व्यभिचार को सामाजिक स्वीकृति मिलना असंभव

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
स्त्री-पुरुष संबंधों के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है, ज्यादातर लोग उसकी तारीफ कर रहे हैं। उसे क्रांतिकारी बता रहे हैं। उनका मानना है कि यह फैसला अंग्रेज के बनाए उस कानून को रद्द कर रहा है, जिसके मुताबिक औरतों का दर्जा पशुओं-जैसा था। 1860 में बने इस कानून के मुताबिक कोई भी औरत अपने पति को किसी पराई स्त्री से व्यभिचार करने पर सजा नहीं दिलवा सकती थी। वह अपने पति के खिलाफ अदालत में नहीं जा सकती थी। न ही वह अपने पति की प्रेमिका या सहवासिनी को कठघरे में खड़ा कर सकती थी। इंडियन पेनल कोड की धारा 497 के मुताबिक सिर्फ व्यभिचारणी औरत का पति ही अपनी पत्नी के व्यभिचारी प्रेमी के खिलाफ मुकदमा ठोक सकता था। उसे पांच साल की सजा और जुर्माना भी हो सकता था।
इस पुराने कानून में औरत मूक दर्शक बनी रहती है। उसकी कोई भूमिका नहीं है। अब सर्वोच्च न्याालय का यह दावा है कि उसके पांचों-जजों ने औरत के सम्मान की रक्षा कर दी है। उसने व्यभिचार को अपराध मानने से मना कर दिया है। याने कोई आदमी उसकी औरत से शारीरिक संबंध बनाए या व्यभिचार करे तो वह उसे सजा नहीं दिलवा सकता। याने किसी भी औरत और आदमी में आपस में सहमति हो जाए तो वे व्यभिचार कर सकते हैं। वह अवैध नहीं होगा। हां, परपुरुष या परस्त्री के साथ अवैध संबंधों को आधार बनाकर तलाक मांगा जा सकता है। यदि विवाहेतर संबंध आत्महत्या का कारण बन जाए तो अदालत उस पर विचार कर सकती है।अब यहां प्रश्न यह उठता है कि व्यभिचार को वैध बना देने से स्त्री के सम्मान की रक्षा कैसे होती है ? जजों ने खुद से यह सवाल नहीं पूछा कि आखिर व्याभिचार होता क्यों है ? उसके कारण कौन-कौन से हैं ? यदि विवाहेतर संबंध इसलिए होता है कि संतानोत्पत्ति की जाए तो उसे हमारे प्राचीन शास्त्रों में नियोग कहा गया है। यदि पति-पत्नी अपनी शारीरिक अक्षमता को देखते हुए वह शास्त्रीय प्रावधान करें तो वह कुछ हद तक बर्दाश्त किया जा सकता है। इसी शारीरिक अक्षमता के होने पर पति-पत्नी के दो जोड़ों में से चारों की सहमति होने पर यदि कोई तात्कालिक व्यवस्था होती है तो उसे भी अनैतिक या अवैध नहीं कहा जा सकता।लेकिन किन्हीं भी दो स्त्री-पुरुष के बीच यदि विवाहेत्तर शारीरिक संबंध कायम किए जाते हैं तो उन्हें न तो वैध माना जा सकता है और न ही नैतिक ! मेरी राय में वे अवैध और अनैतिक दोनों हैं। अदालत का यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि परपुरुष और परस्त्री के बीच सहमति हो तो किसी को कोई एतराज क्यों हो ? दूसरे शब्दों में मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा, काजी ? सहमति या रजामंदी का यह तर्क खुद ही खुद को काट देता है, क्योंकि विवाह या शादी तो जीवन भर की सहमति या रजामंदी है। वह स्थायी और शाश्वत है। उसके सामने क्षणिक, तात्कालिक या अकल्पकालिक सहमति का कोई महत्व नहीं है। जब तक तलाक न हो जाए, किसी परपुरुष या परस्त्री से काम-संबंधों को उचित कैसे ठहराया जा सकता है ? ऐसे यौन-संबंध अवैध और अनैतिक दोनों हैं।
