जाति विहीन भारत की कल्पना

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प्रमोद भार्गव
उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भारत में जाति व्यवस्था खत्म कर जाति-विहीन एवं वर्ग विहीन व्यवस्था की उम्मीद जाताई है। उन्होंने मंदिरों, गिरजाघरों, मस्जिदों के प्रमुखों से जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को समाप्त करने का आग्रह किया है। उन्होंने यह बात केरल के शिवगिरि मठ के श्रद्धालु सम्मेलन में कही। नायडू ने यह बात तब कही है, जब दुनिया ‘वसुधैव कटुम्बकम्’ की धारणा से विमुख होकर अस्तित्ववाद की ओर बढ़ रही है। यह अस्तित्ववाद अमेरिका और ब्रिटेन से लेकर भारत तक में प्रखर राष्ट्रवाद के रूप में सामने आ रहा है। जबकि आर्थिक उदारवाद के परिप्रेक्ष्य में यह धारणा बनी थी कि दुनिया में व्यापार के माध्यम से ‘विश्व-ग्राम‘ की स्थापना होगी, जो भारत की सांस्कृतिक परंपरा वसुधैव कुटुम्बकम् का ही पर्याय है।
बृहत्तर हिन्दू समाज (हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख) में जिस जातीय संरचना को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का दुष्चक्र माना जाता है, हकीकत में यह व्यवस्था कितनी पुख्ता है कि इसकी तह में जाना मुश्किल है। मुस्लिम समाज में भी जातिप्रथा पर पर्दा डला हुआ है। आभिजात्य मुस्लिम वर्ग यही स्थिति बनाए रखना चाहता है, जबकि मुसलमानों की सौ से अधिक जातियां हैं, परंतु इनकी जनगणना में भी पहचान का आधार धर्म और लिंग है। शायद इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि ‘जाति ब्राह्मणवादी व्यवस्था का कुछ ऐसा दुष्चक्र है कि हर जाति को अपनी जाति से छोटी जाति मिल जाती है। यह ब्राह्मणवाद नहीं है, बल्कि पूरी की पूरी एक साइकिल है। अगर यह जातिचक्र एक सीधी रेखा में होता तो इसे तोड़ा जा सकता था। यह वर्तुलाकार है। इसका कोई अंत नहीं है। इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है।’ वैसे भी धर्म के बीज-संस्कार जिस तरह से हमारे बाल अवचेतन में, जन्मजात संस्कारों के रूप में बो दिए जाते हैं, कमोबेश उसी स्थिति में जातीय संस्कार भी नादान उम्र में उड़ेल दिए जाते हैं।
इस तथ्य को एकाएक नहीं नकारा जा सकता कि जाति एक चक्र है। यदि जाति चक्र न होती तो अब तक टूट गई होती। जाति पर जबरदस्त कुठारघात महाभारतकाल के भौतिकवादी ऋषि चार्वाक ने किया था। उनका दर्शन था, ‘इस अनंत संसार में कामदेव अलंधय हैं। कुल में जब कामिनी ही मूल है तो जाति की परिकल्पना किसलिए?’ गौतम बुद्ध ने भी जो राजसत्ता भगवान के नाम से चलाई जाती थी, उसे धर्म से पृथक किया। बुद्ध धर्म, जाति और वर्णाश्रित राज व्यवस्था को तोड़कर समग्र भारतीय नागरिक समाज के लिए समान आचार संहिता प्रयोग में लाए। चाणक्य ने जन्म और जातिगत श्रेष्ठता को तिलांजलि देते हुए व्यक्तिगत योग्यता को मान्यता दी। गुरूनानक देव ने जातीय अवधारणा को अमान्य करते हुए राजसत्ता में धर्म के उपयोग को मानवाधिकारों का हनन माना। संत कबीरदास ने जातिवाद को ठेंगा दिखाते हुए कहा भी, ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान।‘ महात्मा गांधी के जाति प्रथा तोड़ने के प्रयास तो इतने अतुलनीय थे कि उन्होंने ‘अछूतोद्धार’ जैसे आंदोलन चलाकर भंगी का काम दिनचर्या में शामिल कर, उसे आचरण में आत्मसात किया। भगवान महावीर, संत रैदास, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, संत ज्योतिबा फुले, डाॅ. आम्बेडकर ने जाति तोड़क अनेक प्रयत्न किए, लेकिन जाति है कि मजबूत होती चली गई। इतने सार्थक प्रयासों के बाद भी क्या जाति टूट पाई? नहीं, क्योंकि कुलीन हिन्दू मानसिकता, जातितोड़क कोशिशों के समानांतर अवचेतन में पैठ जमाए मूल से अपनी जातीय अस्मिता और उसके भेद को लेकर लगातार संघर्ष करती रही है। इसी मूल की प्रतिच्छाया हम पिछड़ों और दलितों में देख सकते हैं। मुख्यधारा में आने के बाद न पिछड़ा, पिछड़ा रह जाता है और न दलित, दलित। वह उन्हीं ब्राह्मणवादी हथकंडों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगता है, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के हजारों साल हथकंडे रहे हैं। नतीजतन जातीय संगठन और राजनैतिक दल भी अस्तित्व में आ गए।
