-ललित गर्ग-
सुप्रीम कोर्ट ने अपने दो हालिया फैसलों में धर्मनिरपेक्षता की विस्तृत व्याख्या करते हुए इसे और मजबूती दी है। असल में धर्मनिरपेक्षता को लेकर संविधान-निर्माताओं का मुख्य उद्देश्य धार्मिक सहिष्णुता, समानता एवं बंधुत्व भाव से था, लेकिन बाद में यह शब्द भ्रामक हो गया और इसने धर्म के अस्तित्व को ही नकार दिया। राजनेताओं ने अपने-अपने हितों को साधने के लिये इस धर्मनिरपेक्षता शब्द के वास्तविक अर्थ एवं भावना को ही धुंधला दिया। सर्वोच्च अदालत ने बीते सोमवार को संविधान के 42वें संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं के बाबत धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना का हिस्सा बताया और स्पष्ट संकेत दिया है कि धर्मनिरपेक्षता को पश्चिमी देशों से आयातित शब्द के नजरिये से देखने के बजाय भारतीय संविधान की आत्मा के रूप में देखना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की मूल विशेषता बताते हुए कोर्ट ने कहा कि संविधान में वर्णित समानता व बंधुत्व शब्द इसी भावना के आलोक में वर्णित हैं। साथ ही धर्मनिरपेक्षता को भारतीय लोकतंत्र की अपरिहार्य विशेषता बताते हुए कहा कि यह समाज में व्यापक दृष्टि वाली उदार सोच को विकसित करने में सहायक है। जिसके बिना स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। जो राष्ट्रीय एकता का भी आवश्यक अंग है।
ध्यातव्य है कि 42वें संविधान संशोधन के बाद भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया, लेकिन ‘पन्थनिरपेक्ष’ शब्द का प्रयोग भारतीय संविधान के किसी अन्य भाग में नहीं किया गया है। वैसे संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद मौजूद हैं जिनके आधार पर भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य कहा जाता है क्योंकि भारत का संविधान देश के नागरिकों को यह विश्वास दिलाता है कि उनके साथ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। संविधान में भारतीय राज्य का कोई धर्म घोषित नहीं किया गया है और न ही किसी खास धर्म का समर्थन किया गया है। इसका कारण भारत में अनेकों धर्म और सम्प्रदाय प्रचलित हैं। अतः संविधान निर्माताओं ने इसको धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में स्वीकार किया। भारतीय समाज का बहुधर्मी व विभिन्न संस्कृतियों का गुलदस्ता होना भी इसकी अपरिहार्यता को दर्शाता है। निश्चित रूप से अदालत ने इस मुद्दे पर अपनी राजनीतिक सुविधा के लिये तल्खी दिखाने वाले नेताओं को भी आईना दिखाया है। पूर्व राष्ट्रपति डा. एस. राधाकृष्णन् ने धर्म निरपेक्षता शब्द के व्यापक हार्द को स्पष्ट करते हुए कहा था- ‘धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ अधर्मी होना अथवा संकुचित धार्मिकता पर चलना नहीं होता, वरन इसका अर्थ पूर्णतः आध्यात्मिक होना होता है। निरपेक्ष का अर्थ है कि राष्ट्र की ओर से किसी धर्म विशेष का प्रचार-प्रसार नहीं किया जाएगा। सब धर्मों के प्रति समानता का व्यवहार किया जाएगा।’ भारत के लोकतंत्र एवं संविधान की यही विशेषता है कि इसमें किसी एक धर्म को मान्यता न देकर सभी धर्मों को समान नजर से देखा जाता है।
आजकल धर्मनिरपेक्षता को लेकर चलने वाली बहसें अक्सर जिस तरह का तीखा रूप ले लेती हैं, उसके मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग इन दो फैसलों में इसकी अहमियत रेखांकित हुई है। एक मामले में सर्वाेच्च अदालत ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा करार दिया तो दूसरे मामले में इसकी संकीर्ण व्याख्या से उपजी गड़बड़ियां दुरुस्त कीं। दूसरा मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन एक्ट 2004 को रद्द किए जाने से जुड़ा था, जिसे मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने गलत करार दिया। हाईकोर्ट ने इस एक्ट को धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ माना था। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की इस संकीर्ण व्याख्या के चलते प्रदेश के 13 हजार से ज्यादा मदरसों में पढ़ रहे 12 लाख से अधिक छात्रों के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे थे। मगर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जरूरत मदरसों को बैन करने की नहीं बल्कि उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की है। लेकिन यहां एक प्रश्न यह भी है कि क्या मदरसे मुख्यधारा में आने को तैयार है? क्या मदरसे एक धर्म-विशेष से जुड़ा मामला नहीं है? अदालत का यह मानना कि मदरसों पर रोक लगाने के बजाय उनके पाठ्यक्रम को वक्त की जरूरत और राष्ट्रीय सोच के अनुरूप ढाला जाना चाहिये, उचित एवं संविधान की मूल भावना के अनुरूप है। जिससे छात्रों की व्यापक दृष्टि विकसित हो सके। लेकिन क्या ऐसा संभव है? क्या मदरसे अपने पाठ्यक्रम को संकीर्ण दायरों से बाहर निकाल कर व्यापक परिवेश में नया रूप दे पायेंगे? ऐसा होता है तो अदालत की सोच से भारत की एकता एवं अखण्डता को नयी ऊर्जा मिलेगी। फिर तो अदालत का दो टूक कहना कि यदि किसी भी प्रकार से धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा कमजोर पड़ती है तो अंततः इसका नुकसान समाज व देश को ही उठाना पड़ेगा, सही है। भारतीय समाज में सदियों से फल-फूल रही गंगा-जमुनी संस्कृति के पोषण देने के लिये सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों को समानता से, बंधुत्व भावना से एवं उदारता से ही देखा जाना चाहिए।
आज धर्म-निरपेक्षता शब्द को लेकर राजनेता एवं राजनीति दो भागों में बंटी हुई है। समाज भी दो भागों मे बंटा है। आजादी के समय एवं संविधान को निर्मित करते हुए अंग्रेजी के सेक्युलर शब्द का अर्थ धर्म करना भ्रामक हो गया। तब के इसी धर्म-निरपेक्ष शब्द के कारण आज विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती, जिसका परिणाम यही है कि आज विद्यार्थियों का सर्वांगीण व्यक्तित्व-निर्माण नहीं हो रहा है। मैंने अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य तुलसी के साथ विभिन्न राजनेताओं, धर्मगुरुओं, साहित्यकारों, पत्रकारों की इस शब्द को लेकर चर्चाओं में सहभागिता की। व्यापक सोच वाले आचार्य तुलसी का विश्वास रहा कि हिन्दुस्तान सम्प्रदाय निरपेक्ष होकर अपनी एकता को बनाए रख सकता है किन्तु धर्महीन होकर एकता को सुरक्षित नहीं रख सकता। लोकतंत्रीय राष्ट्र पर किसी सम्प्रदाय अथवा पंथ का आधिपत्य हो तो वह अपने लोकतंत्रीय स्वरूप को सुरक्षित नहीं रख सकता। इसलिए लोकतंत्रीय राष्ट्र का सम्प्रदाय अथवा पंथ-निरपेक्ष होना अनिवार्य है। साम्प्रदायिक कट्टरता में सहिष्णुता नहीं होती है अतः राजनीति किसी सम्प्रदाय विशेष की अवधारणा से संचालित नहीं होनी चाहिए। इसलिये संविधान में धर्मनिरपेक्ष के स्थान पर सम्प्रदाय-निरपेक्ष, मजहब-निरपेक्ष अथवा पंथ-निरपेक्ष शब्द का प्रयोग होना चाहिए। सम्प्रदाय निरपेक्ष होने का तात्पर्य धर्मनिरपेक्ष, धर्महीन या धर्मविरोधी होना नहीं हैं।’
इसी कारण धर्मनिरपेक्ष शब्द के कारण राजनैतिक दलों के अलग-अलग खेमे बन गए। इससे धर्म विशेष को लेकर पार्टी के द्वारा वोटों की राजनीति चलने लगी। इसीलिये आचार्य श्री तुलसी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पी. वी. नरसिम्हाराव से इस संदर्भ में विस्तृत चर्चा करते हुए कहा- ‘‘जब तक सेक्युलर शब्द का सही अर्थ नहीं होगा, आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों की समस्या नहीं सुलझ सकती।’’ राजीव गांधी ने इस संदर्भ में नोट्स मांगे। उन्हें विस्तार से सारी बातें उपलब्ध कराई गईं। कुछ समय बाद संविधान में सेक्युलर शब्द का अर्थ धर्मनिरपेक्ष बदलकर संप्रदायनिरपेक्ष कर दिया गया।’ लेकिन संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी। इसीलिये संविधान के 42वें संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है। सर्वाेच्च अदालत के फैसले से यह भी साफ हुआ कि संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़े जाने का मतलब यह नहीं है कि इससे पहले धर्मनिरपेक्षता संविधान का अहम हिस्सा नहीं थी। चाहे समानता के अधिकार की बात हो या संविधान में आए बंधुत्व शब्द की या फिर इसके पार्ट 3 में दिए गए अधिकारों की, ये सब इस बात का साफ संकेत हैं कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल विशेषता है। अदालत ने यह भी कहा कि चाहे धर्मनिरपेक्षता हो या समाजवाद, इन्हें पश्चिम के संदर्भ में देखने की जरूरत नहीं। भारतीय परिवेश ने इन शब्दों, मूल्यों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं को काफी हद तक अपने अनुरूप ढाल लिया है। वैसे भारतीय समाज ने इस शब्द के मूल भाव का सहजता से अंगीकार किया भी है। यही वजह है कि कोर्ट ने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान का मूल स्वर बताते हुए इसकी संकुचित व्याख्या करने से बचने के लिये हिदायत दी है।