इस तरह के मुक्त यौन-संबंधों के समाज में विवाह और परिवार नामक पवित्र संस्थाएं नष्ट हुए बिना नहीं रह सकतीं। जो अदालतें इस तरह के संबंधों को बर्दाश्त करती हैं, उन्हें क्या अधिकार है कि वे शादियों का पंजीकरण करें ? मुक्त यौन-संबंध समाज में अनेक कानूनी और नैतिक उलझनें पैदा कर देंगे। व्यक्तिगत संपत्ति, परिवार और राज्य– इन तीनों संस्थाओं को समाप्त करने और वर्गविहीन समाज स्थापित करने वाले कार्ल माक्र्स और लेनिन के सपने कैसे चूर-चूर हो गए, यह हम सबने देखा है। अब से 50 साल पहले मुझे एक शोध-छात्र के नाते इस चूरे को देखने का प्रत्यक्ष अवसर तत्कालिक सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजों में मिला था। आज भी पश्चिम के अनेक राष्ट्र इसी तथाकथित उदारता के कारण यौन-अराजकता का सामना कर रहे हैं।
आज भी दुनिया के ज्यादातर राष्ट्र व्यभिचार को अवैध और अनैतिक मानते हैं। जिन राष्ट्रों ने सहमति से किए हुए व्यभिचार को वैध माना है, उनसे मैं पूछता हूं कि वह सहमति कितनी वास्तविक है, सात्विक है और स्वैच्छिक है ? उस तात्कालिक सहमति के पीछे कितना प्रलोभन, कितना भय, कितना भुलावा, कितनी मानसिक कमजोरी, कितनी मजबूरी, कितनी कुसंस्कार है, यह किसे पता है ? 1707 में ब्रिटिश मुख्य न्यायाधीश जाॅन हाल्ट ने व्यभिचार को हत्या के बाद सबसे गंभीर अपराध बताया था। मनुस्मृति और अन्य स्मृतियों में व्यभिचार को अत्यंत घृणित अपराध कहा गया है। मनु और याज्ञवल्क्य ने व्यभिचारी व्यक्ति के लिए ऐसी सजा का प्रावधान किया है, जिस पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हमारी स्मृतियों में शारीरिक संबंध तो बहुत दूर की बात है, स्त्री-पुरुष संबंधों में अनेक बारीक मर्यादाओं का भी प्रावधान है।
इस्लामी कानून में व्यभिचार को सिद्ध करना आसान नहीं है, क्योंकि वह चार गवाहों के सामने प्रत्यक्ष किया हुआ होना चाहिए। अफगानिस्तान के पठान कट्टर मुसलमान होते हुए भी शरिया के इस प्रावधान को नहीं मानते। वे व्यभिचार के मामलों में ‘पश्तूनवाली’ चलाते हैं और कठोरतम सजा देते हैं। कुछ मुस्लिम राष्ट्रों, जैसे सउदी-अरब, ईरान, यमन, पाकिस्तान आदि में अत्यंक कठोर सजा का प्रावधान है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पांचों न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से जो फैसला दिया है, वह स्त्री के सम्मान की रक्षा कैसे करता है, यह मेरी समझ में नहीं आया लेकिन यह बात जरुर समझ में आई कि वह औरत को भी मर्द की तरह स्वैराचारी या स्वेच्छाचारी या निरंकुश बना देता है। यह प्रवृत्ति भारतीय परंपरा और संस्कृति के प्रतिकूल है। यह प्रवृत्ति वैध तो बन जाएगी लेकिन इसे कोई भी नैतिक नहीं मानेगा। क्या ही अच्छा हो कि इस शीतकालीन सत्र में संसद इस मुद्दे पर जमकर बहस करे। यदि वह वैधता को नैतिकता के मातहत कर सके तो बेहतर होगा।

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