संसाधन विकास मंत्रलय को आवगत करा दिया गया है। गौरतलब है कि सरकारी तौर पर संचालित होने वाले नवोदय विद्यालय समिति द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता की दुहाई देते हुए शिक्षा के अधिकार कानून में छूट देने की मांग तक कर डाली है। इस समिति ने इस कानून को धता बताते हुए छटवीं कक्षा में नामांकन के लिए प्रतियोगी परीक्षा आहूत की थी। इस मामले में इस कानून का पालन सुनिश्चित करने वाली राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग संस्था ने इसे नोटिस भी जारी किया था। इस मामले में आगे नतीजा ढाक के तीन पात ही आने वाला है।

आरटीई की धारा 13 (1) में साफ किया गया है कि काई भी शाला या उसका प्रबंधन किसी भी विद्यार्थी से प्रवेश के दौरान या बाद में केपीटेशन फीस या प्रतियोगिता फीस की वसूली नहीं कर सकता है। बावजूद इसके देश भर में सुदूर अंचलों यहां तक कि जिला मुख्यालयों में संचालित होने वाली शालाएं न केवल केपीटेशन फीस ही वसूल कर रही हैं वरन् शिक्षा माफिया तो किसी दुकान विशेष से गणवेश, जूते, किताबें खरीदने के लिए बच्चों को बाध्य करने नहीं चूक रहे हैं। अनेक शालाओं में तो बाकायदा सूचना पटल पर केपीटेशन फीस के विवरण के साथ ही साथ यह भी चस्पा होता है कि किताबें किस दुकान से और गणवेश किस दुकान से खरीदना है। इतना ही नहीं सीबीएसई पाठ्यक्रम वाली शालाओं में एनसीईआरटी के बजाए निजी प्रकाशकों की किताबों को तवज्जो दी जाती है। मतलब साफ है कि एनसीईआरटी की किताबें बेहद सस्ती होती हैं, वहीं निजी प्रकाशक मंहगी किताबों को प्रचलन में लाकर शाला प्रबंधन को मोटा कमीशन जो थमा देते हैं।

शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी आज देश में न जाने कितने लाख बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। मंहगाई के इस दौर मंे पालकों पर फीस, यूनीफार्म, किताबों के बोझ के अलावा फिर केपीटेशन फीस का बोझ डाला जा रहा है। अमीरजादों के लिए यह सब करना आसान है, पर मरण तो गरीब गुरबों की ही है, जिनको ध्यान में रखकर इस कानून की नींव डाली गई थी। हमारा कहना महज इतना ही है कि सवा सौ साल राज कर लिया कांग्रेस ने, भारत गणराज्य के लोगों को जितना नारकीय जीवन भोगने पर मजबूर करना था कर लिया अब तो कम से कम इक्कसीवीं सदी में भारतीयों को आजाद कर दिया जाए। लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि इस परोक्ष गुलामी से बेहतर तो ब्रितानियों की गुलामी थी। कम से कम कर देने पर सुविधाएं तो मिल जाती थीं। शिक्षा का अधिकार कानून अस्तित्व में है पर किस काम का जब गरीब का बच्चा शिक्षा ही प्राप्त न कर सके। तो बेहतर होगा सोनिया गांधी जी आप भी जमीनी हकीकत से रूबरू हों और भारत गणराज्य की सवा करोड जनता को सपने न दिखाएं। कम से कम वे सपने जिन्हें देखने के बाद जब वे टूटें तो आम आदमी में जीने की ललक ही समाप्त हो जाए।

बहरहाल सरकार को चाहिए कि इस अनिवार्य शिक्षा कानून में संशोधन करे। इसमें भारतीय रेल, दिल्ली परिवहन निगम और महाराष्ट्र राज्य सडक परिवहन की तर्ज पर पैसेंजर फाल्ट सिस्टम लागू किया जाना चाहिए। जिस तरह इनमें सफर करने पर टिकिट लेने की जवाबदारी यात्री की ही होती है। चेकिंग के दौरान अगर टिकिट नहीं पाया गया तो यात्री पर भारी जुर्माना किया जाता है। उसी तर्ज पर हर बच्चे के अभिभावक की यह जवाबदारी सुनिश्चत की जाए कि उसका बच्चा स्कूल जाए यह उसकी जवाबदारी है। निरीक्षण के दौरान अगर पाया गया कि कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता है तो उसके अभिभावक पर भारी पेनाल्टी लगाई जानी चाहिए।

सरकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान, स्कूल चलें हम, मध्यान भोजन आदि योजनाओं पर अरबों खरबों रूपए व्यय किए जा चुके हैं, पर नतीजा सिफर ही है। निजाम अगर वाकई चाहते हैं कि उनकी रियाया पढी लिखी और समझदार हो तो इसके लिए उन्हें वातानुकूलित कमरों से अपने आप को निकालकर गांव की धूल में सनना होगा तभी अतुल्य भारत की असली तस्वीर से वे रूबरू हो सकेंगे। इसके लिए सरकार को कडे और अप्रिय फैसले लेने से भी नहीं हिचकना चाहिए। भव्य अट्टालिकाओं वाले निजी स्कूल में यह अवश्यक कर दिया जाए कि वे अपनी कुल क्षमता का पच्चीस फीसदी हिस्सा अनिवार्य तौर पर गरीब गुरबों के लिए न केवल सुरक्षित रखे वरन ढूंढ ढूंढ कर उन स्थानों को भरने के बाद अपने सूचना पटल पर अलग से इन लोगों की सूची भी चस्पा करे। अप्रिय और कडे कहने का तातपर्य यह है कि अधिकांश बडे स्कूल किसी ने किसी राजनेता के ही हैं या उनमें इनकी भागीदारी है। एसा करने से एक ओर जहां देश की आने वाली पीढी शिक्षित हो सकेगी वहीं दूसरी ओर जनसेवा का ढोंग करने वाले राजनेताओं के चेहरों से नकाब भी उतर सकेगा।

 

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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