विनोद बंसल
भारतीय गणतंत्र की 61वीं वर्षगांठ के ठीक एक दिन पूर्व हमारी सर्वोच्च न्यायालय ने मात्र चार दिन पूर्व स्वयं द्वारा सुनाए गए एक ऐतिहासिक निर्णय में बदलाव कर न सिर्फ अपने ही नियमों को नजरंदाज किया है बल्कि धर्मांतरण के संबंध में एक नई बहस का बीजा-रोपण भी किया है। संभवत यह अभूतपूर्व ही है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने किसी मुकदमे में अपने ही निर्णय को स्वेच्छा से संशोधित किया हो और उसका कोई कारण नहीं बताया गया हो।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने बाईस जनवरी 1999 को उडीसा के मनोहर पुर गांव में आस्ट्रेलियन मिशनरी ग्राहम स्टैन्स व उसके दो बच्चों को जिन्दा जलाए जाने के आरोप में रविन्द्र कुमार पाल (दारा सिंह) व महेन्द्र हम्ब्रम को आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए 21 जनवरी 2011 को कहा था कि फांसी की सजा दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में दी जाती है। और यह प्रत्येक मामले में तथ्यों और हालात पर निर्भर करती है। मौजूदा मामले में जुर्म भले ही कड़ी भर्त्सना के योग्य है। फिर भी यह दुर्लभतम मामले की श्रेणी में नहीं आता है। अत इसमें फांसी नहीं दी जा सकती। विद्वान न्यायाधीश जस्टिस पी सतशिवम और जस्टिस बी एस चौहान की बेंच ने अपने फैसले में यह भी कहा कि लोग ग्राहम स्टेंस को सबक सिखाना चाहते थे, क्योंकि वह उनके क्षेत्र में मतांतरण के काम में जुटा हुआ था। न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी भी व्यक्ति की आस्था और उसके विश्वास में हस्तक्षेप करना और इसके लिए बल, उत्तोजना या लालच का प्रयोग करना या किसी को यह झूठा विश्वास दिलाना कि उनका धर्म दूसरे से अच्छा है और ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हुए किसी व्यक्ति का मतांतरण करना (धर्म बदल देना) किसी भी आधार पर न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार के धर्मांतरण से हमारे समाज की उस संरचना पर चोट होती है, जिसकी रचना संविधान निर्माताओं ने की थी। किसी की आस्था को चोट पहुंचा कर जबरदस्ती धर्म बदलना या फिर यह दलील देना कि एक धर्म दूसरे से बेहतर है, उचित नहीं है।
उपरोक्त पंक्तियों को बदलते हुए न्यायालय ने कहा कि इन पक्तियों को इस प्रकार पढा जाए-”घटना को घटे बारह साल से अधिक समय बीत गया, हमारी राय और तत्थों के आलोक में उच्च न्यायालय द्वारा दी गई सजा को बढाने की कोई आवश्यकता नहीं है।” आगे के वाक्य को बदलते हुए माननीय न्यायालय ने कहा कि ”किसी भी व्यक्ति के धार्मिक विश्वास में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करना न्यायोचित नहीं है।”
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चार दिन के भीतर ही अपने निर्णय में स्वत संशोधन करते हुए निर्णय की कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों को हटा लिए जाने से कई प्रश्न उठ खडे हुए हैं। एक ओर जहां चर्च व तथा कथित सैक्यूलरवादियों का प्रभाव भारत की सर्वोच्च संस्थाओं पर स्पष्ट दिख रहा है। वहीं, भारत का गरीब बहुसंख्यक जन-जातीय समाज अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। मामले से संबन्धित पक्षकारों में से किसी भी पक्षकार के आग्रह के विना किये गए संशोधन को विधिवेत्ताा उच्चतम न्यायालय नियम 1966 के नियम 3 के आदेश संख्या 13 का उल्लंघन मानते हैं। साथ ही वे कहते हैं कि इससे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 362 का भी उल्लंघन होता है।
