मुझे खेद है कि आप जिस व्यवस्था को बदलने आये थे उस व्यवस्था का अंग बन चुके हैं।

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arvindएक पत्र                  

प्रिय अरविंद,

जब से आम आदमी पार्टी बनी थी, एक उम्मीद थी कि ये राजनीति देश मे परिवर्तन लायेगी, भले ही समय लगे। 2013 मे ‘’आप’’ ने 28 सीटें जीती तो लगा कि जनता ये परिवर्तन चाहती है, फिर आप ने बहुत सोच समझने  के बाद जनता से पूछकर सरकार बनाई तो आप पर आरोपों की बरसात हो गई। कौंग्रेस के साथ सरकार क्यों बनाई, बच्चों की झूठी कसम क्यों खाई, बड़ा घर क्यों लिया, बड़ी गाड़ी क्यों ली वगैरह……. मुझे ये सब आरोप निराधार लगे….. आपने 49 दिन के बात जनलोकपाल के लियें इस्तीफ़ा दिया…. मुझे लगा आपने थोड़ी जल्दबाज़ी की, परन्तु ग़लत नहीं किया।

लोकसभा चुनाव मे बनारस से आपका मोदी से टक्कर लेना सही निर्णय नहीं लगा था। पूरे देश मे 400 सीटों से ज्यादा सीटों पर, स्थिति का आकलन करे बगैर, जोश मे चुनाव लड़ना भी ग़लत था,परन्तु ग़लत निर्णय ले लिये जाते हैं, फिर भी आपकी और आपके साथियों की नीयत पर मुझे  कभी शक नहीं हुआ था।

लोकसभा के चुनाव के बाद भी दिल्ली विधान सभा का चुनाव होने मे काफ़ी समय लगा। बीजेपी ने कुछ जोड़ तोड़ करके सरकार बनाने की कोशिश कई बार की, पर जब यह ख़बर आई कि आप भी कौंग्रेस से विधायक तोड़कर सरकार बनाने पर विचार कर रहे हैं तो मुझे यकीन नहीं हुआ, परन्तु आप की तरफ़ से एल.जी. को एक पत्र भी भेजा जा चुका था। आप कौंग्रेस  के विधायक तोड़कर सरकार बना पाते  तो बहुत बड़ी ग़लती होती । मैने सोचा कि अच्छा हुआ  आप एक बड़ी ग़लती करने से बच गये।

जब दिल्ली के चुनाव घोषित हुए , मै कुछ ‘’आप’’ के कार्यकर्ताओं के संपर्क मे आई, उनकी निःस्वार्थ भाव से पार्टी के लियें काम करने की अद्भुत भावना ने मुझे प्रभावित किया। मैने ‘’आप’’ की सदस्यता ले ली और अपने क्षेत्र मे प्रचार भी किया। चुनाव से पंद्ह दिन पहले लग रहा था ‘’आप’’की 40 सीटें आ सकती हैं। अचानक बीजेपी ने आपके विरोध मे किरण बेदी को उतार दिया, उनके बेतुके बयान जनता ने पसन्द नहीं किये, इसलियें बीजेपी को जाने वाले काफ़ी वोट आपको मिल गये, दूसरी ओर कौंग्रेस की जड़े खोखली हो चुकी थीं वो सारे वोट आपकी झोली मे आगये और आपको 67 सीटों पर ऐतिहासिक सफलता मिली।हम सब बेहद ख़ुश थे।

चुनाव से पहले ‘’आप’’ मे आपसी फूट की खबरे कभी कभी आती थीं तो मैने उन्हे हमेशा अफ़वाह समझकर नकार दिया। शाँति भूषण जी ने आपके विरोध मे एक बयान जारी किया था, तब उसका उत्तर आपने बहुत सावधानी और समझबूझ के साथ से दिया था. आपके लियें मेरे मन मे इज़्जत और बढ़ गई। शाँति भूषण जी उम्र के जिस दौर मे हैं उनकी बात का क्या बुरा मानना!प्रशाँत भूषण ने अपने पिता के बयान से ख़ुद को अलग कर लिया था।आपको शांति भूषण जी की बात  अन्दर तक काट गई थी, पर आपने उसे उस समय चुनाव की वजह से मन मे दबा लिया। यह आभास हमे बाद मे हुआ।

चुनाव से कुछ सप्ताह पहले मैने योगेन्द्र यादव जी से फोन पर संपर्क किया था, उनसे मैने विकलांगों को सार्वजनिक स्थानो, स्कूलों ,कौलेजों मे मूलभूत सुविधायें देने की  बात की थी। मै उन्हे जानती भी नहीं थी फिर भी उन्होने मुझ से लिखित मे सारे सुझावों का ब्योरा मांगा। उन सुझावों को घोषणापत्र मे भी शामिल किया गया।

चुनाव के नतीजे आने पर हमारी ख़ुशी का ओर छोर न था।आपकी ख़ुशी भी शपथ ग्रहण समारोह मे छलक रही थी। यहाँ से आप ने अतिउत्साह मे ऐलान किया कि आप 5 साल तक किसी और विधान सभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे, दिल्ली पर ही ध्यान देंगें। यह उद्घोषणा भले ही आपने अच्छी नीयत से की थी, पर इसके लियें यह सही समय नहीं था। आपको बिना अपने साथियों से सलाह मश्वरा किये य़ह निर्णय नहीं लेना चाहिये था। आपने कहा था साथियों घमंड न करना, पर सबसे पहले आप ही घमंड का शिकार हुए। ये घमंड चीज़ ही ऐसी है कि इसका नशा कब सर पर चढ़ जाये व्यक्ति ख़ुद ही नहीं जान पाता!

शपथ समारोह के कुछ ही दिन बाद ही आपके योगेन्द्र यादव और प्रशाँत भूषण के मतभेदों की ख़बरे आने लगीं थीं । सुना था आपने कह दिया था कि इन दोनो के पी.ए.सी. मे रहते आप पार्टी के संयोंजक नहीं बने रह सकते। आपके समर्थकों ने पूरी कोशिश करके उन लोगों को मीटिंग मे आने से रोका, जो  इन दोनो के पक्ष मे वोट दे सकते थे, उन्होने सुनिश्चित कर लिया था कि इन दोनो को निकालने वालों का पलड़ा भारी रहे।इस मीटिंग मे आप दिल्ली मे होते हुए भी शामिल नहीं हुए क्योंकि आपमे इन लोगों का सामना करने की हिम्मत नहीं थी।अगले दिन आप स्वास्थ्य लाभ के लियें बंगलुरू चले गये।आपके पीछे आपके समर्थकों( चमचों पढ सकते हैं) की योगेन्द्र से मुलाकातें हुई जिनका कोई निष्कर्ष नहीं निकला।आरोप प्रत्यारोपों का दौर चलता रहा, आप दो खेमों मे बँट गई। हार कर बिखरना तो देखा था, पर हम तो जीत कर भी हारा हुआ महसूस कर रहे थे।

‘’आप’’की इस लड़ाई का चर्मोत्कर्ष भी हुआ , जहाँ सभ्यता की सारी सीमायें समाप्त हो गईं। जिस पार्टी का मूल सिद्धान्त पारदर्शिता था, उसने वहाँ फोन और पैन तक लाने पर पाबन्दी लगा दी……. आख़िर आप क्या ग़लत करने वाले थे जो आपने ऐसा किया। मीटिंग मे आप अपनी बात कह कर निकल लिये, सामने वाले का पक्ष किसी ने सुना नहीं। नारे बाज़ी के बीच चार नेताओं को पार्टी से निकाल दिया गया। वो कहते हैं वहाँ हिंसा हुई आप कहते हैं नहीं हुई। वो कहते हैं वहाँ बाँउसर बुलाये गये थे आप कहते हैं हट्टे कट्टे मुश्टडें पार्टी के कार्यकर्ता थे। आपने अपने भाषण की संपादित फुटेज जारी की, पूरी फुटेज जारी करते तो कुछ और तथ्य सामने आते।एक बात और मै बता दूं कि वहाँ कुछ कार्यकर्ता भले ही ख़ुद आगये हों परन्तु अधिकांश को पार्टी ने बसें भेजकर बुलवाया था। पार्टी ने ही उन्हे ‘’गद्दारों को निकालो’’ के डिस्प्ले कार्ड बनवा कर दिये थे, और नारे लगाने का आदेश दिया। मुझे और कुछ और कार्यकर्ताओं को  वहाँ जाना सही नहीं लगा था।

‘’आप’’ ने प्रशाँत भूषण और योगेन्द्र यादव पर जो आरोप लगाये हैं वो मेरी नजर मे सही नहीं हैं।योगेन्द्र चुनाव से पहले तक सर्वे करवा रहे थे, वो प्रश्नावलियां भरवाने के लियें हमलोग ख़ुद  घूमे थे। योगेन्द्र 50-55 सीटें आयेंगी बता रहे थे। हाँ टिकट सही लोगों को जाँच परख कर दिये जाये ये मुद्दा ज़रूर उठाते रहे थे। योगेन्द्र पर आरोप था कि वो ‘’आप’’’का राष्ट्रीय संयोजक बनने का षडयंत्र रच रहे थे।षडयंत्र के कोई पुख़्ता सबूत नहीं थे। आप जब मुख्यमंत्री बन चुके थे, तो आपको पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक का पद किसी योग्य वरिष्ठ सदस्य को सौप देना चाहिये था। इसके लिये योगेन्द्र से बहतर और कौन हो सकता था!

