भूमंडलीकरण के दौर में खेल

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sportsआर्थिक बदलावों की आंधी से खेलों की दुनिया भी नहीं बची रह सकी। आज खेलों का अपना एक अलग अर्थशास्त्र है। पिछले दिनों भारत में आयोजित इंडियन प्रीमियर लीग यानी आईपीएल ने यह साबित कर दिया कि खेलों का बाजारीकरण किस हद तक किया जा सकता है और यह कितने भारी मुनाफे का सौदा है। हालांकि, पहले से ही क्रिकेट में पैसे की भरमार रही है लेकिन आईपीएल ने इस खेल की अर्थव्यवस्था को ऐसा विस्तार दिया है कि इसका असर लंबे समय तक बना रहेगा। बीते दिनों बीजिंग में संपन्न खेलों के महासमर यानी ओलंपिक ने भी यह साबित कर दिया कि खेलों की अपनी एक अलग अर्थव्यवस्था है और भूमंडलीकरण के इस दौर में इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

बहरहाल, अब हालत ऐसी हो गई है कि खेल प्रतिस्पर्धाएं कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बजट पर असर डालने लगी हैं। इस बात में किसी को भी संदेह नहीं होना चाहिए कि खेलों ने एक उद्योग का स्वरूप ले लिया है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में खेल उद्योग का आकार दस हजार करोड़ रुपए सलाना तक पहुंच गया है। बाजार ने खेलों को एक ऐसे उत्पाद में तब्दील कर दिया है कि इससे सामान्य जनजीवन पर असर पड़ने लगा है। मैच के हिसाब से लोग अपनी दिनचर्या तय करने लगे हैं। क्रिकेट के अलावा अगर देखें तो भारत में भी अब अन्य खेलों में पैसे का दखल बढ़ा है। ईएसपीएन-स्टार स्पोर्टस और भारतीय हाकी महासंघ द्वारा मिलकर आयोजित किए जाने वाले प्रीमियर हाकी लीग का बजट भी अच्छा-खासा है। गोल्फ में भी तीन विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धाएं भारत में आयोजित हो रही हैं। जिनकी ईनामी राशि भी भारी-भरकम है। दिल्ली में गत साल फरवरी में आयोजित एमार-एमजीएफ इंडियन मास्टर्स गोल्फ प्रतियोगिता की ईनामी राशि साढ़े बारह करोड़ रुपए थी। इसके थोड़े दिनों बाद ही गुड़गांव में आयोजित जॉनी वाकर क्लासिक्स गोल्फ प्रतियोगिता की ईनामी राशि तो तकरीबन तेरह करोड़ रुपए थी। इस खिताब पर कब्जा जमाने वाले न्यूजीलैंड के मार्क ब्राउन इस रकम के हकदार बने। इस हिसाब से देखा जाए तो 1964 से देश में हर साल आयोजित होने वाले हीरो होंडा इंडियन ओपन की ईनामी राशि अपेक्षाकृत कम है। इस प्रतिस्पर्धा में बतौर ईनाम तकरीबन ढाई करोड़ की रकम बांटी जा रही है। इसी तरह टेनिस में भी भारत में दो बड़ी प्रतिस्पर्धाएं आयोजित हो रही हैं। इसमें पहला नाम है चेन्नई ओपन का और दूसरी प्रतिस्पर्धा है किंगफिशर एयरलाइन ओपन। इन दोनों प्रतियोगिताओं की ईनामी राशी तकरीबन बाईस करोड़ रुपए है। उल्लेखनीय है कि यह भारत में किसी भी खेल प्रतिस्पर्धा की सबसे बड़ी ईनामी राशि है।

बीजिंग ओलंपिक में भारत ने तीन पदक जीता। इसका असर यह हुआ कि अभी तक क्रिकेट में ही बड़ा निवेश करने वाले पूंजीपति दूसरों खेलों में भी खुले मन से निवेश कर रहे हैं। भारतीय उद्योग जगत और खेल जगत में तो इस महत्वकांक्षा की भी चर्चा चल रही है कि अगर सही ढंग़ से निवेश किया गया और उपयुक्त ढांचा विकसित हुआ तो भारत लंदन ओलंपिक में तीस पदक जीत सकता है। गौरतलब है कि 2012 में खेलों के महासमर का आयोजन लंदन में होने वाला है। यह खेलों के प्रति थैलीषाहों का बढ़ता रूझा नही है कि लक्ष्मी नारायण मित्तल की कंपनी आर्सेलर मित्तल ने 2012 तक भारतीय खेलों में 43.5 करोड़ रुपए निवेश करने का मन बनाया है। मित्तल की कंपनी निशानेबाजी, मुक्केबाजी, तैराकी और बैडमिंटन समेत कई खेलों को बढ़ावा देने में यह रकम लगाएगी। सुनील मित्तल के स्वामित्व में भारती समूह ने 2008-18 के बीच सिर्फ फुटबॉल में तकरीबन सौ करोड़ रुपए लगाने का निर्णय लिया है। उम्मीद की जा रही है कि फुटबॉल में इतना पैसा लगने से वैश्विक स्तर पर भारत की रैंकिंग सुधरेगी। इसके अलावा टाटा स्टील ने हर साल फुटबॉल और एथलेटिक्स को बढ़ावा देने के लिए पांच करोड़ रुपए खर्च करने का एलान किया है। इसके अलावा अपोलो टायर ने टेनिस में 2018 तक तकरीबन सौ करोड़ रुपए लगाने का फैसला किया है। इसके जरिए अपोलो कम उम्र के प्रतिभाओं को तराषने का काम करेगी। पूंजीपतियों के बढ़ते रूझान को देखकर भी यह बात साफ तौर पर मालूम पड़ती है कि खेलों में निवेश अब फायदे के सौदे में तब्दील हो चुका है। क्योंकि इस बात से तो सब वाकिफ हैं कि पूंजीपति समाज कल्याण और खेलों के कल्याण के मकसद से तो भारी-भरकम रकम निवेश करेंगे नहीं बल्कि उनका अहम मकसद तो ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ही है।

खैर, बात बीजिंग ओलंपिक की। बीजिंग में आयोजित ओलंपिक का कई तरह से फायदा चीन को मिला। यहां यह बताना जरूरी है कि इस दौर में खेल उद्योग होने के साथ कई देशों के रिश्ते भी तय करते हैं। सबको अच्छी तरह याद होगा कि भारत-पाकिस्तान के बीच की खेल प्रतिस्पर्धाएं उस वक्त बाधित होती रही हैं जब इन देशों के बीच संबंध ज्यादा तनावपूर्ण रहा है। इस बार के ओलंपिक पर तिब्बत के मसले को लेकर कई बार संकट मंडराता हुआ दिखा। पर चीन ने इसके सफल आयोजन में कोई कसर नहीं छोड़ा। इससे पूरी दुनिया में चीन यह संदेश देने में सफल रहा कि अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर खेलों के जरिए भी अपनी छवि को एक हद तक बनाया जा सकता है।

वैसे तो ओलंपिक में पदक जीतने वालों को कोई ईनामी राशि नहीं मिलती है। पर जैसे ही कोई खिलाड़ी पदक जीतता है वैसे ही उस पर धन की बरसात होने लगती है। प्रायोजक ऐसे खिलाड़ियों के जरिए अपने उत्पाद को लोकप्रिय बनाने का मौका नहीं गंवाते हैं। बहरहाल, इस मर्तबा के ओलंपिक के बारह मुख्य प्रायोजक थे। इसमें कोडक जैसी कंपनी भी शामिल रही। जिसने आधुनिक खेलों का साथ 1896 से ही दिया है। इसके अलावा ओलंपिक के बड़े प्रायोजकों में कोका कोला भी थी। जो 1928 से ओलंपिक के साथ जुड़ी हुई है। इन बारह मुख्य प्रायोजकों से आयोजकों की संयुक्त आमदनी 866 मिलियन डॉलर यानी तकरीबन 4300 करोड़ रुपए रही। इसके अलावा कई छोटे प्रायोजक भी ओलंपिक में शामिल थे।

 हिमांशु शेखर

(लेखक आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे हैं)

2 COMMENTS

  1. बाजारीकरण का प्रभाव चहुंओर दिखाई दे रहा हैं।
    आपने सही कहा है कि ‘खेलों ने एक उद्योग का स्वरूप ले लिया है।’
    शानदार लेख।

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