राहुल गांधी की भारत जोड़ा यात्रा के निहितार्थ

0
170

-ललित गर्ग-

श्रीनगर के लाल चौक पर कांग्रेस एवं उसके नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का भव्य समापन निश्चित ही कांग्रेस को नवजीवन देने का माध्यम बना है, इससे राहुल गांधी की छवि एकदम नये अन्दाज में उभर कर सामने आयी है और एक सकारात्मक राजनीति की पहल हुई है। वैसे भी भारत की माटी में पदयात्राओं का अनूठा इतिहास रहा है। असत्य पर सत्य की विजय हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा की हुई लंका की ऐतिहासिक यात्रा हो अथवा एक मुट्ठी भर नमक से पूरा ब्रिटिश साम्राज्य हिला देने वाला 1930 का डाण्डी कूच, बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा हो अथवा राष्ट्रीय अखण्डता, साम्प्रदायिक सद्भाव और अन्तर्राष्ट्रीय भ्रातृत्व भाव से समर्पित एकता यात्रा, यात्रा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भारतीय जीवन में पैदल यात्रा को जन-सम्पर्क का सशक्त माध्यम स्वीकारा गया है। ये पैदल यात्राएं सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। लोक चेतना को उद्बुद्ध कर उसे युगानुकूल मोड़ देती हैं। भगवान् महावीर ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रदेशों में विहार कर वहां के जनमानस में अध्यात्म के बीज बोये थे। जैन मुनियों की पदयात्राओं का लम्बा इतिहास है। वर्ष में प्रायः आठ महीने वे पदयात्रा करते हैं, जैन आचार्य श्री महाश्रमण ने भी तीन पडोसी देशों सहित सम्पूर्ण भारत की अहिंसा यात्रा की। इन यात्राओं की श्रृंखला में राजनीति उद्देश्यों के लिये राहुल गांधी की यात्रा ने नये स्तस्तिक उकेरे हैं। भले ही अनेक मोर्चों पर राहुल की यह यात्रा विवादास्पद बनी, आलोचनाओं की शिकार हुई। लेकिन इस सब स्थितियों के बावजूद राहुल गांधी ने राजनीतिक पटल पर वो कारनामा कर ही दिखाया जिसकी उम्मीद उनके विपक्षी तो दूर की बात, अपने भी नहीं करते थे।
इस भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से राहुल गांधी ने एक इतिहास गढ़ा है, कन्याकुमारी से कश्मीर तक 147 दिन की भारत जोड़ो यात्रा पूरी कर राहुल अपने राजनीतिक विरोधियों के साथ-साथ अपनों को भी एक संदेश देने में कामयाब रहे हैं। संदेश यह कि धीरे-धीरे ही सही उन्होंने अपनी अपरिपक्व राजनेता की छवि में बदलाव लाने का प्रयास किया है। यह बदलाव उन्हें गंभीर, अनुभवी एवं राजनीतिक कौशल में दक्ष नेताओं की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। महात्मा गांधी की पुण्यतिथि यानी शहीद दिवस पर यात्रा के समापन पर कुछ बड़ी अटपटी एवं राजनीतिक बातें कहकर नई बहस छेड़ दी है। राष्ट्रध्वज फहराने के बाद जम्मू-कश्मीर में कानून एवं व्यवस्था को लेकर जो प्रश्न उठाए, वे इसलिए हास्यास्पद लगे कि स्थितियां अच्छी नहीं होतीं तो क्या वे वहां पर तिंरगा फहरा सकते थे? सुरक्षा एवं व्यवस्था के हालात अच्छे बने हैं तभी उनकी यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न हो पायी। इसके लिये उन्हें सरकार का आभार जताना चाहिए न कि आलोचना की जाये। उन्होंने अपनी इस यात्रा को न तो अपने लिए बताया और न ही कांग्रेस पार्टी के लिए। बल्कि कहा कि यह यात्रा देश के लिए थी। राजनेताओं द्वारा देश एवं देश की जनता के नाम पर ऐसे प्रपंच होते रहे हैं। यह सर्वविदित है कि कांग्रेस की लगातार निस्तेज होती छवि एवं स्थिति में प्राण फूंकने, उम्मीद जगाने एवं जोश भरने के लिये एक ऐसी यात्रा या ऐसे बड़े उपक्रम की जरूरत थी, उस उद्देश्य को पूरा करने एवं लक्ष्य हासिल करने में यात्रा सफल रही है। जिसने भी इस तरह की यात्रा की सलाह दी, वह अवश्य ही राजनीति का अनुभवी व्यक्ति रहा है।
जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का साहसिक फैसला लेने के बाद ऐसे अनेक कदम उठाए गए, जिनसे आतंकियों और अलगाववादियों के दुस्साहस का दमन हुआ। घाटी में शांति एवं अमन कायम करने में भाजपा के प्रयत्नों की सराहना भले ही वे राजनीतिक कारणों से न कर पाये, लेकिन ऐसे अवसर सुरक्षा एवं व्यवस्था जैसे प्रश्नों को उठाना उचित नहीं था। घाटी के बदले हुए वातावरण के कारण ही कांग्रेस कश्मीर में भारत जोड़ो यात्रा कर सकी। यदि हालात बेहतर नहीं होते तो संभवतः वहां भारत जोड़ो यात्रा प्रतीकात्मक रूप से ही हो पाती। शहरों, देहातों, खेड़ों और ग्रामीण अंचलों में जाकर सामूहिक एवं व्यक्तिगत जनसम्पर्क करते हुए राहुल गांधी ने कांग्रेस के राष्ट्र-निर्माण में योगदान के इतिहास को जीवंत किया है। उन्होंने अनेक प्रभावी प्रतीकों एवं बयानों से नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा सरकार पर हमले भी किये हैं। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अब तक के अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस को आज एक करिश्माई नेता की जरूरत है, जो मोदी जैसे सशक्त नेता एवं भाजपा जैसी सुदृढ़ पार्टी का मुकाबला कर सके। स्वयं को देश का नेतृत्व करने में सक्षम साबित कर सके। राहुल गांधी की पप्पू छवि के कारण ऐसा दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन अब राहुल भले ही पूरी तरह नहीं, पर आंशिक रूप में मोदी को चुनौती देने वाले नेता के रूप में उभरे है। इसे लोकतंत्र के लिये एक शुभ घटना के रूप में देखा जाना चाहिए। राहुल की इस यात्रा से पार्टी को कितना और खुद राहुल को कितना फायदा होगा यह भविष्य ही बताएगा। श्रीनगर एवं देश के अन्य हिस्सों में भी इस यात्रा के माध्यम से विपक्षी दलों की एकता के व्यापक प्रयत्न हुए, लेकिन उनमें अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। श्रीनगर में भी मौसम की खराबी के कारण विपक्ष का कोई बड़ा नेता नहीं पहुंच सका।
भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से यह प्रभावी तरीके से उद्घाटित हुआ कि राहुल गांधी ही कांग्रेस के सर्वोच्च नेता हैं। पार्टी के भीतर उफने विद्रोह की लौ को शांत करने के लिये भी यह यात्रा निकाली गयी हो, इसके कोई सन्देह नहीं है। अपनी नयी छवि एवं ऊर्जाशील बने राहुल अब विपक्षी एकता को लेकर क्या कदम उठाते हैं, पार्टी के भीतरी कलह को कितना शांत कर पाते है, भाजपा को भी ऐसी यात्रा निकालने जैसी कितनी चुनौतियां वे दे पाते हैं, भाजपा के विरोध में खड़े दल क्या राहुल के नेतृत्व में एकजुट हो पायेंगे, ये सब देखना दिलचस्प रहेगा। राहुल को अपने विरोधाभासी बयानों से बचना होगा। अभी तक वे बहुत सशक्त रूप में यात्रा का उद्देश्य भी नहीं बता पाये हैं। कहने को तो भारत जोड़ो यात्रा देश में नफरत के वातावरण को दूर करने के लिए की गई, लेकिन जब यह यात्रा दिल्ली आई तो स्वयं राहुल गांधी ने कहा कि उन्होंने करीब 2800 किलोमीटर की अपनी यात्रा में कहीं पर भी नफरत नहीं देखी। क्या इसका यह अर्थ नहीं कि देश में नफरत फैलने का निराधार शोर मचाया जा रहा था? घाटी में अशांति एवं अव्यवस्था का राग अलापा जा रहा है। इस तरह अनेक मोर्चों पर राहुल गांधी खुद ही भाजपा की उपलब्धियों के कसीदें काढ़ते दिखे। चाहे देश नफरत का न होना हो या कश्मीर में शांति व्यवस्था का बने होना हो।
निस्संदेह, हर पदयात्रा के राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा की शुरुआत ऐसे वक्त में की थी जब देश को आजादी के लिये जोड़ने एवं कांग्रेस में स्फूर्ति लाने की महती आवश्यकता थी। वहीं चंद्रशेखर भी पार्टी के आंतरिक राजनीतिक हालात से क्षुब्ध थे। लालकृष्ण आडवानी ने हिन्दुत्व को मजबूती देने के लिये यात्रा की। उन यात्राओं ने देश का मिजाज बदलने में अपना योगदान दिया था और आज भी उन यात्राओं को याद किया जाता है। क्या राहुल गांधी की यात्रा को भी याद किया जाएगा? क्या कमोबेश कांग्रेस पार्टी अपने संक्रमणकाल से उभर पायेगी? नेतृत्व के प्रश्न पर भी कोई उजाला होगा? क्या लगातार निस्तेज होती पार्टी में प्राण-संचार हो पायेगा? इन  जटिल से जटिलतर स्थितियों से उबरने में इस यात्रा ने अच्छी भूमिका निभाई है, लेकिन उसका असर एवं प्रभाव देखना बाकी है। एक बड़ा लक्ष्य कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष को एकजुट करने का भी है। लेकिन एक बड़ा प्रश्न है कि क्या इस यात्रा के माध्यम से देश की जनता को आकर्षित करने एवं उनकी समस्याओं के समाधान करने वाला कोई विमर्श खड़ा करने की भूमिका तैयार हुई है? राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, एक महत्वाकांक्षी राजनीतिक परियोजना थी, इससे एक नेता के रूप में उनकी स्वीकार्यता को सुनिश्चित किया गया है। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

15,446 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress