मैं ककहरा सीख रहा था, वो प्रिंसीपल थे..

1
176

मनोज कुमार
मैं उन दिनों पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था. और कहना ना होगा कि रमेशजी इस स्कूल के प्रिंसीपल हो चले थे. यह बात आजकल की नहीं बल्कि 30 बरस पुरानी है. बात है साल 87 की. मई के आखिरी हफ्ते के दिन थे. मैं रायपुर से भोपाल पीटीआई एवं देशबन्धु के संयुक्त तत्वावधान में हो रहे हिन्दी पत्रकारिता प्रशिक्षण कार्यशाला में हिस्सेदारी करने के लिए भोपाल आया था. यह वह समय था जब भोपाल कहने भर से यहां आने की ललक जाग उठती थी. भोपाल तब मध्यप्रदेश के साथ साथ छत्तीसगढ़ की भी राजधानी थी. आज जो भौगोलिक बंटवारा दोनों राज्यों के बीच हुआ है, तब दोनों में एका था. ऐसे में रायपुर एक कस्बे की तरह था और राजधानी हमारे लिए सपने की नगरी. खैर, रमेशजी आरंभ से मेहमाननवाज थे. सो इस पत्रकारिता प्रशिक्षण में हिस्सेदारी करने आए मुझ जैसे नये-नवेले के साथ वरिष्ठों को उन्होंने रात में भोजन पर आमंत्रित किया. रमेशजी से मेरी यह पहली मुलाकात थी. कुछ बातें हुई लेकिन ऐसी आत्मीयता नहीं बनी कि मैं उनका मुरीद हो जाऊं. मेरी पृष्ठभूमि ऐसी थी कि मालिक और मजदूर (भले ही हम स्वयं को पत्रकार या सम्पादक कहते हों) के बीच एक महीन सी रेखा खींची रहती थी. हालांकि उनके आत्मीय ना होने के बावजूद मन में कहीं उनके प्रति वैसा ही सम्मान अनजाने में उपजा था जो देशबन्धु के सम्पादक बड़े भैया ललित सुरजन के लिए या बाबूजी अर्थात मायाराम सुरजन के लिए था. कोई दो घंटे में भोज की औपचारिकता पूरी हुई. कुछ नए लोगों से मिलना-जुलना हुआ और हम सब वापस लौट चलें.
आज 30 वर्ष बाद पीछे पलट कर देखता हूं तो हैरान हूं कि भास्कर क्या तब भी वैसा था, जैसा कि आज है? यह सवाल बेकार का नहीं है क्योंकि जिन दिनों मैंने भास्कर को देखा था तब जलवा अखबारों में नईदुनिया इंदौर और नवभारत गु्रप का मध्यप्रदेश में और देशबन्धु का छत्तीसगढ़ में हुआ करता था. भास्कर नया नहीं था लेकिन पाठकों में भास्कर का नशा नहीं चढ़ा था. इन तीस सालोंं में भास्कर ने सबको पीछे छोड़ते हुए देश का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला अखबार बन गया. यह कामयाबी यंू नहीं मिली. इसके पीछे मेहनत, लगन और आत्मबल का त्रिकोणीय संयोग था और यह त्रिकोणीय संयोग के धनी रमेशजी अग्रवाल थे. लगातार मेहनत और लोगों को परख लेने की उनकी क्षमता ने भास्कर को आज जिस मुकाम पर ला खड़ा किया है, वह सदियों तक एक मिसाल बना रहेगा. रमेशजी उन चुनिंदा लोगों में नहीं थे जो नौकरी करते हुए अखबार का संसार खड़ा किया बल्कि वे मालिक के रूप में ही भास्कर की कमान सम्हाली. अपने पिता स्वर्गीय द्वारिकाप्रसाद अग्रवाल से कड़ा अनुशासन सीखा और जीवन में उतारा. थकान तो जैसे रमेशजी की दुश्मन थी. दोनों मेें कभी बनी नहीं और इसलिए थकान ने अपना दूसरा बसेरा ढूंढ़ लिया था क्योंकि रमेशजी की मेहनत के सामने उसका टिका रहना मुश्किल सा था. यह बात रमेशजी ने अपने जीवन के आखिर वक्त तक बनाये रखा जब वे भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से अहमदाबाद बिना आराम किए प्रवास पर हमेशा की तरह रहे.
