मैं सांड हूँ ! जहाँ जाइएगा मुझे पाइएगा…?

                   प्रभुनाथ शुक्ल

हमारे गांव-जवार में लठ्ठन गुरू का जलवा है। वह  लम्बी कद काठी के गबरू जवान हैं। हालांकि उमर उनकी साठा है, लेकिन अपने को वह किसी गबरू जवान से कम नहीं समझते। फीट भर की हासिएदार मुंछे और छह फिट की लाठी रखते हैं। सिर पर कलकत्तईया गमछा और पूरेवदन पर पाव भर कड़वा तेल की मालिश करते हैं। जहाँ चाहते हैं वहीं मुंह मारते हैं और जिसको जो चाहें बोल देते हैं। लठ्ठन गुरू को लोग छुट्टे सांड के उपनाम से भी बुलाते हैं। वेचारे जुवान से थोड़ा पातर हैं, लेकिन गलत कभी बर्दास्त नहीं करते हैं। उनकी निगाह में अगर कहीं गलत दिख गया तो पूरे छुट्टे सांड बन जाते हैं। फिर उनकी निगाह में आने वाले की ऐसी-तैसी हो जाती है। इसलिए हमारे गांव-जवार में लोग उनका बड़ा अदब करते हैं।

वैसी भी हमारी काशी तो सांडो की जन्म और कर्म स्थली है। काशी में जहाँ जाइएगा वहां बस सांड ही सांड ही पाइएगा। बाबा दरबार से लेकर गंगा घाट तक। चौराहे से लेकर सब्जी मंडी और गली तक सांड ही सांड दिख जाएंगे। कभी-कभी तो जब अपने पर उतर आते हैं तो पूरी सड़क और गली में जाम लग जाता है। ठेंगे से जाम लगे अलमस्त पागुर करते और बीच सड़क पर उंघते दिख जाएंगे। आप हॉर्न बजाइए या घंटा कोई फर्क नहीं। काशी वालों का जीने का अंदाज ही कुछ अलग है। यहाँ की विंदास जिंदगी सांड की मस्ती से कम नहीं है। क्योंकि यहाँ बाबा की कृपा बरसती है। वैसे भी यहाँ के साहित्यकार भी अपने नाम के आगे सांड लगाना नहीं भूलते हैं। राजनीति में भी यहाँ से जो चुनकर जाता है जाता है वह छुट्टा सांड हो जाता है। आप गलत मतलब मत लगाइएगा हमारे गांव-जवार में सांड बल और शौर्य का प्रतीक है। वैसे भी आजकल सांडों की कमी नहीं हैं। हर कोई सांड ही बनाना चाहता है। अब शेर उतना पसंद नहीं किया जा रहा जितना छुट्टा सांड। इसलिए हर कोई छुट्टा सांड ही बनाना चाहता है।

वैसे भी हमारे यहाँ सांडो का आतंक है। लोकतंत्र में कुछ सियासी फैसलों की वजह से हाल के दिनों में सांडों की आबादी बढ़ी है। जिसकी वजह से सांडों का चरित्र अब इंसानों में घूस गया है। किसानों की फसल आराम से सांड चट कर जाते हैं। किसान अगर सांडो का विरोध करता है तो उसकी हड्डी-पसली तीतर-वितर हो जाती है। हुंकाराते और अखड़ाते सांड उसे छोड़ते नहीं हैं। वैसे भी सांड हमारी राजनीति का अहम मुद्दा है। चुनावी मौसम में तो सियासी सांडो और असली सांडो से कई बार हेलीपैड और चुनावी सभाओं में मुकाबला हो चुका है। सत्तापक्ष के अपने सांड और विपक्ष के अपने सांड हैं। बिनादल वाले भी खुद को स्वच्छंद सांड समझते हैं। चुनाव के बाद किसी दल का बहुत कम है तो ऐसी प्रजाति के सांड अवसर का लाभ उठाकर सम्बंधित दल के गले लग जाते हैं। अब आप इन्हें अवसरवादी सांड से परिभाषित मत कीजिएगा।

बदलते परिवेश में हमारे समाज में स्वच्छंद सांडों की समस्या सबसे बलवती हो गई है। यह गली-चौराहे, स्कूल-कॉलेज हर जगह आवारगी करते दिख जाएंगे। यह अपने माँ-बाप की बिगडैल औलादें हैं। जिन्हें आप लुच्चे-लफंगे जैसे विशेष विशेषण से सम्बोधित कर सकते हैं। हमारे गांव-जवार में इनके लिए एक शब्द सोहदा है जिसका प्रयोग इनके लिए किया जाता है। आजकल ऐसे सांड बेलगाम हो चले हैं। क़ानून की लाख कोशिश के बाद भी नपुंसकों की औलादें सुधरने का नाम नहीं लें रहीं हैं। आपरेशन मजनू भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा। राह चलती बेटियों को निशाना बना रहें हैं। बेटियों का दुपट्टा खींच बेलगाम सांडो ने तांडव मचा रखा है। अब देखना है ऐसे बेलगाम सांडो पर बाबा का बुलडोजर वाला सांड कब हुंकार मारता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here