“संसार की आदि भाषा संस्कृत कैसे अस्तित्व में आई”

0
205

मनमोहन कुमार आर्य

संसार में अनेक भाषायें हैं। सबका अपना अपना इतिहास है। कोई भाषा अपनी पूर्ववर्ती किसी भाषा का विकार है व वह उसमें सुधार होकर बनी है तो कोई भाषा अनेक भाषाओं से शब्दों को लेकर व अन्य अनेक भौगोलिक आदि कारणों से अस्तित्व में आईं हैं। संस्कृत भाषा की बात करें तो यह भाषा संसार की आदि भाषा होने से सबसे प्राचीन है और अन्य सब भाषाओं की जननी भी हैं। भाषा का सम्बन्ध ज्ञान से होता है। भाषा है तो ज्ञान है और ज्ञान का आधार भाषा ही होती है। भाषा और ज्ञान दोनों मनुष्य के आविष्कार न होकर यह दोनों उसको परमात्मा से ही मिलते हैं। यदि परमात्मा से मिले हैं तो परमात्मा को इनका ज्ञान अवश्य होगा। इसका उत्तर हां में मिलता है। परमात्मा की प्रमुख रचना यह सृष्टि या ब्रह्माण्ड है। यह ज्ञान व विज्ञान के नियमों के आधार पर परमात्मा ने बनाया है। इससे सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता व पालनकर्ता ज्ञानस्वरूप परमात्मा ही सिद्ध होता है। परमात्मा का एक नाम अग्नि है जिसके अर्थ ज्ञानस्वरूप व प्रकाशस्वरूप आदि हैं। यदि परमात्मा ज्ञानस्वरूप है तो उसकी भाषा अवश्य ही होगी। इस चर्चा से यह सिद्ध होता है कि परमात्म ज्ञानी है और उसकी भाषा भी है। वह भाषा कौन सी है? इसका उत्तर यह है कि संसार में ज्ञान की आदि व प्रथम पुस्तक का पता किया जाये। जो संसार की आदि पुस्तक है, उसके यदि सभी सिद्धान्त सृष्टिक्रम के अनुकूल हैं तो वह अवश्य ईश्वरीय ज्ञान होगा और उसकी भाषा भी ईश्वरीय ही होगी। इसका कारण यह है कि संसार के आदिकाल में जब ईश्वर से मनुष्य सृष्टि हुई तो परमात्मा का यह कर्तव्य था कि वह मनुष्य को, मनुष्य शरीर, ज्ञान व कर्मेन्द्रियां, मन, बुंद्धि, चित्त एवं अहंकार आदि उपकरणों को प्रदान करने साथ सत्य ज्ञान व भाषा भी प्रदान करे। परमात्मा ने हमारे मानव शरीर को बनाकर हमें दिया है देता आ रहा है। इसी प्रकार से उसका यह कर्तव्य था कि वह आदि मनुष्यों को अन्य सभी शारीरिक उपकरणों सहित ज्ञान व भाषा से भी युक्त करता। यदि हम यह कहते हैं कि परमात्मा ने आदि मनुष्यों को ज्ञान दिया था तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि परमात्मा ने ज्ञान के साथ भाषा भी दी थी। हमारे अध्यापक या माता-पिता हमें जो बातें सिखाते हैं अथवा हमें जो ज्ञान देते हैं वह अपनी ही भाषा में देते हैं। ज्ञान के साथ भाषा जुड़ी हुई है। बिना भाषा के ज्ञान का अस्तित्व नहीं होता। अतः सृष्टि की आदि में जो भाषा थी वही ईश्वर की भाषा सिद्ध होती है और संसार में जो सबसे प्राचीन वेदों का ज्ञान है वह भी ईश्वर से मिला हुआ होना सिद्ध होता है। परीक्षा कर प्राचीनतम ज्ञान व भाषा के ईश्वरोक्त होने की पुष्टि की जा सकती है। महर्षि दयानन्द एक असाधारण, उच्च कोटि के विद्वान व ऋषि थे। वह योगी थे और  ईश्वर का साक्षात्कार भी उन्हें हुआ था। उनको ईश्वर का साक्षात्कार होने का अनुमान उनके ज्ञान व कर्मों सहित उनके ग्रन्थों में उपलब्ध कथनों के आधार पर किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने अपने अध्ययन, पुरुषार्थ एवं अनुभव से इस रहस्य का पता लगाया था कि सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को एक-एक वेद का अर्थ सहित ज्ञान उनकी आत्माओं में प्रेरणा करके प्रदान किया था। यह चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद हैं। इनकी भाषा संस्कृत है। यह अत्यन्त उत्कृष्ट व दैवीय भाषा है। इस भाषा को मनुष्य कदापि नहीं बना सकते। इसका ईश्वर से मिलना सुनिश्चित एवं तर्कपूर्ण सिद्धान्त है। हम कल्पना कर सकते हैं कि आदि मनुष्यों को यदि परमात्मा ज्ञान न देता तो आदि मनुष्य मूक, बधिर, ज्ञान व भाषा से हीन तथा पशुओं के समान होते। सभी पशुओं एवं मनुष्येतर प्राणियों के पास अपने जीवन का निर्वाह करने के लिये आवश्यक स्वाभाविक ज्ञान होता है परन्तु मनुष्य के बच्चे में वह ज्ञान नहीं होता। किसी पशु को, चाहे राजस्थान की भूमि जहां जल उपलब्ध नहीं होता, पानी में डाल दिया जाये तो वह तैरने लगता है परन्तु समुद्र या किसी नदी