अनुशासन के पक्के रमेशजी ने यही मंत्र अपने बेटों को दिए. इनमें सुधीरजी ने भास्कर की कमान सम्हाली. अपने दादाजी और पिताजी से सीखा अनुशासन का पाठ और नए जमाने की तकरीर को जीवन में उतारा. वे लीक से हटकर चलने लगे. भास्कर को अखबार से अखबारी दुनिया का ब्रांड बना दिया. पिता-पुत्र की समझ और काबिलियत को पूरी दुनिया ने देखा और भास्कर अपने नाम की तरह अपनी रोशनी पूरी दुनिया में बिखेरने में कामयाब हो गया. आज किसी भी परिवार की सुबह घर में भास्कर की किरण और कागज पर उतरे शब्दों के रूप में भास्कर के साथ होती है, इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. समय की नब्ज को टटोलना ही नहीं, बल्कि अपने अनुरूप कर लेने में रमेशजी की महारथ थी. वे कोई अवसर नहीं गंवाते थे. यही कारण है कि अपने समय के पुराने सहयोगियों को वे इतना मान देते थे कि आज भी लोग उनके मुरीद हैं. सूचनाओं का संसार उनका इतना व्यापक था कि वे रहें कहीं भी लेकिन उन्हें हर बात की खबर थी कि उनके पीछे क्या हो रहा है. ऐसा नहीं है कि भास्कर की इस कामयाबी में सेंध लगाने की कोशिश नहीं हुई हो लेकिन सेंधमार हमेशा नाकामयाब रहे तो रमेशजी के चौकन्नेपन की वजह से.
उनमें एक और खासियत थी. वे दूसरे अखबार मालिकों की तरह लिखने में कभी रूचि नहीं दिखायी और जहां तक मुझे याद पड़ता है रमेशजी के नाम पर लिखा हुआ कभी कुछ भी नहीं छपा. वे स्वयं इस बात के हामी थे कि वे कुशल प्रबंधक हैं और लिखने के लिए कुशल लेखक हैं. वे इस बात को भी कभी मंजूर नहीं किया करते थे कि लिखे कोई और तथा छपे उनके नाम से. यह उन्हें कदापि मंजूर नहीं था. पत्रकार जगत उनकी इस साफगोई से हमेशा इत्तेफाक रखता रहा. उनकी इस परम्परा का निर्वाह उनके बेटे भी कर रहे हैं. परिवार के किसी भी सदस्य में इस बात की ललक कभी नहीं रही कि किसी का लिखा उनके नाम से छपे. यह गुण रमेश जी और भास्कर की कामयाबी का एक बड़ा सूत्र है. रमेशजी की हमेशा कोशिश होती थी कि गुणी लेखक पत्रकार भास्कर के साथ जुड़े. भौतिक सुख-सुविधाओं का भरपूर सहयोग देते थे. इस बात में वे खरे थे कि भास्कर में निकम्मे और काम से जी चुराने वालों के लिए कभी कोई जगह नहीं बनी. लेकिन कोई गुणी और कामयाब व्यक्ति भास्कर के साथ ना जुड़े तो उन्हें मलाल होता था. ऐसा यदा-कदा हुआ होगा.
