‘अनपढ़ और घबराये ’ हुए छात्र

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       ‘कांग्रेस नेता राहुल गाँधी  में एक ऐसे ‘अनपढ़ और घबराये ’ हुए छात्र के गुण हैं जो कि अपने शिक्षक को प्रभावित करने की चाहत तो रखता  है लेकिन उसमें  विषय की महारत  हासिल करने की  योग्यता और जूनून का  घोर आभाव है . बराक ओबामा ने ये बात अपनी पुस्तक  , ‘ ऐ प्रॉमिस्ड लैंड ‘ में लिखी है. और  जिसकी चर्चा उनके भारत आगमन पर काफी हुई  थी .  दूसरी और अपने राजनैतिक जीवन में  न जाने कितने  बार  बराक ओबामा को सच साबित कर चुके  राहुल ने राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ(आर.एस.एस.) को लेकर वही गलती दोहरा दी है. उनका बयान है कि जब क्रन्तिकारी टंट्या भील आज़ादी की  लड़ाई लड़ रहे थे , आर.एस.एस. अंग्रेजों का साथ दे रही थी. इसको लेकर सोशल मीडिया में भी काफी चर्चा  है. सत्य तो ये है कि 1878 में उन्हें हाजी नस्रुल्ल्ला खान युसूफ जई के द्वारा गिरफ्तार कर  जेल में डाला गया था. पर उन्होंने जेल तोड़कर अपने को  आजाद कर लिया था. इसके उपरांत इंदौर के एक सेना के अधिकारी ने धोके से उन्हें गिरफ्तार  कर फांसी पर लटकवा दिया  था. ये घटना 4 दिसम्बर 1889  की  है, जब कि आर.एस.एस. की स्थापना  बहुत बाद 1925 में नागपुर में हुई थी.
      ‘ईसा मसीह ही वास्तविक भगवान  हैं जो कि एक मानव के रूप में प्रकट हुए.वे किसी शक्ति देवी की तरह नहीं थे.’ ये विवादास्पद वाक्य तमिल पादरी जार्ज पोनान्या के थे , जब राहुल गाँधी अपनी भारत जोड़ो यात्रा के प्रारंभिक चरण में उनसे मिले थे. दरअसल ये सवाल  राहुल को उनसे करना चाहिए था कि आज़ादी के आन्दोलन में इसाई संगठनों की क्या भूमिका थी.
      ऊटपटांग बोलने के पहले अच्छा  होता कि  वो एक दृष्टी बिरसा मुंडा के जीवन पर भी डाल लेते.   झारखण्ड का ये वनवासी क्रन्तिकारी जब बड़ा हुआ और आगे अपनी शिक्षा पूरी करने के लिये चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल एडमिशन लेने पहुंचा तो वह इसमे तभी सफल हो सका जब उसके समेत उसके पूरे परिवार ने  ईसाई मत स्वीकार नहीं कर लिया. इस काम को अंजाम देने वाले  ईसाई  पादरी नें उसका नाम बदल कर अब बिरसा डेविड कर दिया. पर पढाई पूरी कर लेने के उपरांत बिरसा का संपर्क तब के प्रसिद्ध संत श्री आनंद पांडे से हुआ और उनका झुकाव पुनः हिंदुत्व कि ओर हो उठा. यहाँ तक कि वो चार वर्षों  के एकांत वास में रहते हुए कठोर साधना में डूब गये, और जब इससे बाहर निकले तो उनका पूर्ण रूपांतरण हो चुका था. बिरसा मुंडा पीली धोती, लकड़ी की  खडाऊँ, ललाट पर तिलक तथा यज्ञोपवित धारण किये हुए एक हिन्दू महात्मा हो चुके थे. फिर क्या था, उनको देख बड़ी संख्या में ईसाई हो चुके वनवासी पुनः हिन्दू-धर्म में वापस लौटने लगे. ईसाई मिशनरीज़ को जब इस चुनौती का  कोई हल नहीं मिला तो उन्होंने रांची के तत्कालीन कमिश्नर के साथ मिलकर षडयंत्रपूर्वक बिरसा को बंदी बनवाकर जैल में डलवा दिया. फिर दो साल बाद जैल से छूटकर अपने वनवासी वन्धुओं के साथ सशस्त्र क्रांति का आव्हान करते हुए  कैसे अंग्रेजों के हाथों  घोर यातनाओं को  सहते-सहते उनका बलिदान हुआ ,   उसका अपना एक अलग इतिहास है. 

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