इस निर्णय ने एक बार फिर चर्च की काली करतूतों की कलई खोल कर रख दी है। विश्व में कौन नहीं जानता कि भारत की भोली-भाली जनता को जबरदस्ती अथवा बरगला कर उसका धर्म परिवर्तन कराने का कार्य ईसाई मिशनरी एक लम्बे समय से करते आ रहे हैं।
अभी हाल के दिनों की सिर्फ दो घटनाओं पर ही गौर करें तो भी हमें चर्च द्वारा प्रायोजित मतांतरण के पीछे छिपा वीभत्स सत्य का पता चल जाएगा । सन् 2008 में कर्नाटक के कुछ गिरजाघरों में हुईं तोड़-फोड़ की घटनाओं में ”सेकूलर” दलों और मीडिया ने संघ परिवार और भाजपा की नवनिर्वाचित प्रदेश सरकार को दोषी ठहराने का भरसक प्रयास किया था। किन्तु, न्यायाधीश सोम शेखर की अध्यक्षता में गठित न्यायिक अधिकरण्ा द्वारा अभी हाल ही में सौंपी रिपोर्ट स्पष्ट कहती है कि ये घटनाएं इसलिए घटीं, क्योंकि ईसाई मत के कुछ संप्रदायों ने हिंदू देवी-देवताओं के संदर्भ में अपमानजनक साहित्य वितरण किया था। तथा इस भड़काऊ साहित्य का मकसद हिंदुओं में अपने धर्म के प्रति विरक्ति पैदा करना था। मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए 14 अप्रैल, 1955 को तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुति में मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालना और उन पर पाबंदी लगाने की बात प्रमुख थी। बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रध्दा, अनुभव हीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए न हो। बाद में देश के कई अन्य भागों में गठित समितियों ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित ठहराया। जस्टिस नियोगी आयोग की रिपोर्ट, डीपी वाधवा आयोग की रिपोर्ट तथा कंधमाल में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद बनाए गए जस्टिस एससी महापात्रा आयोग की रिपोर्ट के साथ और कितने ही प्रमाण चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं कि इस आर्यवर्त को अनार्य बनाने में चर्च किस प्रकार संलग्न है।
इस प्रकार, विविध न्यायालयों व समय समय पर गठित अनेक जांच आयोगों व न्यायाधिकरणों ने स्पष्ट कहा है कि अनाप- सनाप आ रहे विदेशी धन के बल-बूते पर चर्च दलितों-वचितों व आदिवासियों के बीच छल-फरेब से ईसाइयत के प्रचार-प्रसार में संलग्न है। उनकी इस अनुचित कार्यशैली पर जब-जब भी प्रश्न खडे किए जाते हैं, चर्च और उसके समर्थक सेकुलरबादी उपासना की स्वतंत्रता का शोर मचाने लगते हैं। आखिर उपासना के अधिकार के नाम पर लालच और धोखे से किसी को धर्म परिवर्तन की छूट कैसे दी जा सकती है। यदि देह व्यापार अनैतिक है तो आत्मा का व्यापार तो और भी घृणित तथा सर्वथा निंदनीय है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाधी तथा डॉ. भीमराव अंबेडकर सहित अनेक महापुरुषों ने धर्मांतरण को समाज के लिए एक अभिशाप माना है। गांधीजी ने तो बाल्यावस्था में ही स्कूलों के बाहर मिशनरियों को हिंदू देवी-देवताओं को गालियां देते सुना था। उन्होंने चर्च के मतप्रचार पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा था- श्श्यदि वे पूरी तरह से मानवीय कार्य और गरीबों की सेवा करने के बजाय डॉक्टरी सहायता व शिक्षा आदि के द्वारा धर्म परिवर्तन करेंगे तो मैं उन्हें निश्चय ही चले जाने को कहूंगा। प्रत्येक राष्ट्र का धर्म अन्य किसी राष्ट्र के धर्म के समान ही श्रेष्ठ है। निश्चय ही भारत का धर्म यहां के लोगों के लिए पर्याप्त है। हमें धर्म परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है।