कांग्रेस का मीडिया के प्रति इतनी नाराजगी क्यों

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मीडिया  लोकतंत्र  की  चैथी  संपत्ति  है  और  यह  न्याय  और  सरकार  की  नीतियों  के  लाभ  को  समाज  के  आंतरिक  वर्गों  तक  पहुंचाने  में  महत्वपूर्ण भूमिका  निभाता  है।  वे  सरकार  और  देश  के  नागरिकों  के  बीच  एक  श्रृंखला  के  रूप  में  कार्य  करते  हैं ,  लोगों  को  मीडिया  पर  विश्वास  है  क्योंकि  यह दर्शकों  पर  भी  प्रभाव  डालता  है।  भारतीय  राजनीति  की  बदलती  गतिशीलता  ने  मीडिया  से  लोगों  की  उम्मीदें  बढ़ा  दी  हैं  क्योंकि  परिवर्तन  का  यह  चरण  व्यक्तिगत  धारणा  के  साथ  विश्वास  करना  बहुत  आसान  हो  गया  है।  देश  की  पुरानी  पीढ़ी  अभी  भी  परंपरा  और  संस्कृति  के  आधार  पर  चीजों  को  तय करती  है ,  जबकि  वर्तमान  युवाओं  को  दुनिया  में  तेजी  से  बढ़ती  प्रौद्योगिकी  और  सोशल  मीडिया  में  रुचि  है।  इस  प्रकार ,  मीडिया  के  लिए  यह सुनिश्चित  करना  महत्वपूर्ण  हो  जाता  है  कि  टीआरपी  चैनलों  को  बढ़ावा  देने  के  लिए  प्रसारित  की  जा  रही  सूचना  को  पक्षपाती  या  हेरफेर   किया जाए।

मीडिया  को  लोकतंत्र  का  चैथा  स्तंभ  भी  कहा  जाता  है ,  क्योंकि  यह  निम्नलिखित  अपरिहार्य  भूमिकाओं  का  निर्वहन  करता  है।यह  लोगों  को  आवश्यक  जानकारी  प्रदान  करता  है ,  ताकि  वे  सूचित  निर्णय  ले  सकें।बहस ,  चर्चा  और  मतदान  के  माध्यम  से  मीडिया  सरकार  को  जनता  के  प्रति  जवाबदेह  बनाता  है।यह  लोगों  को  लोकतंत्र  के  बारे  में  शिक्षित  करता  है  और  साथ  ही  जनता  की  राय  और  सुझावों  के  माध्यम  से  लोकतांत्रिक  मांगों  का  निर्माण  करके सार्वजनिक  नीति  के  लिए  महत्वपूर्ण  जानकारी  प्रदान  करता  है।यह  मानव  अधिकारों  के  उल्लंघन ,  सत्ता  का  दुरुपयोग ,  न्याय  वितरण  में  कमियां ,  लोकतांत्रिक  संस्थानों  में  भ्रष्टाचार  आदि  का  खुलासा  करता  है।मीडिया  अखिल  भारतीय  महत्व  के  मुद्दों  को  उठाकर  एकता  और  भाईचारा  बनाने  में  मदद  करता  है  और  देश  में  मौजूद  विविधता  को  भी  रेखांकित  करता  है।

पिछले दिनों दिल्ली में आईएनडीआईए गठबंधन की आयोजित बैठक के बाद कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत के द्वारा मीडिया को सरकार के चरण चुम्बक जैसे कड़े शब्दों का प्रयोग करना ,इस बात का ध्योत्तक है कि कांग्रेस मीडिया से पूरी तरह खिझी हुई है ।आज टेलीग्राफ अख़बार में  एक रिपोर्ट छपी जिसके अनुसार इंडिया गठबंधन में शामिल राजनीतिक दलों के प्रवक्ता कुछ न्यूज एंकर और मीडिया घरानों का पूरी तरह बहिस्कार करेगें । इसके बाद मीडिया को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया ।कुछ लोग इसी सही मान रहे है तो वही कुछ इसका विरोध कर रहे है ।अतिवादी हुई मीडिया के विरोध क्या यह सही तरीका है ,इस पर इंडिया गठबंधन के नेताओं को विचार करना होगा ।ये समस्या पहली बार नही आई है ।पिछले कांग्रेस समर्थित यूपीए गठबंधन के शासनकाल में भी अन्ना आन्दोलन और विभिन्न घोटालों को लेकर कांग्रेस के नेता लगातार मीडिया पर सवाल उठाते रहे है ।हद तब हो गई जब भरी संसद में इसी गठबंधन के नेता लालूप्रसाद यादव ने मीडिया को लेकर बेहद शर्मनाक टिप्पणी की थी ।ये आरोप केवल विपक्ष के तरफ से ही मीडिया पर नही लगायें जाते रहे ,समय समय पर सत्ता पक्ष भी मीडिया पर अनदेखी करने का आरोप लगाता रहा है । हालाकिं आज तक सत्ता पक्ष मीडिया को लेकर इतने कड़े शब्दों का प्रयोग नहीं किया है ।इससे पहले वर्ष 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नेताओं ने एक प्रेस कांफ्रेंस कर मीडिया से अपील की थी कि मीडिया निष्पक्ष होकर लोकतान्त्रिक मूल्यों का पालन करे । उस समय केंद्र में बाजपेई जी के नेतृत्व में भाजपा समर्थित राजग गठबंधन की सरकार थी ।