प्रशाँत भूषण ने कहा था हारें तो हार जाये पर ग़लत लोगों के साथ जीतना उन्हे पसन्द नहीं है। आपके लोगों ने इस बात को ऐसा पलटा और कहा कि भूषण पार्टी को हराना चाहते थे।यदि आप ने इनकी बातों पर ध्यान दिया होता तो तोमर , रवि विशेष, सुरेन्द्र सिंह और बलियान जैसे विधायक आपके साथ न होते। आपका हर एक विधायक बेदाग होता, परन्तु आपको जीतने की धुन थी, जीत तो आप बेदाग़ लोगों के साथ भी जाते 67 नहीं तो 57 सीटें मिलती।

इसी समय आपके दो स्टिंग सार्वजनिक हुए, स्टिंग करने वाले को आप दोष भी नहीं दे सकते क्योंकि स्टिंग करना आपने ही सिखाया था। भले ही आपके साथियों ने आपका बचाव किया हो पर यहाँ जो अरविंद दिखा वो मेरी कल्पना से परे था और इस अरविंद के लियें मैने ‘’आप’’ को नहीं चुना था। इस अरविंद ने अपनी उम्र से बड़े साथियों के लियें जो भाषा और लहजा इस्तेमाल किया था, वह सभ्यता की सारी सीमायें तोड़ चुका था। यही अरविंद कौंग्रेस से विधायक तोड़ने की बात कर रहा था। हम इतने बेवकूफ़ तो नहीं हैं कि विधायक तोड़ने का मतलब भी न समझें।विधायक तो पद और पैसे के लालच से ही तोड़े जाते हैं।आपने कहा था आप जीतने आये हैं, बिना ये सब करे, आप कम सीटें जीतकर भी विपक्ष की भूमिका निभाते, तो हमे ख़ुशी होती ।

चलिये, आपने अपनी राह के दो रोड़े तो हटा दिये जो आपकी आंख मे आंख डालकर सवाल पूछने की हिम्मत रखते थे। अब तो बस आपके पीछे चलने वाले लोग साथ हैं……. पर ये क्या सबसे बड़ा रोड़ा तो अब उपराज्यपाल का आना बाकी था , जिसे आप हटा भी नहीं सकते हैं ।

उप राज्यपाल केन्द्र के इशारे पर आप को परेशान कर रहे हैं इसमे मुझे शक नहीं है।दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, जिससे आपकी बहुत सीमायें है। नियमो की व्याख्या सब अपने अपने तरीके से करते हैं।हर बात पर टकराव न करके आप सूझबूझ से काम करते तो शायद स्थिति इतनी न बिगड़ती। अब तो न्यायालय द्वारा ही कुछ फ़ैसला होगा।दिल्ली की नगर पालिकाओं से भी आपका टकराव रहा और दिल्ली को ऐसी गंदगी देखनी पड़ी जो कभी नहीं देखी थी।केंद्र से टकराव के चलते आपको बस डिपो, स्कूलों कौलिजों के लिये ज़मीन नहीं मिल रही है।आप जो काम स्वतंत्र रूप से कर सकें करें, जो जनता को अपने आप दिखें पर आप तो टीवी. , अख़बारों , होर्डिंग के माध्यम से कर दाता का पैसा विज्ञापनों पर, स्वयं अपने महिमा मंडन पर ख़र्च कर रहे हैं।आपने तो 67 सीटें बिना विज्ञापनों के जीती थीं, अब वह आत्मविश्वास कहाँ खो गया। अब आपके साथी कहेंगे कि सरकारी  विज्ञापनों  पर बीजेपी का बजट इतना है……. हम तो केवल…… पर आप तो बीजेपी जैसे नहीं थे , अब वैसे ही होते जा रहे हैं। उनके पास स्मृति ईरानी है, आपके पास तोमर हैं। वो सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे का बचाव कर रहे हैं, तो आप से जब तक हो सका आपने तोमर का बचाव किया, वर्ना तोमर की डिग्री नकली है जानने के लियें उससे पानी का कैमिकल फार्मूला पूछ लेना ही काफ़ी था। हैरानी है कि इतने दिन तक आप उस शैतान को नहीं समझे।जी हाँ मैने शैतान कहा, जो फ़र्ज़ी डिग्री ले सकता है वो कोई भी ग़लत काम करने मे नहीं हिचकिचायेगा।

सत्ता मिलने पर शपथ समारोह के अलावा आपने दो बड़ी सभायें की एक किसान रैली और दूसरी 100 पूरे करने का समारोह। मुख्यमंत्री बनने के बाद इस तरह की चुनावी समारोह जैसी सभाये करने का कोई औचित्य नहीं था। दूसरी पार्टियों की तरह अपना ढोल पीटने की आपको ज़रूरत नहीं थी क्यों कि आप व्यवस्था बदलने आये थे। किसान रैली मे गजेन्द्र का हादसा हो गया उसे तो रोका नहीं जा सका लेकिन संवेदनहीन बयानबाज़ी हुई और अगले दिन टी.वी. कैमरे के सामने दिखावे के आँसू बहाये गये। वैसे भी किसानो की भीड़ वहाँ नहीं थी आप के ही कार्यकर्ता थे।

मुझे खेद है कि आप जिस व्यवस्था को बदलने आये थे उस व्यवस्था का अंग बन चुके हैं।

शुभकामना सहित

बीनू भटनागर

(गृहणी, स्वतन्त्र लेखिका)

3 COMMENTS

  1. ॥ प्रासादस्य शिखरस्थो अपि काको न गरूडायते ॥
    भव्य राजप्रासाद के शिखर-कलश पर बैठा कौवा गरूड नहीं बन जाता।

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