आत्माराम यादव पीव
प्रातिभ ज्ञान के परम चरम शिखर पर आरूढ़ होकर हिन्दी साहित्य ओर ब्रजभाषा में अनेक मनीषिओ ने प्रेम, भक्तिचर्या एवं आध्यात्मतत्व का विहंगावलोकन किया ओर प्रज्ञा के स्पर्श से परिमार्जित होकर अपनी अनंत अनुभूति को हमारे समक्ष प्रगट किया है जिनमें “”गागर में सागर”” भरने वाले उन मनीषिओ मे एक नाम देव कवि का भी है, जिन्हे ब्रजभाषा काव्य में महाकवि का सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ब्रजभाषा ओर स्थानीय बोली की कारा को नवरस संचरण से एक वृहद आयाम प्रदान करने वाले देव कवि का एक नाम देवदत्त भी स्वीकारा गया है जो प्रतिभा में मतिराम, भूषण ओर बिहारी से समकालीन कवियों में इनसे बढ़कर सिद्ध कहे गए है। ब्रजभाषा के समर्थवान कवियों की लंबी शृंखला में एक समर्थ विलुप्तप्राय कवि देव का नाम अज्ञात रहने का कारण माना गया है कि उन्होने तत्समय के किसी भी राजदरबार से अपने संबंध नहीं रखे इसलिए उनकी ख्याति उनके समकक्ष कवियों में नही हो सकी परिणामस्वरूप हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे पर्याप्त स्थान न मिल पाने से वे महानत्तम होते हुये भी तीन सदिया व्यतीत होने पर भी उपेक्षित रहे है। देव कवि का आविर्भाव हिन्दी के रीतिकाल में हुआ था जिन्हे लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है कि “मतिराम और जसवंत सिंह के बाद यदि कोई सचमुच ही शक्तिशाली कवि और अलंकारिक कवि हुआ तो वह देव कवि थे“। छल नामक संचारी भाव इन की ही देन है। यद्यपि हिंदी साहित्य के अंतर्गत ‘देव’ नाम के छह-सात कवि मिलते हैं, तथापि प्रसिद्ध कवि देव को छोड़कर अन्य ‘देव’ नामधारी कवियों की कोई विशेष ख्याति नहीं हुई। देव के ग्रंथों की संख्या 72 और कुछ लोग 52 कहते हैं। परंतु इनके प्रामाणिक ग्रंथ, जो प्राप्त होते हैं, 18 हैं। अन्य नौ ग्रंथ भी इनके नाम से उल्लिखित हैं और इस प्रकार कुल 27 ग्रंथ इनके नाम से मिलते हैं। इसके अतिरिक्त देवकृत एक संस्कृत ग्रंथ भी ‘शृंगांर विलासिनी‘ नाम से भरतपुर से प्रकाशित हुआ था। इसका विषय भी श्रृगांर और नायिकाभेद है और हिंदी छंदों की रचना इस ग्रंथ में संस्कृत भाषा होने से देव की वास्तविक प्रतिभा के दर्शन इस संस्कृत ग्रंथ से नहीं किए जा सकते है ।
देव कवि के जन्म को लेकर उनके लिखे ग्रंथ “भाव विलास” ‘को प्रमाण माना जाये तो उनका जन्म संवत 1746 में देवसरिया के काव्यकुब्ज द्विवेदी परिवार में इटावा में हुआ- “सुभ सत्रह से छियालिस, चढ़त सोरहीं वर्ष। कढ़ी हर्ष मुख देवता भावविलास सहर्ष॥ दिल्लीपति अबरंग के आजमशाहि सपूत, सुन्यो सराहो ग्रंथ यह अष्टयाम सयुंत ॥“” ये द्यौसरिया (देवसरिया) कान्यकुब्ज द्विवेदी ब्राह्मण थे जो ‘भावविलास’ से स्पष्ट होता है- “”द्यौसरिया कवि देव का नगर इटावो बास। जोवन नवल सुभाव वर किन्हों भावविलास ॥“” देव को अत्यधिक प्रसिद्ध करनेवाले लेखकों में कृष्णबिहारी मिश्र द्वारा “देव ओर बिहारी” पुस्तक रही जिसके बाद लाला भगवानदीन ने “बिहारी ओर देव” लिखकर बिहारी ओरदेव की काव्यप्रतिभा को स्पष्ट करने का प्रयत्न है हिन्दी साहित्य में इन्हे एक पहचान दी। देव कि एक रचना ‘अष्टयाम’ ओरंगजेब के पुत्र आजमशाह के लिए उनके आश्रय पर होने से उनके द्वारा पुरस्कृत हुई वही ‘भावविलास‘ भी आजमशाह के आश्रय में लिखा जाना कुछेक द्वारा माना गया है । देव को उनके लेखन के लिए दादरीपति राजा सीताराम के भतीजे भवानीदत्त वैश्य आश्रयदाता कहे गए है जिनके लिए देव ने ‘भवानीविलास’ नामक ग्रंथ लिखा। फफूँद के रहनेवाले कुशलसिंह का आश्रय मिलने पर देव ने इनके लिए ‘कुशलविलास’ नामक ग्रंथ लिखा। राजा भोगीलाल का आश्रय मिलने पर देव ने उनके लिए ‘रसविलास’ नामक ग्रंथ की रचना कर देव ने अपने रसविलास में लिखा है-“”भोगीलाल भूप लख पाखर लिवैया जिन, लाखन खरचि रुचि आषर खरीदे हैं।