मनुष्य को सुख ईश्वर की भक्ति व सत्कर्मों से ही मिलता है

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मनमोहन कुमार आर्य

                हमें जो सुख दुःख की अनुभूति होती है वह शरीर इन्द्रियों के द्वारा हमारी आत्मा को होती है। आत्मा चेतन पदार्थ होने से ही सुख दुःख की अनुभूति करता है। प्रकृति सृष्टि जड़ सत्तायें हैं। इनको किसी प्रकार की अनुभूतियां वा सुख दुःख नहीं होते। आत्मा से इतर परमात्मा की सत्ता है। परमात्मा सत्य, चेतन एवं आनन्दस्वरूप है। परमात्मा अनादि, नित्य एवं सर्वज्ञ भी है। इसके विपरीत हमारी आत्मा सत्य, चेतन, अनादि नित्य होने सहित अल्पज्ञ, एकदेशी ससीम सत्ता है। सुख का आधार ज्ञान उसके अनुरूप कर्म भी होते हैं।  परमात्मा सर्वज्ञ अर्थात् सर्वज्ञानमय होने सहित शरीर से रहित होने के कारण सभी प्रकार के सुख व दुःखों से मुक्त है। मनुष्य को शरीर में रहकर शरीर द्वारा जो सुख व दुःख होते हैं वैसे परमात्मा में नहीं होते। वेदों में ईश्वर को नस, नाड़ी तथा शरीर आदि के बन्धनों से रहित अजन्मा बताया गया है। वेद ईश्वर का ही दिया हुआ ज्ञान है। इस कारण वेदों से ईश्वर सहित सभी पदार्थों का यथार्थ, निर्भ्रांत व सत्य-सत्य ज्ञान प्राप्त होता है। सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ एवं शरीर रहित होने से ईश्वर सब सुखों, ज्ञान तथा आनन्द का भण्डार है। हमें ज्ञान प्राप्ति सहित सुखों की प्राप्ति के लिये भी ईश्वर की शरण को प्राप्त होना होता है। ईश्वर को प्राप्त होकर हम उसकी शिक्षा के अनुसार धर्म पालन करते हुए ज्ञान व सुखों को प्राप्त होते हैं। ज्ञान व सुख प्राप्ति को ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य कहा जा सकता है। ज्ञान से ही हम दुःखों सहित आवागमन के दुःखों से मुक्त होकर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होकर ईश्वर के परमानन्दस्वरूप में स्थित होकर आनन्द का भोग करते हैं। ज्ञान व ज्ञानानुरूप कर्मों से मनुष्य को मुक्ति व मोक्ष प्राप्त होता है जो मनुष्य को सर्वोत्तम सुख व सभी प्रकार के दुःखों से सर्वथा रहित आनन्द को प्राप्त कराता है। इसी बात को तर्क एवं युक्ति से दर्शन आदि ग्रन्थों में हमारे तत्वेत्ता विद्वान ऋषियों ने प्रामाणित व सिद्ध किया है। अतः सुख के अभिलाषी सभी मनुष्यों को जन्म व मरण के बन्धन व दुःखों से मुक्त होने के लिये स्वाध्याय सहित ईश्वर की भक्ति व उपासना करनी चाहिये। यही मनुष्य जीवन की सफलता सहित उन्नति व सुख के आधार हैं। इसको गहनता से जानने के लिये हमें सत्यार्थप्रकाश सहित दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये।

                ईश्वर की भक्ति उपासना करने से मनुष्य को सुख मिलता है। अतः इस कारण तो भक्ति करनी ही चाहिये। इसके अतिरिक्त हमें ईश्वर के अनादि काल से हम पर जो उपकार हैं उसका भी हमें ध्यान चिन्तन करना चाहिये। हमें यह मनुष्य जन्म परमात्मा ने ही दिया है। इस सृष्टि को भी परमात्मा ने हम जैसे जीवों के लिए उन्हें सुख प्रदान करने के लिये बनाया है। यदि परमात्मा सृष्टि बनाकर हमें सुख देने वाले अन्नादि पदार्थ बनाता और हमें जन्म देता तो हमें सुख प्राप्त होते। ईश्वर ने हम पर यह उपकार केवल इसी जन्म में नहीं किया है अपितु वह ऐसे उपकार इससे पूर्व हमारे हुए अनन्त जन्मों से करता रहा है। आगे भी करेगा। हमारा शरीर कितना मूल्यवान है उसका ज्ञान तब होता है जब हमारी ही किसी अज्ञानता के कारण किसी अंग में दोष आने पर हम चिकित्सकों के पास जाते हैं और अपना समस्त धन देकर भी उसे पूर्ण स्वस्थ करने में सफल नहीं होते। हमारे इस शरीर का हम मूल्य निश्चित नहीं कर सकते। किसी मनुष्य को एक आंख, गुर्दा या लीवर ट्रांसप्लान्ट वा स्थापित कराना हो तो वह लाखों रुपये में भी सरलता से सम्भव नहीं होता और यदि होता भी है तो इसकी क्षमता मूल अंग के समान हितकारी व सुखदायक नहीं होती। अतः ईश्वर के उपकारों का चिन्तन करके हमें उसकी स्तुति के स्तोत्र व गीत गाने चाहिये। वेदों में ऐसे मन्त्र विद्यमान हैं जिनसे जो उत्तम स्तुति होती है वह अन्यथा नहीं हो पाती। इसके लिये हम यजुर्वेद का एक मन्त्र 30.3 प्रस्तुत कर रहे हैं। मन्त्र हैः

                ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।

            यद् भद्रन्तन्न आसुव।।

                इस मन्त्र का ऋषि दयानन्द जी का किया हुआ अर्थ है कि हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको अर्थात् स्तोता को प्राप्त कीजिए। इस प्रकार के सहस्रों स्तुतिवचन प्राथनायें हमें वेदों से प्राप्त होती हैं। ऐसी स्तुतियां प्रार्थनायें संसार में मनुष्यकृत ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होती हैं। हमें सुख व ज्ञान की प्राप्ति सहित भौतिक पदार्थों के लिये भी ईश्वर के शरणागत होना चाहिये और ईश्वर की स्तुति करने सहित पुरुषार्थ से इन सभी को प्राप्त करना चाहिये।

                सुखों की प्राप्ति का एक साधन यम नियमों का पालन भी होता है। यम नियम योग दर्शन में अष्टांग योग के प्रथम दूसरे सोपान हैं। इनके पालन से ही योग में प्रवेश किया जा सकता है। जो मनुष्य यम नियमों का पालन नहीं करते वह योगी कदापि नहीं हो सकते। यम अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह को कहते हैं। नियम शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान को कहते हैं। इनका पालन करने से भी मनुष्य स्वस्थ एवं सुखी होते हैं। ऐसा करते हुए सत्याचरण, ब्रह्मचर्य पालन, ईश्वर प्रणिधान, तप तथा स्वाध्याय आदि से मनुष्य ज्ञान व सुखों को प्राप्त होते हैं। योग के आठ अंगों का पालन करने से मनुष्य को स्वास्थ्य, सुख व ज्ञान तथा सम्पन्नता आदि सभी आवश्यक पदार्थों की प्राप्ति होती है। आज देश व विश्व में लोग योग की ओर आकर्षित हैं तथा सभी आसनों व प्राणायामों सहित ईश्वर का ध्यान भी करते हैं। इससे सभी को लाभ प्राप्त हो रहे हैं। जिस प्रकार से योग वैश्विक आवश्यकता एवं लाभकारी वस्तु बन गया है उसी प्रकार से वेद व वैदिक ईश्वर भक्ति भी वैश्विक आवश्यकता है। लोगों को इसको समझना व इसका आचरण करना चाहिये। इससे सुखों व ज्ञान में वृद्धि होने से सबको मानसिक शान्ति आदि का लाभ हो सकता है।

                मनुष्यों को अपने माता, पिता, आचार्यों सहित वेद सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय से ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानना चाहिये। ईश्वर आत्मा को जानकर सत्याचरण करते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना भक्ति करनी चाहिये। ऐसा करने से आत्मा ज्ञान से युक्त होकर निश्चय ही सुख का लाभ करेगा। हमने ऋषि दयानन्द सहित अनेक सद्धर्म पालक मनुष्यों के जीवन चरित पढ़े हैं। इन सबके जीवन में हमें सुख शान्ति के विशेष रुप से दर्शन होते हैं। अनेक विपरीत परिस्थितियों में भी इन्होंने अपने धैर्य मन की शान्ति को बनाये रखा। इन्हें जीवन में जो प्राप्त हुआ उससे यह सदैव सन्तुष्ट रहे। इन्होंने अपने जीवन को तो यशस्वी बनाया ही दूसरों को प्रेरणा कर उन्हें भी उन्नत व महान बनने की शिक्षा दी। इस दृष्टि व लाभ प्राप्ति के लिए हमें ऋषि दयानन्द का जीवन चरित पढ़ना चाहिये। उनके जीवन में हमें ईश्वर भक्ति, ज्ञान व पुरुषार्थ तथा देश व समाज हित के कार्यों की पराकाष्ठा सहित निर्भीकता देखने को मिलती है। उन्होंने अपने जीवन में जो कष्ट सहन किये वह आज के मनुष्य कदाचित नहीं कर सकते। उनके जीवन का अनुकरण हम भी अपने जीवन को उनके समान उपयोगी व श्रेष्ठ कर्मों से युक्त बना सकते हैं। ऐसा करते हुए हम अनेक बुराईयों से भी बचते हैं और हमारा सामाजिक जीवन विस्तार व उन्नति को प्राप्त होकर देश व समाज के लिये भी उपयोगी बनता है। इस पक्ष पर भी हमें ध्यान देना चाहिये। संसार में सभी मनुष्य सुख चाहते हैं परन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं होता कि सुख का आधार क्या है? ऐसा माना जाता है कि धन कमाने व सम्पत्तियों को अर्जित कर ही मनुष्य सुखी हो सकता है। ऐसा मानना अर्ध सत्य कहा जा सकता है। प्रत्येक भौतिक व इन्द्रिय सुख के साथ दुःख जुड़ा होता है। भौतिक सुख भोग का परिणाम उत्तर काल में दुःखों के रूप में सामने आता है। इसके विपरीत बिना भौतिक सुखों के ईश्वर उपासना तथा सत्कर्मों को करके जो सुख मिलता है, उसका महत्व कहीं अधिक होता है। दशरथनन्दन मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा देवकीनन्दन योगेश्वर कृष्ण ने ईश्वर भक्ति व सत्कर्म ही तो किए थे। इसी कारण से उनका पावन चरित्र आज भी जन जन में गाया व स्मरण किया जाता है। अतः हमें भी राम व कृष्ण के जीवन से शिक्षा लेकर उनके अनुसार ही वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों से वैदिक ज्ञान को प्राप्त होकर सत्कर्मों को करना है। इसी से हमारा जीवन सुखी व सुफल होगा तथा हम मोक्ष मार्ग के पथिक भी बनेंगे जिसे प्राप्त करना सभी मनुष्यों के जीवन का लक्ष्य है।

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