गरीब को पहचानने की कोशिश में विदूषक नजर आते सभी पात्र

डॉ.  कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

भारत का योजना आयोग इस देश में गरीब को पहचानने की कोशिश में लगा हुआ है। इस आयोग ने इस काम के लिए देश के जाने-माने अर्थशास्त्रियों को भी लगाया है। वैसे तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं भी अपने आपको अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री कहते हैं। उनके मित्र मोंटेक सिंह अहलुवालिया भी दुनिया से गरीबी को समाप्त करने की नई-नई स्कीमें बताते रहते हैं। बड़ी लम्बी मशक्कत और माथा-पच्ची के बाद मनमोहन सिंह और अहलुवालिया ने योजना आयोग के द्वारा दूसरे अर्थशास्त्रियों की सहायता से अन्त में गरीब को खोज ही लिया। इनके अनुसार गांव में जो व्यक्ति एक दिन में 26 रुपये कमाता है और शहर में जो एक दिन में 32 रुपये कमाता है वह गरीब नहीं है। उससे नीचे कमाने वाले लोग गरीब हैं। गरीब की पहचान करना सरकार के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि यदि उसकी सही शिनाख्त हो जाएगी तभी उसके उत्थान के लिए सरकार अपनी योजनाएं बना सकेगी। मोंटेक सिंह अहलुवालिया और मनमोहन सिंह आपस में घनिष्ठ मित्र भी हैं। दोनों रिसर्च स्कॉलर हैं। जाहिर है कि दोनों अपनी रिसर्च को एक-दूसरे के साथ शेयर भी करते होंगे और निष्कर्षों पर सहमति भी जताते होंगे। अहलुवालिया ने गरीब को खोजने के बाद जो निष्कर्ष निकाला, मनमोहन सिंह ने भी उस पर अपनी मुहर लगा दी। तब भारत सरकार ने अपना शोधपत्र प्रकाशित किया जिसमें 26 व 32 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से ऊपर रखा गया। यदि सिंह और अहलुवालिया गरीबी रेखा को दर्शाने वाला अपना शोधपत्र विश्व बैंक के किसी सेमिनार में प्रस्तुत करें तो हो सकता है कि वहां उन्हें भरपूर तालियों का सम्मान मिले और इतनी गहरी खोज के लिए उनके लिए कशीदे भी पढ़े जाएं। परन्तु दुर्भाग्य से उनके शोधपत्र को हिन्दुस्थान की जनता समझ नहीं पाई। जिस जनता के लिए प्रधानमंत्रीनुमा रिसर्च स्कॉलर और रिसर्च स्कॉलरनुमा प्रधानमंत्री अपना शोधपत्र लिख रहे थे, उस जनता को इनकी विद्वता तो समझ नहीं आई लेकिन उसे इतना जरूर पता था कि 26 और 32 रुपये प्रतिदिन कमाने वाला व्यक्ति कम-से-कम अमीर नहीं होता है। शुरु में तो मनमोहन सिंह को गुस्सा ही आया होगा। ऐसा गुस्सा जिसमें बहुत मेहनत करके लिखे गए रिसर्च पेपर पर किसी सेमिनार में दाद न मिलने पर आता है इसीलिए उन्होंने मोंटेक सिंह अहलुवालिया को प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए कहा ताकि इस देश की अनपढ़ जनता को इस रिसर्च पेपर के कीमती निष्कर्ष को समझाया जा सके। अहलुवालिया अपनी विद्वता के सम्मान की रक्षा के लिए अंग्रेजी में एक लंबी प्रेस कॉन्फे्रस करके यह समझाने का प्रयास करते रहे कि दिनभर में 32 रुपये कमाने वाला व्यक्ति किन कारकों के आधार पर अमीर बनता है? मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलुवालिया की जोड़ी की ये हरकतें देखकर कई बार ऐसा लगने लगता है कि कहीं ये लोग चन्द्रलोक से तो नहीं आए, जिन्हें भारत में गरीब को जानने-पहचानने के लिए ही दिन-रात इतनी महेनत करनी पड़ रही है और उसके बाद जो निष्कर्ष निकलते हैं उनका वास्तविकता से कोई ताल्लुक नहीं होता। रिसर्च करते समय जब डाटा मेन्युफैक्चर किया जाता है तो आमतौर पर उसी प्रकार के नतीजे निकलते है जिस प्रकार के नतीजे इस जोड़ी ने निकाले हैं। यदि सोनिया गांधी भारत में गरीबों की ऐसी परिभाषा करती तो समझ आ सकता था क्योंकि उनको भारत की लगभग उतनी ही समझ है जितनी मणीशंकर अय्यर को वीर सावरकर की। परन्तु सिंह द्वय की इस जोड़ी ने जो कारनामा किया है वह भारत को शर्मशार करने वाला है। ऊपर से विचारणीय यह कि गरीब की इस नई परिभाषा को सोनिया गांधी की राय साहबों और राय बहादुरों की सलाहकार परिषद् ने बाकायदा पारित किया है। आजकल भारतवर्ष में सरकार को जो भी निर्णय लेना होता है उस पर इस परिषद् की मोहर लगाना वैसे भी एक प्रकार से लाजमी हो गया है। वास्तव में अब सरकार की कार्य प्रणाली एक प्रकार से उलट गई है। अब निर्णय राय साहबों और राय बहादुरों की यह परिषद् लेती है। विधानपालिका तो उस पर संवैधानिक ठप्पा लगाकर कार्यपालिका के हवाले कर देती है। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि यह असंवैधानिक है और लोकतंत्र की शक्ति को धीरे-धीरे साेंखने वाला है। परन्तु जब बाढ़ ही खेत को खाने लगे तो इतिहास में ऐसे मरहले दिखाई देते ही हैं।

उसी पुरानी स्क्रिप्ट से भारत के रंगमंच पर एक बार फिर अभिनय चालू हो गया है। स्क्रिप्ट में लिए गए संवादों के अनुसार राहुल गांधी गरीब की इस परिभाषा को लेकर नाराज होते दिखाई दे रहे हैं। स्क्रिप्ट का अगला अंश पर्दे के पीछे का काना-फूसियां है जो बाकायदा फेंडली चैनलों में सुनाई देना शुरु प्रारंभ हो चुका है। ये काना-फूसियां राहुल गांधी के गरीब की इस नई परिभाषा के प्रति उनकी चिंता, नाराजगी और उनके गुस्से को लेकर है। यह दृश्य रंगमंच पर कुछ देर तक दिखाया जाएगा। अगला दृश्य राहुल गांधी के प्रधानमंत्री से मिलने का है। वे स्वयं प्रधानमंत्री के पास जाकर गरीब और गरीबी को लेकर अपनी चिंताए जाहिर करेंगे और प्रधानमंत्री भी उसे उतनी ही गंभीरता से सुनेंगे। यह भी हो सकता है कि यहां एक दो संवाद स्क्रिप्ट प्रधानमंत्री के लिए भी लिए गए हों जिसमें प्रधानमंत्री कह सकते हैं कि राहुल गांधी से बातचीत के आधार पर उन्हें भारत की वास्तविकता का पहली बार पता चला है और उन्हें अनुभव हुआ है कि गरीब और गरीबी को लेकर अब तक निर्धारित किए गए उनके मानदंड ठीक नहीं थे। राहुल गांधी द्वारा दी गई सीख के आलोक में अपना रिसर्च पेपर दोबारा लिखेंगे।