श्श् एक अन्य प्रश्न के उत्तार में गांधी जी ने कहा था कि श्श्अगर सत्ताा मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं मतांतरण का यह सारा खेल ही बंद करा दूं। मिशनरियों के प्रवेश से उन हिंदू परिवारों में, जहां मिशनरी पैठ है, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खानपान तक में अंतर आ गया है।श्श् इस संदर्भ में डॉ. अंबेडकर ने कहा था, श्श्यह एक भयानक सत्य है कि ईसाई बनने से अराष्ट्रीय होते हैं। साथ ही यह भी तथ्य है कि ईसाइयत, मतांतरण के बाद भी जातिवाद नहीं मिटा सकती।श्श् स्वामी विवेकानद ने मतांतरण पर चेताते हुए कहा था श्श्जब हिंदू समाज का एक सदस्य मतांतरण करता है तो समाज की एक संख्या कम नहीं होती, बल्कि हिंदू समाज का एक शत्रु बढ़ जाता है।श् यह भी सत्य है कि जहां-जहां इनकी संख्या बढी, उपद्रव प्रारंभ हो गये। पूर्वोत्तार के राज्य इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वर्ष 2008 में उडीसा के कंधमाल में हुई स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की हत्या, तथा आज मणिपुर, नागालैंड, असम आदि राज्यों में मिशनरियों द्वारा अपना संख्याबल बढ़ाने के नाम पर जो खूनी खेल खेला जा रहा है वह सब इस बात का प्रत्यक्ष गवाह है कि भारत की आत्मा को बदलने का कार्य कितनी तेजी के साथ हो रहा है।
यदि हम आंकडों पर गौर करें तो पायेंगे कि उडीसा के सुन्दरगढ, क्योंझार व मयूरभंज जिलों की ईसाई आबादी वर्ष 1961 की जनगणना के आकडों के अनुसार क्रमशरू 106300, 820 व 870 थी जो वर्ष 2001 में बढ कर 308476, 6144 व 9120 हो गई। यदि इसी क्षेत्र की जनसंख्या ब्रध्दि दर की बात करें तो पाएंगे कि वर्ष 1961 की तुलना में जहां ईसाई जनसंख्या तीन से दस गुनी तक बढी है वहीं हिन्दु बाहुल्य इन तीन जिलों में हिन्दुओं की जनसंख्या गत चालीस वर्षों में मात्र कहीं दुगुनी तो कहीं तिगुनी ही हुई है। क्या ये आंकडे किसी भी जागरूक नागरिक की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? आज चर्च का पूरा जोर अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने पर लगा हुआ है। इस कारण देश के कई राज्यों में ईसाइयों एवं बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। मतांतरण की गतिविधियों के चलते करोड़ों अनुसूचित जाति से ईसाई बने बन्धुओं का जीवन चर्च के अंदर ही नर्क बन गया है। चर्च लगातार यह दावा भी करता आ रहा है कि वह देश में लाखों सेवा कार्य चला रहा है, लेकिन उसे इसका भी उत्तार ढूंढ़ना होगा कि सेवा कार्य चलाने के बावजूद भारतीयों के एक बड़े हिस्से में उसके प्रति इतनी नफरत क्यों है कि 30 सालों तक सेवा कार्य का दाबा करने वाले ग्राहम स्टेंस को एक भीड़ जिंदा जला देती है और उसके पंथ-प्रचारकों के साथ भी अक्सर टकराव होता रहता है। ऐसा क्यों हो रहा है? इसका उत्तार तो चर्च को ही ढूंढ़ना होगा। क्या छलकपट और फरेब के बल पर मत परिर्वतन की अनुमति देकर कोई समाज अपने आप को नैतिक और सभ्य कहला सकता है?
किन्तु अब एक अहम प्रश्न यह है कि आखिर कब तक हम, हमारी सरकारें और मजबूत लोकतंत्र के अन्य प्रहरी धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण की ओर बढते इस षढयंत्र पूर्वक चालाए जा रहे अभियान को यूं ही चलने देंगे और अपनी आत्मा के साथ खिलवाड को सहन करते रहेंगे। वर्तमान परिपेक्ष में किसी राजनेता से तो इस सम्बन्ध में आशा करना बेमानी सी बात लगती है। हां, न्याय की देवी के आंखों की पट्टी यदि खुल जाए तो शायद मेरे भोले भाले वनवासी, गिरिवासी व गरीब भरतवंशी का भाग्योदय संभव है।
शैलेन्द्र जी आपके द्वारा उदाहरण सहित दिया गया उत्तर सच में प्रशंसनीय है| मै आपसे पूर्णत: सहमत हूँ|