“ आगे लिखा गया है कि –“परम सुजान सुजान की, कृपा देव कवि हर्ष। कियो सुजान विनोद को, रचन वचन वसु वर्षि॥“” वही “कुशल विलास” में देव व्यक्त करते है कि –“देव विभव रस भाव रस भव रस नव रस सार। सुख रस वसु वर बरस सुभ बरस रच्चोय शृंगार ॥“ साहित्य का सागर अपार है जिसका ओर छोर पाना लोहे के चने चवाने जैसा है। भोगीलाल को समर्पित इस रासविलास के अंतिम दोहे में – “यहि विधि दरशन श्रवण करि सुमरे विधि हरि रुद्र । पार लहत को बरनि के या साहित्य समुद्र। अपनी बुद्धि समान मैं बरनि कहो रससारि, रसविलास रस रूप नृप भोगीलाल उदार॥“” देव की एक कृति ‘प्रेमचंद्रिका‘ राव मर्दनसिंह के पुत्र उद्योतसिंह को तथा एक अन्य कृति ‘सुजानविनोद‘ दिल्ली के सुजानमणि के लिए लिखी गई तथा अंतिम रचना ‘सुखसागर तरंग‘ पिहानी के राजा अली अकबर खाँ के आश्रय में लिखी मानी गई किन्तु यह सब लिखने के बाद भी उनकी रचनाए बिलुप्तप्राय: रही है।
देव के नाम से देवग्रंथावली पक्ष को लक्ष्मीधर मालवीय ने विस्तार से वर्णन कर देव कवि के वृहद छंद ग्रन्थों की प्रामाणिकता को नया स्वरूप देकर प्रयाग विश्वविध्यालय से डी॰ फिल॰ की उपाधि प्राप्त की। अपने शोध देवग्रंथावली (लक्षण ग्रंथ) के पूर्व लक्ष्मीधर मालवीय ने डॉ॰ माताप्रसाद गुप्त, डॉ॰ रामकुमारवर्मा, पंडित उमाशंकर शुक्ल, डॉ॰ जगदीशगुप्त, डॉ॰ पारसनाथ तिवारी के अलावा इस पोथी ग्रंथ को पूर्ण करने के लिए डॉ॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी से हस्तलिखित पोथिया प्राप्त की ओर सभी के साथ डॉ॰ राजवली पाण्डे का मार्गदर्शन ओर सहायता भी ली जिसमें ओर भी विद्वान शामिल रहे थे जिस कारण यह वृहद देवग्रथ 7 लक्षणों से युक्त प्रकाश में आ सका। देव कवि की लिखी यह कृति देवकृत ग्रंथावली के नाम से है ओर उसमें प्रथम खंड काव्य रसायन में 693 छंद, कुशलविलास में 306 छंद, भवानी विलास में 384 छंद, भावविलास में 417 छंद, रसविलास में 466 छंद, सुजानविनोद में 256 छंद एवं सुमिल विनोद में 277 छंद इस तरह कुल 2899 छंद देव कवि द्वारा इन सात ग्रन्थों में आए है वही इनके लिखे ग्रंथ में मुख्य महत्वपूर्ण संस्करण में ‘सुख सागर तरंग” का नाम भी आता है । यहा यह बात स्पष्ट करना उचित समझता हूँ की देव के आलोच्य ग्रन्थों में छंद प्रतिकों की सूची का विश्लेषण करने पर यह रोचकता भी दृष्टिगत होती है कि इन छंदों कि तुलनात्मक स्थिति में जहा कुल 2899 छंदों का उल्लेख मिलता है वही पर इनमें 1554 छंद अन्यत्र देखने को नही मिलते ओर 1345 छंदों का एक से अधिक स्थान पर देखे गए है, यह अभूतपूर्व बात है। जो छंद एक से अधिक जगह है जिनमें कुछ समान छंद दूसरे अन्य कवियों द्वारा भी रचे होने से इनके छंदों में कही- कही संशय भी होना स्वीकारा है। देव कवि द्वारा रस,अलंकार, पिंगल, नायिका भेद का निरूपण विस्तार से किया गया है वही भाव विलास में शृंगाररस के साथ साथ नायक ओर नायिकाओ में भेद किया है वही रस विलास मुख्यत नायिका भेद का ग्रंथ है तो काव्य रसायन में इन विषयों को अतिरिक्त शब्दों का अलंकृत किया है।