रमेशजी के रहते और शायद आगे भी. भास्कर में आपके लिखे पर छपने में कोई दुराभाव नहीं हुआ. मेरा अपना अनुभव है. भास्कर तेजी से बढ़ रहा था. भास्कर में छपना प्रतिष्ठा की बात थी. मैं देशबन्धु से अलग होकर स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम कर रहा था. लोगों से सुन रखा था कि भास्कर में छपना मुश्किल है और इसके लिए आपको जुगाड़ लगाना होता है. आरंभ से जुगाड़ शब्द से मेरा बैर रहा है. मैंने कहा देखेंगे. ठीक लगेगा तो छप जाएगा वरना रद्दी की टोकरी तो है ही. यह तब की बात है जब भास्कर में स्थानीय लेखकों को स्थान दिया जाता था. मेरा यकीन तब और पक्का हो गया जब एक बार नहीं, लगातार तीन बार मेरा लिखा भास्कर में ज्यों का त्यों छपा. मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि उस समय के संपादक और स्वयं रमेशजी मुझे व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते थे क्योंकि तब भी मैं पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था, जैसे की आज भी सीखने की प्रक्रिया में हूं. लेकिन इस पूरे दौर में रमेशजी एक अखबार मालिक से उठकर कामयाबी के सिम्बाल बन चुके थे. मैं भास्कर के दरवाजे पर लटके लेटरबाक्स में अपने लेख का लिफाफा छोड़ आता था और अधिकतम तीन दिनों के अंतराल में प्रकाशन होता था.
जिस तरह रमेशजी हमेशा प्रयासरत रहते थे कि अच्छे लेखक पत्रकार भास्कर से जुड़ें, वैसी कामना मेरी भी थी कि भास्कर के साथ जुडक़र मेरा लिखा देश और दुनिया के पाठकों को पढऩे का अवसर मिले. खैर, रमेश जी के साथ कभी काम करने का अवसर नहीं मिला. भास्कर में भी मेरी एंट्री नहीं हो पायी. दोस्तों की मोहब्बत कई बार भारी पड़ जाती है. मेरे साथ भी ऐसा हुआ. एक अवसर आया जब अपरोक्ष रूप से मेरे एक अनुज के प्रयासों से सीनियर एडीटर के रूप में मेरा नाम स्वीकृत कर लिया गया. भोपाल के बाहर से भास्कर में आए एक साथी के साथ मैंने इस बात का जिक्र कर लिया था. इधर मैंने अपनी खुशी उन्हें बयां कि और उधर मैं आज तक भास्कर के फोनकॉल का इंतजार ही करता रह गया. भास्कर के साथ नहीं जुड़ पाने का अफसोस तो रहेगा और इस रंज का जिक्र करने में कोई उज्र नहीं. मैं भास्कर से जुड़ता तो मुझे भास्कर से बहुत कुछ सीखने को मिलता. रमेशजी से अनुशासन और प्रबंधन का गुण सीखता क्योंकि मेरा मानना है कि वही तैराक कामयाबी के शिखर पर पहुंचता है जिसके पास तैर कर निकल जाने के लिए मीटर नहीं, किलोमीटर का फासला तय करना होता है. सच यह भी है कि रमेशजी, भास्कर और भास्कर की नयी पीढ़ी से एकलव्य की तरह सीख रहा हूं कि कामयाबी के लिए एक ही चीज की जरूरत होती है और वह है जिद, जिद और जिद. जिद करो, दुनिया बदलो.

Previous articleगीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-88
Next articleजीवात्मा के बन्धन और मोक्ष पर ऋषि दयानन्द के तर्क व युक्तिसंगत विचार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

1 COMMENT

  1. मैं राजस्थान, गुजरात, दिल्ली प्रवास के दौरान भास्कर नियमित रूप से पढ़ता था. अब हैदराबाद बस गया हूँ. यहाँ भास्कर नहीं मिलता. कारण समझ नहीं आता.यहाँ पाठक भी हैं और कोई स्तरीय हिंदी अखबार भी नहीं है. कुछ करना संभव हो पाये तो कीजिए, करवाइए.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,673 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress