“सृष्टि की उत्पत्ति और इसकी व्यवस्था ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है”

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मनमोहन कुमार आर्य,

हम जिन पदार्थों व वस्तुओं को आंखों से प्रत्यक्ष देखते हैं उनके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। जो पदार्थ हमें दीखते नहीं हैं उन्हें हम प्रायः स्वीकार नहीं करते। ईश्वर है या नहीं, इसका उत्तर सामान्य बुद्धि के लोग यही कहते हैं कि दिखाई न देने के कारण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं है। सम्भवतः इसी कारण कुछ लोगों ने ईश्वर के साकार रूप को स्वीकार किया और अवतारवाद की मिथ्या मान्यता भी बनाई व स्वीकार की। सृष्टि के आरम्भ से भारत में वेदों का प्रचार है। वेद ईश्वर के अस्तित्व को न केवल स्वीकार करते हैं अपितु उसके विषय में अनेक प्रकार के प्रमाण व उद्धरण भी देते हैं। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय में ईश्वर को जड़ चेतन समस्त जगत् में व्यापक बताया गया है। वहां कहा गया है ईशा वास्यमिदं सर्वम् इसका अर्थ किया जाता है कि ईश्वर जगत के कण-कण में और सर्वत्र, अखण्ड व एकरस, निरवयव स्वरूप से विद्यमान है। यदि इसका प्रमाण जानना हो तो यह सृष्टि व समस्त प्राणी जगत सहित सृष्टि में कार्य कर रहे नियम व व्यवस्थाओं को देख व जानकर मिलता है। यह कैसे ज्ञात हो, इस पर हम विचार कर सकते हैं।

 

हम जानते हैं कि कोई भी बुद्धिपूर्वक रचना निमित्त कारण, उपादान कारण एवं साधारण कारण के समन्वय से बनती व बन सकती है। इस सृष्टि की रचना में सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी और सर्वशक्तिमान ईश्वर सृष्टि की रचना का निमित्त कारण हैं। वह प्रकृति से सृष्टि को बनाता है परन्तु इसके बनाने से उसके स्वरूप में कोई परिवर्तन या बदलाव नहीं होता। वह सृष्टि रचना से पूर्व जैसा होता है, रचना के बाद भी वैसा ही रहता है। सृष्टि का उपादान कारण सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति है। यह प्रकृति जड़ है जिसमें ज्ञान व स्वतः कुछ प्रयोजन सिद्ध करने वाली वस्तु बनने की क्षमता नहीं है। सर्वव्यापक ईश्वर ही इस प्रकृति से सृष्टि की रचना कर सकते हैं। देश, काल व दिशा आदि को साधारण कारण कह सकते हैं। ईश्वर, जीव व प्रकृति तीन अनादि, नित्य व अविनाशी सत्तायें हैं। ईश्वर ज्ञानवान व अनन्त बल से युक्त है, अतः उसे सृष्टि की रचना का अनादिकाल से ज्ञान है और वह अनादिकाल से सृष्टि को बनाता, इसका पालन व प्रलय करता आ रहा है। प्रलय के बाद पुनः सृष्टि बनती है और 1 कल्प तक विद्यमान रहने के बाद ईश्वर के द्वारा इसकी प्रलय कर दी जाती है। जीवात्मा भी इस सृष्टि की दूसरी प्रमुख सत्ता व नित्य पदार्थ है। यह अल्पज्ञ चेतन ज्ञान, प्रयत्न व क्रिया गुण वाली सत्ता है। ईश्वर संख्या में एक है और जीव संख्या में अनन्त हैं। इन जीवों के पूर्व जन्मों वा योनियों के कर्मों के फलों का भोग कराने के लिये ही ईश्वर इस नाम व रूप वाली सृष्टि की रचना व संचालन करते हैं। इन तीन अनादि पदार्थों में से एक भी न हो तो सृष्टि बन नहीं सकती। जड़ सृष्टि की रचना के साथ ही ईश्वर ने जीवों के सूक्ष्म शरीर भी बनाये हैं। यह सूक्ष्म शरीर सभी जीवात्माओं के साथ प्रलय काल तक रहते हैं। जन्म से पूर्व गर्भाधान के समय यह जीव व सूक्ष्म शरीर ही पिता के शरीर से माता के शरीर में आते हैं। दश मास तक माता के गर्भ में पल्लवित होते हैं और इसके बाद इनका बालक व बालिका शिशु रूप में जन्म होता है। यह सृष्टि माता-पिता-आचार्य-राजा के समान ईश्वर ने अपनी अनादि प्रजा जीवों को उनके पूर्वजर्न्मों के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःख रूपी फल प्रदान करने के लिये बनाई है। सृष्टि रचना व जीवों के प्राणियों के रूप में जन्म से सम्बन्धित सभी प्रश्नों व शंकाओं का निराकरण ऋषि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में किया है। यही कारण है कि सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश पढ़ना चाहिये जिससे उनकी ईश्वर, सृष्ट्यित्पत्ति आदि सभी भ्रान्तियों का निवारण हो सके।

 

लोग प्रश्न कर सकते हैं कि इस सिद्धान्त को वह किस आधार पर सत्य स्वीकार करें? इसका उत्तर है कि यह सत्य सिद्धान्त है इसलिये इसे स्वीकार करना चाहिये। सृष्टि रचना बिना चेतन सर्वज्ञ सत्ता ईश्वर के प्रकृति के द्वारा स्वमेव नहीं हो सकती। यदि कल्पना करें कि सृष्टि सदा से रची हुई है तब भी बिना इसके संचालक, पालक  व व्यवस्थापक के चल नहीं सकती। इसका कारण सृष्टि व उसके सभी पदार्थों का जड़ होना है। लोक-लोकान्तरों के आकार्षण-अनुकर्षण सहित ईश्वर ने इस समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किया हुआ है। हम कृषि कार्य का उदाहरण ले सकते हैं। मान लीजिये कि हमारे पास बीज, खेत, खाद व जल आदि सभी कुछ हैं। उन बीजों को एक बोरी में खेत में रख दिया जाये तो वह उस रूप में कदापि नहीं उग सकते जिस रूप में व्यवस्थापूर्वक एक किसान व माली उगाता है। जो कार्य किसान करता है वह बीज व अन्य पदार्थ जड़त्व के गुण होने के कारण स्वमेव नहीं कर सकते। यहां किसान की लगभग वही भूमिका है जो सृष्टि की रचना में ईश्वर की होती है। ईश्वर के पास अनन्त ज्ञान व शक्ति दोनों है। सृष्टि प्रकृति से बन तो सकती है परन्तु तभी बन सकती है जब कोई सृष्टि बनाने के ज्ञान व सामर्थ्य से युक्त सत्ता उसका निर्माण करें। यह सामर्थ्य व ज्ञान सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान ईश्वर में ही है। वही इसे बनाता है। भौतिक सृष्टि बन जाने के बाद परमात्मा अमैथुनी जैविक व प्राणी सृष्टि को उत्पन्न करता है। इतना ही नहीं, सृष्टि सुचारू रूप से चले एवं किसी प्राणी को अपने जीवन संचालन में कोई कठिनाई न हो वह उनको ज्ञान भी प्रदान करता है। मनुष्येतर प्राणियों को वह उनके जीवनयापन हेतु स्वाभाविक ज्ञान देता है। उन्हें सीखने के लिये अपने माता-पिता व आचार्य आदि का आश्रय नहीं लेना पड़ता। इसका ज्ञान उन्हें ईश्वर प्रदत्त होता है। क्या खाना है, कैसे खाना है, आदि का ज्ञान उन्हें होता है। परमात्मा आदि अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों को ऋषियों के माध्यम से चार वेदों का ज्ञान देते हैं। वेद में संस्कृत भाषा भी है और ज्ञान भी है। इस भाषा का प्रयोग कर ही लोग आपस में व्यवहार करते हैं। इस प्रकार से यह सृष्टि अस्तित्व में आती है।

 

इसके बाद ईश्वर जीवों के पाप-पुण्य के अनुसार उनको सुख व दुःख रूपी फल देने की व्यवस्था करते हैं। ईश्वर वर्ण अर्थात् रंग रहित, अत्यन्त सूक्ष्म व सर्वव्यापक होने से दिखाई नहीं देता। आंख में तिनका पड़ जाये तो वह हमें अपनी आंखों से दिखाई नहीं देता है। उसे देखने के लिये दर्पण का प्रयोग करते हैं या कोई दूसरा व्यक्ति उसे देखकर निकाल सकता है। ईश्वर सर्वव्यापक है अतः वह आंख के भीतर व बाहर दोनों स्थानों पर है। आंख के सबसे निकटतम वही परमात्मा है। सर्वव्यापक होने से ईश्वर इतना दूर भी है जिस दूरी की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। बहुत दूर की वस्तु भी हमें दिखाई नहीं देती है। ऐसे अनेक कारण ईश्वर के दिखाई न देने के हैं। एक तर्कपूर्ण वैज्ञानिक सिद्धान्त यह भी है कि हमें गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नहीं। किसी भी दृश्य व अदृश्य द्रव्य का प्रत्यक्ष उसके गुणों से होता है। द्रव्य के गुण उसके गुणी द्रव्य में रहते हैं। बिना किसी गुण के द्रव्य का अस्तित्व नहीं होता। यदि गुण हैं तो उन गुणों का धारक व अधिष्ठाता गुणी द्रव्य अवश्य होता है। हम एक आम का उदाहरण ले सकते हैं। आंखों से हम आम की आकृति व रूप का दर्शन करते हैं। सूंघ कर उसकी गन्ध का तथा चख कर उसके स्वाद का। यह गन्ध, स्वाद व स्पर्श के गुण आम रूपी द्रव्य में विद्यमान हैं जिन्हें हम आंखों से तो देख नहीं पाते परन्तु अन्य ज्ञानेन्द्रियों नाक, जिह्वा आदि से जान सकते हैं कि द्रव्य क्या है। इस प्रकार गुणों से गुणी का प्रकाश व सिद्धि होती है। इस सृष्टि के अनेक पदार्थों में रचना विशेष आदि जो-जो गुण प्रत्यक्ष हो रहे हैं वह गुण उन द्रव्यों में ईश्वर के द्वारा ही अस्तित्व में आते हैं, स्वमेव नहीं। इन विशिष्ट गुणों वाले द्रव्यों का रचयिता व संचालक ईश्वर ही सिद्ध होता है। यदि हम अपनी आंख का उदाहरण लें तो एक चिकित्सक की भांति जब हम इसका ज्ञान प्राप्त करते हैं तो हमें यह प्रत्यक्ष ज्ञान होता है कि आंख की रचना स्वतः न होकर एक अलौकिक, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान सत्ता से हुई है। यही गुणों को देखकर गुणी का अनुमान होना है और यह ज्ञान प्रत्यक्ष होता व निभ्रान्त ही होता है।

 

ईश्वर के अस्तित्व का एक प्रमाण यह भी है कि प्राणधारी मनुष्य को यह पता नहीं होता कि उसकी कब मृत्यु होगी, उसके बाद कहां व किस योनि में उसका जन्म होगा। एक अदृश्य सत्ता ईश्वर द्वारा वृद्धावस्था, रोग व दुर्घटना आदि के होने पर उसकी मृत्यु होती है। ईश्वर के द्वारा उसके शरीर से जीवात्मा सूक्ष्म शरीर सहित निकलती है और प्रारब्ध के अनुरूप उसके भावी माता-पिता के पास जाकर वहां पिता व माता के शरीर में प्रविष्ट होकर गर्भ में स्थित होती है। यह काम परमात्मा करता है, जीवात्मा स्वमेव नहीं कर सकता। ईश्वर ही मृत्यु व जन्म का निमित्त कारण होता है। माता के गर्भ में जीवात्मा के शरीर आदि का निर्माण व उसके बाद जन्म ईश्वर नामी चेतन सर्वशक्तिमान सत्ता के द्वारा ही सम्भव होता है। वैदिक दर्शन ग्रन्थों व सत्यार्थप्रकाश आदि में ईश्वर के अस्तित्व के अनेक प्रमाण दिये गये हैं जो यथार्थ व सत्य हैं। ईश्वर है और उसी ने प्रकृति नामी उपादान कारण से इस समस्त जड़ जगत व प्राणी जगत को उत्पन्न किया है। यदि इस लेख से किसी को ईश्वर के अस्तित्व को जानने में किंचित सहायता मिलती है तो हम अपना परिश्रम सार्थक समझेंगे।

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