इदन्न न मम – संसार में मेरा कुछ नहीं है?

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-मनमोहन कुमार आर्य

हम इस संसार में रह रहे हैं। यह संसार जड़-चेतन जगत है। इसमें जड़ सूर्य, चन्द्र व पृथिवी सहित सभी लोक लोकान्तर हैं और चेतन पदार्थों में जीवात्मा व मनुष्यादि सभी प्राणी आते हैं। मनुष्य एक चेतन आत्मा व उसके शरीर को जिसमें बुद्धि तत्व अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यन्त उन्नत अवस्था में विद्यमान रहता है, कहते हैं। मनुष्य शरीर की आकृति भी सभी प्राणियों से भिन्न प्रकार की है। यह दो पैरों पर चलता है और अपने दो हाथों से नाना प्रकार के कार्यों को करता है। मनुष्य की बुद्धि, ज्ञान व विज्ञान को प्राप्त कर उसका आवश्यकतानुसार उपयोग भी करती है। इसी के कारण संसार में ज्ञान विज्ञान अत्यन्त विकसित हो चुका है। हम जिन उपयोगी पदार्थों की आवश्यकता पर विचार करते हैं उनमें से अधिकांश को हमने विज्ञान से प्राप्त कर लिया है। विज्ञान की यह उन्नति निरन्तर चल रही है। आने वाले समय में हमें अनेकानेक नये नये आविष्कार देखने को मिल सकते हैं जिससे हमारा जीवन वर्तमान की तुलना अधिक सुविधापूर्ण हो सकता है।

 

मनुष्य चेतन आत्मा व इसके मनुष्यरूपी शरीर के युग्म को कहते हैं। मनुष्य केवल शरीर को नहीं परन्तु शरीर में विद्यमान आत्मा व दोनों के युग्म को कहते हैं। मनुष्य शरीर में आत्मा मुख्य है व उसका शरीर आत्मा की तुलना में गौण है। यह शरीर भी आत्मा को रचा रचाया मिला है और अन्न मात्र को भोजन के रूप में ग्रहण करने व वायु व जल के प्रयोग से यह चलता है व वृद्धि को प्राप्त होता है। मनुष्य का आत्मा ईश्वर प्रदत्त शरीर की सहायता से माता-पिता व आचार्यों से भाषा या भाषाओं, ज्ञान-विज्ञान सहित अनेक कार्यों में प्रवीण होता है। वह ऐसा करके धन का अर्जन करता है और उस धन से मकान, वाहन आदि का संग्रंह करता है। क्या मनुष्य का शरीर व उसकी धन सम्पत्ति उसकी अपनी है? विचार करने पर ज्ञात होता है कि न तो मनुष्य का शरीर उसका अपना निजी है और न ही उसकी धन सम्पत्ति उसकी अपनी निजी है। एक दिन उसका शरीर भी नाश व मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा और समस्त धन सम्पत्ति इस पृथिवी पर छूट जायेगी। वह न जाने शरीर से निकल कर वायु, आकाश आदि में चला जायेगा और पुनर्जन्म को प्राप्त होगा? जो वस्तु जिसके पास सदा न रहे वह वस्तु उसकी अपनी सम्पत्ति नहीं मानी जाती। आत्मा को शरीर मिलता है और छूट जाता है, धन सम्पत्ति भी यहीं रह जाती है, माता-पिता, बन्धु जन व पुत्र आदि भी यहीं छूट जाते हैं इसलिये यह मनुष्य की आत्मा की अपनी सम्पत्ति व उसका अपना अंग नहीं है।

 

संसार में मेरा अपना कौन है? इस प्रश्न का उत्तर हमें यह लगता है कि मेरा अपना तो आत्मा है और परमात्मा भी हमारा अपना हैं। यह कैसे है, इसके लिए आत्मा और हम एक होने से आत्मा से अपनत्व का भाव स्वभावतः जुड़ा हुआ है। परमात्मा इस जगत का रचयिता एवं पालक है। वह ऐश्वर्यदाता और हमें सुख देने वाला है। वह हमारे दुःख दूर करता व हमें आयु, विद्या, यश व बल की प्राप्ति कराता है। जन्म मरण से अवकाश भी हमें योगाभ्यास, ईश्वरोपासना एवं सद्कर्मों से ईश्वर ही प्राप्त कराता है। हमें जो सुख प्राप्त होता है वह ईश्वर के सान्निध्य से ही होता है। ईश्वर से दूरी अर्थात् ईश्वर उपासना से विरत जीवन का एक अर्थ दुःख भी कहा जा सकता है। हमें ईश्वरोपासना द्वारा ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करना चाहिये इससे हमारा हित होगा। हमारे ज्ञान में वृद्धि होगी और हमें स्वाध्याय और उपासना से होने वाले सभी लाभ प्राप्त होंगे। सृष्टि के आरम्भ से सभी ऋषि-मुनि और महात्मा ऐसा ही करते आये हैं। वेदों में कहा गया है कि ईश्वर ही हमारा, माता, पिता, बन्धु, सखा, गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अतः ईश्वर से हमारे अनेक सम्बन्ध हैं और उन सम्बन्धों के लाभ हमें प्राप्त होते हैं।

 

यह सब संसार और इसके पदार्थ हमारे नहीं अपितु ईश्वर के हैं। इसलिए कि ईश्वर ने ही  इस संसार को उपादान कारण प्रकृति से बनाया है। इस तथ्य को जानकर हमें अपने सभी भौतिक पदार्थों पर अपना निजी एकमात्र अधिकार व स्वामित्व नहीं मानना चाहिये अपितु इन सबको ईश्वर का मानना चाहिये। इदन्न न मम का अर्थ ‘यह मेरा नहीं है’ होता है। हमें वैदिक धर्म और संस्कृति के ‘इदन्न न मम’ यह तीन शब्द बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। यदि मनुष्य इन पर विचार करे तो उसे यह सत्य प्रतीत होंगे और वस्तुतः हैं भी। इसी भाव से जग में सभी मनुष्यों को अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये। यदि ऐसा करेंगे तो यह संसार स्वर्ग का धाम बन जायेगा। वैदिक काल में यह ऐसा प्रायः रहा है। संसार में भारत वा आर्यावर्त्त सर्वोत्तम व स्वर्ग सम स्थान हुआ करत थे। कारण यह था कि यहां वेद ज्ञान अपने यथार्थ अर्थों सहित अधिंकाश की जिह्वा पर उपस्थित होता था। तभी मनु जी व महर्षि दयानन्द जी ने कहा था कि यह भारत वा आर्यावर्त्त देश ऐसा है कि जिसके समान भूगोल में दूसरा देश नहीं है। इसी कारण इस देश को स्वर्ण भूमि कहा जाता था। संसार में अग्र जन्मा मनुष्यों को यही देश उत्पन्न करता था और इस देश के ऋषि आदि आचार्यों से संसार के अन्य देशों के लोग उत्तम उत्तम चरित्र आदि की शिक्षा लिया करते थे।

 

इदन्न न मम अर्थात् यह धन, ऐश्वर्य, हमारा शरीर आदि मेरा अपना नहीं है अपितु ईश्वर प्रदत्त है। मुझे त्याग भाव से इसका उपयोग करने का अधिकार है। हमें ऐसा ही करना चाहिये। यदि हम ऐसा करते हैं तो इससे हमें अवश्य लाभ होगा क्योंकि यही वेदाज्ञा व शास्त्रों की शिक्षा है। इसी के साथ इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

 

 

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