जातिगत आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 16 की जरूरतों को पूरा करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। लेकिन आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता क्योंकि आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और अब ग्रामीण अकुशल बेरोजगारों के लिए सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी से जुड़ गई है। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती तब तक पिछड़ी या निम्न जाति अथवा आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता।
मुस्लिम धर्म के पैरोकार यह दुहाई देते हैं कि इस्लाम में जाति प्रथा की कोई गुंजाइश नहीं है। जबकि एम एजाज अली के मुताबिक मुसलमान भी चार श्रेणियों में विभाजित हैं। उच्च वर्ग में सैयद, शेख, पठान, अब्दुल्ला, मिर्जा, मुगल, अशरफ जातियां शुमार हैं। पिछड़े वर्ग में कुंजड़ा, जुलाहा, धुनिया, दर्जी, रंगरेज, डफाली, नाई, पमारिया आदि हैं। पठारी क्षेत्रों में रहने वाले मुस्लिम आदिवासी जनजातियों की श्रेणी में आते हैं। अनुसूचित जातियों के समतुल्य धोबी, नट, बंजारा, बक्खो, हलालखोर, कलंदर, मदारी आदि हैं। मुस्लिमों में ये ऐसी प्रमुख जातियां हैं जो पूरे देश में लगभग इन्हीं नामों से जानी जाती हैं। इसके अलावा देश के राज्यों में ऐसी कई जातियां हैं जो क्षेत्रीयता के दायरे में हैं। जैसे बंगाल में मण्डल, विश्वास, चौधरी, राएन, हलदार, सिकदर आदि। यही जातियां बंगाल में मुस्लिमों में बहुसंख्यक हैं। इसी तरह दक्षिण भारत में मरक्का, राऊथर, लब्बई, मालाबारी, पुस्लर, बोरेवाल, गारदीय, बहना, छप्परबंद आदि। उत्तर-पूर्वी भारत के असम, नागालैंड, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि में विभिन्न उपजातियों के क्षेत्रीय मुसलमान हैं। राजस्थान में सरहदी, फीलबान, बक्सेवाले आदि हैं। गुजरात में संगतराश, छीपा जैसी अनेक नामों से जानी जाने वाली बिरादरियां हैं। जम्मू-कश्मीर में ढोलकवाल, गुडवाल, बकरवाल, गोरखन, वेदा (मून) मरासी, डुबडुबा, हैंगी आदि जातियां हैं। इसी प्रकार पंजाब में राइनों और खटीकों की भरमार है। इतनी प्रत्यक्ष जातियां होने के बावजूद मुसलमानों को लेकर यह भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि ये जातीय दुष्चक्र की नहीं जकड़े हैं। दरअसल जाति-विच्छेद पर आवरण कुलीन मुस्लिमों की कुटिल चालाकी है। इनका मकसद विभिन्न मुस्लिम जातियों को एक सूत्र में बांधना कतई नहीं है। गोया, ये इस छद्म आवरण की ओट में सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर एकाधिकार रखना चाहते हैं।अल्पसंख्यक समूहों में इस वक्त हमारे देश में पारसियों की घटती जनसंख्या चिंता का कारण हैं। इस आबादी को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने प्रजनन सहायता योजनाओं में भी शामिल किया हुआ है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के एक सर्वे के मुताबिक पारसियों की जनसंख्या 1941 में 1,14000 के मुकाबले 2001 में केवल 69000 रह गई। इस समुदाय में लंबी उम्र में विवाह की प्रवृत्ति के चलते भी यह स्थिति निर्मित हुई है। इस समुदाय का देश के औद्योगिक और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। प्रसिद्ध टाटा परिवार इसी समुदाय से है। इस जाति को सुरक्षित रखने की दृष्टि से ही जो नागरिकता संशोधन विधेयक लाया गया है, उसमें इन्हें भारत में ही रहने के प्रावधान किए गए हैं। बहरहाल ऐसे समाज या धर्म समुदाय को खोजना मुश्किल है, जो जातीय कुचक्र के चक्रव्यूह में जकड़ा न हो।

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