अनिल अनूप
सोनिया कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी का कहना है कि उर्दू के बिना भारत बोध की कल्पना ही नहीं की जा सकती। उर्दू भारत की गंगा-यमुना तहजीब का प्रतीक है। तिवारी ने जो कहा है, वही नेहरू कहा करते थे। इसलिए तिवारी वस्तुतः नेहरू की सांस्कृतिक विरासत को ही ढो रहे हैं। नेहरू की इस सांस्कृतिक विरासत को भारत की शिक्षा व्यवस्था में देश के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने पूरी तरह गाड़ दिया था। उससे जो प्रदूषण फैला उसने महमूद गजनवी, इब्राहिम लोधी, बाबर और औरंगजेब सरीखे विदेशी हमलावरों को भारत के महापुरुषों की कतार में बिठाना शुरू कर दिया।
अलीगढ़ परंपरा के एक प्राध्यापक इरफान हबीब ने औरंगजेब को भारत का जन नायक और मंदिरों का संरक्षक सिद्ध करने के लिए बाकायदा एक किताब लिखी। उनके पिता जी ने महमूद गजनवी को भारत का जन नायक सिद्ध करने के लिए दूसरी किताब लिखी। इस कचरे को सौंदर्य प्रदान करने के लिए गंगा-यमुना तहजीब की हरी चादर से ढक दिया गया। उस वक्त की हरियाणा सरकार ने पानीपत में बाकायदा इब्राहिम लोधी का स्मारक बनाकर श्रद्धा के फूल यह लिखकर अर्पित किए कि यहां हिंदुस्तान का सुलतान सो रहा है। इस विरासत के हरी चादर से ढकी होने के कारण औरंगजेब, महमूद गजनवी भी पीरों की श्रेणी में आ गए।

रही-कही कसर नेहरू-मौलाना आजाद की जोड़ी ने दिल्ली में सड़कों के नाम औरंगजेब, जहांगीर जैसे विदेशी हमलावरों के नाम पर रख कर पूरी कर दी। शायद नेहरू को लगता होगा कि देश की भावी पीढि़यां औरंगजेब, जहांगीर के बताए रास्ते पर चलकर ही नए भारत का निर्माण कर सकती हैं, क्योंकि नेहरू को नए भारत की चिंता सदा लगी रहती थी। इनका भारत महमूद गजनवी, औरंगजेब को श्रद्धांजलि दिए बिना पूरा नहीं होता। अब नेहरू सरकार के नए जन नायक औरंगजेब और जहांगीर बने, तो उन शहीदों के इतिहास को भी विवादित करना था, जो इन हमलावरों से लड़ते-भिड़ते रहे। इसी रणनीति के तहत नेहरू-मौलाना आजाद के लाल तथाकथित इतिहासकारों ने दशम गुरु परंपरा के नवम गुरु श्री तेगबहादुर जी के बारे में कहना शुरू किया कि उनके लोगों ने दिल्ली के आसपास लूटपाट शुरू कर दी थी, इसीलिए मुगलों ने उनको शहीद कर दिया। नेहरू-मौलाना के इतिहासकारों ने मोहम्मद बिन कासिम से लेकर औरंगजेब तक को भारतीय जन नायक तो बना दिया, उनको हरी चादर भी पहना दी, उन्हें औलिया पीर तक बना दिया, लेकिन नेहरू-मौलाना के ये नायक भारतीय भाषाएं तो बोल नहीं सकते थे। इससे मुगलों का निरादर होता, लेकिन यदि धीरे-धीरे उन्होंने भारतीय भाषा हिंदी में बोलना तो शुरू कर दिया, परंतु उसे हिंदी न कहने की जिद पर अंत तक अडे़ रहे।उन्होंने हिंदी को अरबी की माला पहनाकर उसे उर्दू कहना शुरू कर दिया। उससे मुगलों के शासक होने के अहंकार की पुष्टि भी हो गई और शासित वर्ग से उनकी दूरी भी बरकरार रही। मुगलों को मराठों, पंजाबियों, राजपूतों ने उखाड़ दिया। भारत के लोग अंततः जीत गए, लेकिन अरबों के उत्तराधिकारी सैयद, तुर्क, मुगल और अफगान अपने मन से शासक होने के भूतकाल को नहीं छोड़ सके। उसको पकड़े रहने का सबसे बड़ा माध्यम उर्दू ही हो सकता था।अरबों की माला को दूर से ही पहचाना जा सकता था। अब सोनिया कांग्रेस के मनीष तिवारी भी कह रहे हैं कि उर्दू से ही भारत की अस्मिता बनती है। कांग्रेस के उन सदस्यों, जो अब भी गांधी, पटेल की विरासत से जुड़े हैं, के लिए यह सचमुच चिंता का विषय होना चाहिए कि कांग्रेस की विरासत पर मुगलों की भाषा और मुगलों की विरासत को ढोने वाले लोगों का कब्जा हो गया है। मनीष तिवारी का इसमें कोई दोष नहीं है, दोष उस बीज का है, जिसका रोपण मौलाना आजाद ने किया था।