के किनारे उत्पन्न मनुष्य का बच्चा पानी में डालने पर तैरता नहीं अपितु डूब जाता है। मनुष्य के बच्चों को तैरने का स्वाभाविक ज्ञान नहीं है। मनुष्य के बच्चे को सब बातें माता-पिता व गुरुजनों को सिखानी पड़ती हैं जबकि पशु व पक्षी जन्म के कुछ ही दिनों में इस योग्य हो जाते हैं कि वह जलना-फिरना व उड़ना सीख जाते हैं और अपने भोजन को प्राप्त करने व खाद्य व अखाद्य पदार्थों का ज्ञान भी उन्हें ईश्वर उनके स्वभाव में ही प्रदान करता है। उन्हें किसी स्कूल व पाठशाला में किसी आचार्य के पास ज्ञान प्राप्ति व कुछ सीखने के लिये जाने की आवश्यकता नहीं होती।    भाषा के बारे में हम विचार करते हैं कि यदि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने मनुष्यों को युवा उत्पन्न किया और उन्हें भाषा व ज्ञान नहीं दिया तो क्या वह स्वमेव कोई भाषा बना सकते थे? परमात्मा से यदि आदि मनुष्यों को भाषा का ज्ञान नहीं मिलता तो इसका अर्थ हुआ कि आदि मनुष्यों को किसी भी भाषा का किंचित ज्ञान नहीं था। जिस व्यक्ति को किसी अक्षर व शब्द का ज्ञान नहीं है, क्या वह भाषा का निर्माण कर सकता है? विचार, चिन्तन व विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसा मनुष्य जिसे किसी अक्षर व शब्द का ज्ञान नहीं है वह न तो अक्षरों का निर्धारण कर सकता है और न ही बिना अक्षरों के ज्ञान के शब्दोच्चार कर शब्द की रचना व उनके अर्थ व भावों को निश्चित कर सकता है। वेद जैसी भाषा तो वह तीन कालों में कभी नहीं बना सकता। आज भी वेदों की भाषा को जानना, सीखना व उसका व्यवहार करना आसान काम नहीं है। यह तब है कि जब हम पहले से ही कई भाषाओं के विषय में जानते हैं। अतः सृष्टि के आरम्भ काल में आदि मनुष्यों द्वारा भाषा की उत्पत्ति व रचना सम्भव कोटि में नहीं आती। भाषा व ज्ञान ईश्वर से ही मिलता है जैसे की ईश्वर से हमें यह सृष्टि, इसके समस्त पदार्थ व मनुष्य जन्म मिला है। चारों वेदों व इनकी भाषा की परीक्षा करने पर वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है और वेदों की भाषा संस्कृत ईश्वरीय भाषा सिद्ध होती है। अपने मत की न्यूनताओं व हित-अहित के कारण कोई मतावलम्बी इस सिद्धान्त को भले ही न मानें परन्तु यह सिद्धान्त सत्य सिद्धान्त है। वेदों की परीक्षा करने पर यह ज्ञात होता है कि आदि काल में प्राप्त हुए वेद ज्ञान में सभी बातें व नियम इस संसार में घट रहे थे, आज भी घट रहे हैं व जो कर्तव्य वेदों में बातें गये हैं वह मानवता पर आधारित व मनुष्यों सुख प्रदान करने वाले तथा उत्कृष्ट सिद्धान्त हैं। सत्य को स्वीकार करना और असत्य का त्याग करना मनुष्यों का परम कर्तव्य है। जो मनुष्य अपने हित-अहित के अनुसार सत्य को स्वीकार नहीं करते, ऐसे मनुष्यों व पशुओं में अधिक अन्तर नहीं कहा जा सकता। ऐसे व्यक्ति को विद्वानों ने पशुओं का बड़ा भाई कहा है।यह जान लेने पर की वेद ईश्वरीय ज्ञान है तथा वेदों की भाषा संस्कृत ईश्वरीय भाषा है, हमें इनके अध्ययन व प्रचार प्रसार पर ध्यान देना चाहिये। यह मनुष्य का कर्तव्य व धर्म दोनों है। ईश्वर ने जो ज्ञान हमारे पूर्वज चार ऋषियों को दिया था उन्होंने उसे सुरक्षित रखते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया है। हमारा भी कर्तव्य है कि हम भी उस ज्ञान को विलुप्त न होने दें अपितु उसकी रक्षा करते हुए उसे स्वयं सीखे और अपनी भावी सन्ततियों को प्रदान करें। यदि हम ऐसा करते हैं तो हमारा यह जीवन व परजन्म भी सुखों से युक्त व दुःखों से रहित होगा। वेद ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान है और वेद भाषा ईश्वरीय भाषा है। यह दोनों सृष्टि के आरम्भ में हमारे पूर्वज ऋषियों को सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी ईश्वर से अर्थ सहित प्राप्त हुए थे। उन्हीं से परम्परा आरम्भ होकर यह हमें प्राप्त हुए हैं। हमारा भी कर्तव्य है कि हम इस महनीय महान परम्परा को सुरक्षित रखते हुए आगे बढ़ायें जिससे आने वाली भावी पीढ़ियां लाभान्वित हो सकें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,739 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress