मैं … शीर्षकहीन !

2
154

विजय निकोर

तुम !

तुम्हारा आना था मेरे लिए

जीवनदायी सूर्य का उदित होना,

और तुम्हारा चले जाना था

मेरे यौवन के वसंतोत्सव में

एक अपरिमित गहन अमावस की

लम्बी कभी समाप्त न होती

विशैली रात ।

मुझको लगा कि जैसे मैं

बिना खिड़्की, किवाड़ या रोशनदान की

किसी बंद कोठरी में बंदी थी, और

उस लम्बी घनी अमावस का सारा अँधेरा

किसी ने समस्त समेट कर

मेरी इस ग़मगीन कोठरी में भर दिया था ।

ऐसे में किसी भी स्थिति में जाने क्यूँ

मैं संतुष्ट नहीं रह पा रही —

पहले मैं सूर्य की किरणों की (तुम्हारी)

उष्मा के तेज को सह न सकी,

और अब अपने हँसते दुखों के बीच

इस बंद कोठरी के अँधेरे की ठंडक में

मैं बुत-सी बैठी ठिठुर रही हूँ ।

 

तुम्हारी तो आदत थी न, हर बात का

सूक्षम विश्लेषण करने की ,

यह “सही”, यह “गलत”, यह “कुछ नहीं”

यूँ ही हर बात को जानने की,

और जब पूछा जो मैंने तुमसे

कि मैं किस श्रेणी में आती हूँ,

और तुम …. तुम बस चुप रहे

उसी एक पल में मुझको लगा कि

नज़रों में तुम्हारी मैं अब

मात्र शीर्षकहीन पंक्ति के अतिरिक्त

कुछ नहीं रही।

 

Previous articleप्यार है लाज़िमी ज़िंदगी के लिये…..
Next articleसन्देह के घेरे में अरविन्द केजरीवाल
विजय निकोर
विजय निकोर जी का जन्म दिसम्बर १९४१ में लाहोर में हुआ। १९४७ में देश के दुखद बटवारे के बाद दिल्ली में निवास। अब १९६५ से यू.एस.ए. में हैं । १९६० और १९७० के दशकों में हिन्दी और अन्ग्रेज़ी में कई रचनाएँ प्रकाशित हुईं...(कल्पना, लहर, आजकल, वातायन, रानी, Hindustan Times, Thought, आदि में) । अब कई वर्षों के अवकाश के बाद लेखन में पुन: सक्रिय हैं और गत कुछ वर्षों में तीन सो से अधिक कविताएँ लिखी हैं। कवि सम्मेलनों में नियमित रूप से भाग लेते हैं।

2 COMMENTS

  1. यह तो सिर्फ वह जाने .. या, मैं जानूँ ! (तलत महमूद जी का ऐसा ही प्यारा सा गीत है।)
    सादर, बहन।
    विजय निकोर

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here