इधर ऐसा भी सुनने में आया है कि नाटक इस मोड़ पर स्क्रिप्ट लेखक सोनिया गांधी के भी दो-तीन संवाद डालना चाह रहे थे। जिसमें गुस्से से तमतमाती हुई सोनिया गांधी गरीबों से किए जा रहे इस मजाक पर अपना रोष प्रकट करती और प्रधानमंत्री को उनके घर में जाकर भारत में सही गरीब को पहचानने के लिए सख्त आदेश देती। लेकिन सुना गया है कि बाद में स्क्रिप्ट में इन संवादों की जरूरत नहीं समझी गई क्योंकि बीमारी से उभरने के बाद राजमहल में यह तय हो गया कि ‘लगता है कि राहुल गांधी का अब शीघ्र हीं राज्याभिषेक कर देना चाहिए।’ इसीलिए भारत में गरीबों को लेकर चिंता दर्शाने वाले सभी संवाद राहुल गांधी के खाते में ही डाल दिए गए हैं।

इधर सोनिया गांधी की राय साहबों और राय बहादुरों की सलाहकार परिषद् भी राज दरबारों की पुरानी परम्परा के अनुसार सक्रिय हो गई है। उन्होंने भी इधर-उधर चैनलों में गर्दनें निकालनी शुरु कर दी हैं। उनके लिए लिखी गई स्क्रिप्ट बिल्कुल अलग है, वे पूरे नाटक में अचानक नट-नटी की तरह प्रवेश करते हैं और मंगलगीत गाकर गायब हो जाते हैं। उनका स्वर और मंगलगीत एक ही संकेत देता है कि यदि सरकार कुछ गलत कर रही है तो उसके लिए सरकार के प्यादे जिम्मेदार है। सोनिया गांधी का इसमें कोई हाथ नहीं है। जैसे हीं उनको अपने अज्ञात-सूत्रों से पता चलता है कि यह गलत हो रहा है, उसी वक्त सरकार को डांट लगाती है और उसे फिर आम भारतीय की जरूरतों का ध्यान रखने के लिए आगाह करतीं है। गरीब और गरीबों को लेकर भी इस दरबार सलाहकार परिषद् ने इसी प्रकार के गीत गाने शुरु कर दिए हैं। लेकिन इस पूरे नाटक में एक हीं बात की दाद देनी पड़ेगी कि नाटक में भाग लेने वाले पूरे पात्र रंगमंच पर आने से पहले ग्रीनरूम में इतनी जबरदस्त पूर्वाभ्यास कर लेते हैं कि रंगमंच पर कुछ देर के लिए तो इनका अभिनय सचमुच यथार्थ लगने लगता है। जैसे गंभीर मुद्रा में मनमोहन सिंह दिखाई देते हैं वैसे ही तनकर चलते हुए राहुल गांधी उनके पास आते हैं तथा नेपथ्य में आधुनिक तकनीक का लाभ उठाते हुए सोनिया गांधी छाया की तरह डोलती नजर आती हैं। संवादों की चुस्ती से लगता है कि सभी सचमुच गरीब की चिंता से दुबले पड़ते जा रहे हैं। 32 व 26 रुपये वाला दृश्य भी शायद पूरे नाटक में यह अतिरिक्त प्रभाव पैदा करने के लिए जोड़ा गया हो कि मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह जैसे भारतीय तो भारत की गरीबी को समझ नहीं पाते लेकिन सोनिया गांधी उनके इस दर्द को समझतीं है और इसीलिए मनमोहन सिंह को ठीक से काम करने का आदेश देतीं हैं। स्क्रिप्ट लिखने वाले को शायद आशा होगी कि नाटक देख रहे लोग इस अतिरिक्त प्रभावोत्पादन से अभिभूत होकर सोनिया जी की जय के नारे पंडाल में ही लगाना शुरु कर देंगे। लेकिन उनका दुर्भाग्य कि जब दर्शकों में से अधिकांश कुछ समय के बाद टिप्पणी करने लगते हैं कि ये सारे पात्र धीरे-धीरे विदूषक की मुद्रा में क्यों आ रहे हैं?

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