@ r.singh jee भारत में कुछ समय पहले एक एमवे नाम की कंपनी आयी यह कंपनी दुनिया में उपभोक्ता सामान पर शोध करने वाली सबसे बड़ी और उपभोक्ता सामान की बिक्री करने वाली विश्व की ५ कंपनियों में शामिल है इस कंपनी ने अपने सामान को बेचने के लिए भारत के शिक्षित बेरोजगारों को अपना शिकार बनाया और उन्हें एक कुछ ही सालों में करोडपति बनने का सपना दिखाया इसके लिए उन्होंने बड़े बड़े सेमिनार किये और युवाओं को समझाया कि यदि कंपनी वो कुछ सदस्यता शुल्क देकर उनके साथ जुड़ जाये और ३ या ज्यादा लोगो को अपने साथ जोड़े और वो सभी अपने बाद ऐसा ही करे तो वो एक चेन बना लेंगे, इन सभी लोगो को कंपनी के प्रोडक्ट खरीद कर इस्तेमाल करने होंगे या अपने परिचितों को बेचने होंगे इससे इन्हें कंपनी की तरफ से एक बड़ी राशि कमीशन के रूप में मासिक मिलेगी और कुछ नए लोगो के चेन में शामिल होने पर भी, इसके लिए कंपनी ने कुछ भारतीय लोगो को ही यह कहकर प्रस्तुत किया कि ये कुछ ही समय पहले कंपनी से जुड़े और आज करोडपति हो गए है मेरे कई मित्र इससे जुड़ गए उन्होंने ३ क्या ५० से ज्यादा लोगो को इससे जोड़ा मेरे ऊपर भी कई बार कई तरह से दबाव डाला गया इन सभी ने अपने युवावस्था के ५ से १० साल इसके ऊपर खर्च कर दिए लेकिन आज पहले से भी बुरी स्थिति में है कुछ ने कंपनी को छोड़ दिया लेकिन कुछ आज भी उसे छोड़ नहीं पाए है और मिलने पर बताते है कि वो कंपनी से अब भी जुड़े हुए है और खुश भी है लेकिन अब उसको ज्यादा समय नहीं दे पाते क्योंकि उन्होंने अब कुछ और काम-धंधा भी शुरू कर दिया है
ये वही लोग है जो कहते थे कि अगर आपने इस कंपनी को ज्वाइन नहीं किया तो आप मूर्ख है और कहते थे कि एमवे ज्वाइन करने के बाद आपको कुछ और करने कि जरूरत नहीं
इसी तरह ईसाई संस्थाएं कुछ आदिवासियों को संपन्न दिखाकर गरीब और बेरोजगार ग्रामीणों और आदिवासियों को लुभा रही है और धर्मान्तरित आदिवासियों का इस्तेमाल नए सदस्यों को जोड़ने में कर रही है जबकि ये तथ्य है कि देश के ९५% धर्मान्तरित दलितों और आदिवासियों कि सामाजिक और आर्थिक स्थिति आज भी वही है कुछ निराश होकर आपने मूल धर्म में लौट रहे है और कुछ आज भी लौटने में असुविधा महसूस कर रहे है क्योंकि उन्होंने पहले अपने नए धर्म का महिमामंडन और और मूल धर्म की जबरदस्त आलोचना की थी इसलिए अपने को ठगा हुआ महसूस करने के बाद भी वो सच्चाई स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए है
धर्म परिवर्तन के लिए अगर इसाई मिस्नारियां तरह तरह के हथ कंडे अपनाती है तो उनके खिलाफ कुछ करना गुनाह नहीं कहा जा सकता,पर वह कुछ करना किसी की जान लेने की इज्जाजत तो नहीं देता.आपने अपने लेख में महात्मा गांधी का हवाला दिया है.क्या गाँधी दारा सिंह को कभी भी ठीक कहते? मैंने एक बार पहले भी अपना अनुभव इन इसाई मिस्नरियों के बारे में बयान किया था.आज भी मैं कहता हूँ की जन जातियों और अन्य लोगों को ख़ास कर समाज के निम्न वर्ग के लोगों का इन मिस्सिनरियों की तरफ खिचाओं का कारन केवल छल बल प्रयोग ही नहीं है.उन्होंने बीहड़ इलाकों में पहुच कर काम भी किया है.हम जिनको हमेशा अपने से अलग और अछूत मानते रहे हैं उनको उन्होंने अपने साथ तो लिया है.आर.एस.एस ने जबसे इन इलाकों में काम करना शुरू किया है तब से कुछ बदलाव भी आया है.आवश्यकता है इन इलाकों में जाकर काम करने की और उनको अपने साथ लेने की.दूसरे के क्रिया कलापों पर केवल टिक्का टिपण्णी करने और उनके कामों में दोष निकालने से कोई लाभ नहीं. ह्त्या जैसे जघन्न अपराध की तो स्वीकृति कदापि नहीं दी जा सकती.