आज इंडिया गठबंधन के द्वारा विभिन्न मीडिया समूहों के न्यूज एंकरों की लिस्ट जारी की गई है। जिनमे 14 ऐसे प्रमुख न्यूज एंकरों के नाम है ,जिनके द्वारा सम्पादित होने वाले कार्यक्रमों में गठबंधन के प्रवक्ताओं को भाग नही लेने के लिए कहा गया है ।इसमें ज्यादा ऐसे पत्रकार है जो प्राइमटाइम  के समय प्रसारित होने वाली बहस को सम्पादित करते है ।सोशल मीडिया पर इन पत्रकारों के लाखों में फालोवर्स और व्यूवर्स की संख्या है ।इनके इन श्रोताओं की अनदेखी कर के लिया गया यह निर्णय कितना सही है , ये तो आने वाला समय ही बताएगा ।आज ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या गठबंधन के प्रवक्ताओं के पास ऐसे तथ्य नही है ,जिनसे इनके द्वारा संपादित कर्यक्रमों के दौरान डट कर इनका सामना किया जा सके ।विरोध का यह तरीका अपने आप में एक विशेष है जिसके प्रयोग से कांग्रेस समेत विपक्षी गठबंधन आने वाले समय में अपने विचारों को आम जनमानस तक पहुचाने में कठिनाइयों का सामना करेगा ।इस चुनवी वर्ष में ऐसे निर्णय लेने से आप भी संदेह के दायरे में आ जायेगे जो आप आज इन पत्रकारों पर लगा रहे है ।

 वर्ष 2020 के शुरुआत में संसद में पारित श्रम कानून ने पत्रकारों को विशेष पाबंद कर दिया। इसमें वर्किंग जर्नलिस्ट्स एक्ट भी शामिल था, जो प्रिंट के सभी पत्रकारों की सेवा-शर्तों का नियमन करता था। पहले के प्रावधानों में, संपादकों को नौकरी से हटाने के 6 महीने पहले और अन्य सभी पदों पर काम करने वाले पत्रकारों के लिए 3 महीने पूर्व नोटिस देने की समय सीमा निर्धारित थी। इसको बदलकर सभी पत्रकारों के लिए 1 महीने पूर्व की समय सीमा तय कर दी गई। इस परिवर्तित कानून के जरिए मीडिया मालिकानों के हाथ को और मजबूत कर दिया गया तथा उनके खिलाफ पत्रकारों की खड़े होने की क्षमता को समाप्त कर दिया गया ।आज जो विरोध इनके द्वारा किया जा रहा है शायद उस समय अगर किया गया होता तो आज परिस्थितियां कुछ और होती ।अब इस समय जब मीडिया समूह विज्ञापन और राजनीतिक हस्तक्षेप के दौर से गुजर रहे हो तो ऐसी घटनाएँ होना लाजमी है ।

  भारतीय  मीडिया  बेहद  जीवंत  रहा  है  और  जब  भी  लोकतंत्र  को  निरंकुश  प्रवृत्ति  ( जैसे  राष्ट्रीय  आपातकाल )  से  खतरा  हुआ  है ,  उसने  इन  प्रवृत्तियों  के खिलाफ  ऐतिहासिक  रूप  से  महत्वपूर्ण  भूमिका  निभाई  है।भारतीय मीडिया ने वह दौर भी देखा है जब आपातकाल के दौरान ज्यादातर पत्रकारों को या तो जेल में डाल दिया गया या फिर घर पर ही नजरबंद कर दिया गया ।इन सब के बावजूद आज मीडिया पर लगे आरोप विचारणीय है । इस पर गहन मंथन कर मीडिया को भी अतिसयवादी बनने से बचना होगा ,ताकि आम जनमानस का विश्वास मीडिया पर बना रहे ।

नीतेश राय

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