ब्रजभाषा के कविगण पाठकों को प्रभावित करते रहे है ओर ब्रजभाषा की शैली एक सी होने से किसी ग्रंथ ओर उनकी रचनाओं को एक कवि की मानना किसी खतरे से खाली नही है ओर ऐसा ही देव कवि ओर देवकीनंदन की एक सी भाषा शैली के कारण अनेक स्थानों पर प्रामाणिकता को लेकर अनिर्णय की स्थिति बनी गई है ओर किसी ने देव कवि को लक्ष करते हुये लिखा भी की “देव गए भए देवकीनन्दन” फिर भी लेखकों के मतांतर में यह भी बात सामने आती है कि “भाषा का प्रमाण केवल सहायक प्रमाण माना जा सकता है।“ यही भाषा के आधार पर “”रागरत्नाकर”” को देवकृत ग्रंथ मानने के कारण डॉ॰ नगेन्द्र भ्रमित हो चुके थे ओर “देव ओर उनकी कविता” में प्रसिद्ध देव कवि से भिन्न देव नामधारी एक अन्य कवि का उल्लेख करके सन 1906 में उनका एक ही ग्रंथ “”रागमाला”” का अनुशीलन करते है जबकि रागरत्नाकर ओर रागमाला एक ही ग्रंथ के दो नाम उजागर होते है जो किसी अन्य देव कवि की रचनाए थी जिसका इन देव कवि की आलोच्य रचना समझना डॉ॰ नगेन्द्र का भ्रम रहा। इस बात की प्रामाणिकता के लिए डॉ॰ नगेन्द्र द्वारा अपने शब्दों में देव ग्रंथावली की व्याख्या किए जाने हेतु “भावविलास” के संवत 1746 में इस ग्रंथ की रचना का मत देना तहा संवत 1730 में कवि का जन्म ओर ग्रन्थों का क्रम निश्चित करने के अलावा “रसविलास” की अपूर्ण प्रतिलिपि में देव कवि द्वारा देशव्यापी यात्रा के दरम्यान “जाति विलास” की रचना तर्क देना तत्समय के विद्वानों द्वारा अमान्य कर दिया गया था ओर अधिकांश का मत था कि देव के ग्रन्थों का रचनाक्रम का समय बतलाना असंभव सा है।
अध्ययन से एक बात सामने आई है कि जिन छंदों का अनेक स्थानों पर प्रयोग कि बात आई है उसमें देव द्वारा अपने विभिन्न ग्रन्थों का संकलन करते समय “सुख सागर तरंग” का लेखन जारी रखा गया ओर अपने अनेक स्फुट छंदों को लिखने के बाद जिस ग्रंथ में उसे संकलित करना है उसके लिए वे उन्हे सुनियोजित कर स्वंम के लिए उन्हे सुगम ओर व्यावहारिक मानते हुये उन छंदो को वहाँ स्थान देते रहे जिससे उनके लिखे एक समान से अनेक छंद बहुआयत प्रयोग में प्राप्त होने से शोध में आ सके, जिन्हे लेखर उपरोक्त धारनाए पुस्त होती रही तो वही कुछेक छंद उनेक तीन ग्रन्थों में प्रयोग को लेकर कुछ उसे एक ही स्थल पर पाठ विकृति मान बैठे तो कुछेक कवि के आदेश पर उनके शिष्यों द्वारा अथवा लिपिकर द्वारा लिपिबद्ध करते समय उन छंदों को शामिल होना स्वीकारते है। देव कवि के विषय में यह बात इसलिए महत्वपूर्ण हो गई है क्योकि मध्ययुग के अनेक कवियों के ग्रन्थों के छंदों में एक दूसरे ग्रंथ में समानता ओर अर्थों में संदेश एक ही हुआ करता था जबकि देव कवि इससे अछूते रहे हो यह दावा तो नहीं किया जा सकता किन्तु उनके छंदों के ग्रन्थों में उनका एकाधिकार अन्य कवियों के समान रहा है इसलिए किसी निष्कर्ष पर जाने से पहले यह गंभीर ओर आवश्यक है कि देव कवि के इन महत्वपूर्ण ग्रन्थों के छंदो के रहस्यों कि विशेषताओं का आनंद लेने के कुछ ग्रंथ कृतियों के छंदो में “”भावविलास “ को देखा जाये तो –” ग्वालि गई इक हयो कि उहाँ मधि रोकि सु तौ मिसु कै दधिदान कौ। वो तो भटू बहि भेंटी भुजा भरि नातों निकासि कछु पहचानि कौ। आई निछावरि कै मन मानिक गौ रस दै रस ले अधरानि कौ। वाहि दिना से हिये मैं गडौ वह ढीठ बड़ौ री बड़ी अखियानि कौ॥“ इस छंद में कही भी नेत्र संचालन या चल चितवन का इशारा नही किया गया है ओर नेत्रों से संबन्धित शब्द केवल अंतिम चरण में नायक को ढीठ कि उपमा देकर किसी प्रकार के नेत्रों के कार्य व्यवहार का उल्लेख नही होने से माध्यम श्रेणी में रखकर इस छंद से ओर बेहतर छंद को देखा जा सकता है जिसमे नेत्र संचालन कि प्रमुखता के साथ मुख मोड़ने, हेरने आदि को व्यक्त किया गया है –“”हरि को इत हेरत हेरि उते उर आलिन के उर सौ परसै । तन तौरि कै जोरि मरोरि भुजा मुख मौरि के बैन कहे सरसै॥ मिस सौं मुसक्याइ चितै समुहे कवि देव दरादर सौ बरसै । दृगकोर कटाक्ष लगे सरसान मनों सर सान धरे बरसै ॥“” देव का यह छंद “सुजान विनोद”” तथा “”भवानी विलास”” में प्रयुक्त किया गया है जिसमें स्वप्न दर्शन किए जा सकते है –“सुंदरी सोवति मंदिर मैं काहु सापने मैं निरख्यों नन्दनन्द सो। त्यों पुलक्यों जल सौं झलक्यों उर ओचक ही उचकयों कुच कंदु सौ। तौ लगी चौकि परी कहि देव सु जानि परयो अभिलाष अभन्द सौ । आलिन को मुख देखत ही मुख भावति को भयो भोर को चंद सौं ॥
देव के ग्रन्थों में गुणदोषों का सांगोपाग वर्णन भी देखने को मिलता है जिसमें गुणों के अतिरिक्त स्वभाव कथन का प्रभाव ज्यादा रहा है ओर शब्द प्रयोग में छंद लालित्य होने से उनके गुणों को श्रेष्ठतम माना गया है –“सखी के सकोच गुर सोच मृगलोचनि रि- सानी पिय सौं जु उन नेकुईसि छुयो गात, देव वै सुभाय मुसुकाय उठि गए यहि, सिसिकि सिसिकि निसि खोई रोय पायो प्रात। को जाने री वीर बिनु विरही विरह-विधा, हाय हाय करि पछिताय न कछु सोहात। बड़े बड़े नैनन सों आँसू भरि भरि ढरि, गोरो-गोरो मुख आजू ऑरो सो बिलानों जात॥ यह छंद अदभूत है जिसमें जुगुप्सा ओर शृंगार रस का संचार ओर विरोध नायक ओर नायिका के कर्म में पूर्ण उपमाये दिखाई देते है तथा उपमान में थोड़ा सा गाल छूने से क्रोध करने का भव नायिका का मुग्धात्व प्रगट करता है ओर नायक अच्छे भाव से मुस्कुरा के उठ जाता है । स्पष्ट है निसि खोने ओर प्रात पाने में खोने या पाने जैसा पदार्थ नही किन्तु लक्षण का पूर्णालंकार ओर “नेकु हंसी छुयो गात” में रति का स्थायी भाव विद्वानों ने माना है इसलिए इस छंद में पूर्ण शृंगार रस होना कहा है। देव कवि के इस छंद को प्रिय दर्शन के लिए प्रयोग किया गया है कि –“संग न सहेली केलि करत अकेली एक कोमल नवेली वर बेली जैसी हेम की। लालच भरे से लखि लाल चलि आए सोचि लोचन लचाय रही रासि कुल नेम की। देव मुरझाई उरमाल उरझाई बात पुंछी छल छेम की। “ देव के बहुसंख्यक ग्रंथों में प्रेम, शृंगार की उच्चतम धारणा के साथ उनके वैचारिक भावों की उदात्तता उज्वल दिखती है वही पर काव्यशास्त्रीय विवेचन भी, इनके ग्रंथों में है, भले प्रसिद्धि के शिखर पर नहीं है किन्तु आज भी उनकी सुंदर रचनाओं में सवैया ओर धनाक्षरी उनके व्यापक अनुभव से सिंचित होने से सजीव ओर मर्मस्पर्शी एवं असाधारण है जिनका प्रकाशित पक्ष रूप , सौंदर्य, वस्तु चरित्र के दुर्लभ चित्रण के रहस्य से पाठकों को आत्मविभोर कर देव से परिचय भी कराएगा, ताकि आप उनके छंदो से जब परिचित होगे तब अवश्य ही मानिएगा की देव को हिन्दी साहित्य में उत्कृष्ट स्थान ओर सम्मान प्रदान करेगे जिससे वे अब तक वंचित है।