मनमोहन कुमार आर्य,
वेद और वैदिक परम्परा में ईश्वर व जीवात्मा को सनातन, अजन्मा, अमर, अविनाशी, जन्म व मरण के बन्धन में बन्धा हुआ और कर्मों का कर्ता और उसके फलों को भोगने वाला माना गया है। वेद क्या हैं? वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर ने सृष्टि को बनाकर मनुष्यादि प्राणियों की अमैथुनी कर सृष्टि के आरम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा नाम वाले चार ऋषियों को दिया था। अनेक तर्क व प्रमाणों से वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है। इसका एक प्रमाण तो यह है कि जब संसार में कोई गुरु, शिक्षक, माता-पिता, विद्वान, भाषा आदि नहीं थी तब आदि मनुष्यों को परमात्मा ने वेदों का ज्ञान दिया था। यदि परमात्मा वेदों का ज्ञान न देता तो अद्यावधि सभी मनुष्य जाति भाषा का ज्ञान न होने व भाषा का निर्माण न कर सकने की क्षमता के कारण मूक व बधिर की तरह अथवा भाषा के न होने से मनुष्य जाति का अस्तित्व बहुत पहले ही समाप्त हो गया होते। ईश्वर चेतन और सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञानमय अर्थात् सर्वज्ञ है। जिस तरह से पिता अपने पुत्रों को ज्ञान देता व दिलाता है, उसी प्रकार ईश्वर भी अपनी प्रजा अर्थात् मनुष्य आदि प्राणियों को ज्ञान देता है। वेदों की सभी बातें तर्क व प्रमाणों से सिद्ध है। वेदों ने ईश्वर का जो स्वरूप बताया है वह सत्य है और उसे प्रायः सभी मतों के लोग मानते हैं। हां, अपने-अपने मत की अल्प, न्यून व वेद विपरीत शिक्षाओं के कारण वह इसे अपनी अज्ञानता व स्वार्थों के कारण खुल कर स्वीकार नहीं कर पाते। वेद ईश्वर को सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, सृष्टिकर्ता, जीवात्माओं को जन्म व मृत्यु देने वाला होने सहित उनका पालनकर्ता बताते हैं।
मनुष्य शरीर नहीं है। मनुष्य व प्राणियों के शरीर तो जड़ भौतिक पदार्थों से मिलकर बने हैं। इन शरीरों में जो ज्ञान व कर्म करने की शक्ति है वह इसमें अनादि काल से अस्तित्व रखने वाली जीवात्माओं के कारण है। यह आत्मा ही मनुष्य व अन्य प्राणियों के जन्म से पूर्व पिता व माता के शरीरों में परमात्मा की प्रेरणा द्वारा प्रविष्ट होती है। उसके बाद जब माता के गर्भ में आत्मा का शरीर पूर्ण रूप से बन जाता है, तब गर्भ काल के दस मास बाद मनुष्य का जन्म होता है। जीवित शरीर में आत्मा होने का प्रमाण यह है कि मृत्यु होने पर मनुष्य व अन्य सभी प्राणियों का शरीर जड़वत् व निष्क्रिय हो जाता है। इसका एकमात्र कारण शरीर से चेतन जीवात्मा का अपने सूक्ष्म शरीर सहित निकल जाना होता है। जब तक शरीर में आत्मा होता है तब तक मनुष्य शरीर सक्रिय रहता और आत्मा उसमे रहकर सुख व दुःख भोगता रहता है। अनेक मनुष्यों को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास भी हो जाता है। वह पहले ही अपने परिवारजनों को बता देते हैं कि अब उनके जाने का समय आ गया है और उन्हें जाना होगा। अनेक महात्माओं को अपने अन्तिम समय पर स्वेच्छा से आत्मा को शरीर को निकालते भी देखा गया है। ऋषि दयानन्द ने विषपान के कारण जर्जरित शरीर से अपनी आत्मा को ईश्वर का गुणगान करते हुए मास, पक्ष, दिन व तिथि आदि पूछ कर, शरीर को शुद्ध कर व नये शुद्ध वस्त्र धारण कर ईश्वर की प्रार्थना करते हुए लम्बी श्वांस भर कर अपनी आत्मा को शरीर से बाहर निकाल दिया था। यदि शरीर में आत्मा न होती तो ऋषि दयानन्द और कुछ अन्य विद्वानों को इससे मिलती जुलती प्रक्रिया करने की आवश्यकता नहीं थी। आत्मा का अस्तित्व होना सत्य है। वह जन्म से पूर्व माता के गर्भ में आती है और मृत्यु के समय शरीर को छोड़कर ईश्वर की प्रेरणा व व्यवस्था से निकल जाती है। ईश्वर के कर्म-फल सिद्धान्त एवं जन्म विषयक नियमों के अनुसार कुछ समय बाद उस मृतक आत्मा का पुनर्जन्म हो जाता है। अतः जन्म-मरण सिद्ध होने के साथ मृत्यु के बाद आत्मा का अस्तित्व बने रहना भी सिद्ध होता है।
पुनर्जन्म के विषय में एक प्रश्न किया जाता है कि यदि यह हमारा पुनर्जन्म है तो हमें अपने पूर्वजन्म की स्मृतियां क्यों नहीं होतीं? इसका उत्तर यह है कि मृत्यु होने पर हमारा पूरा शरीर जिसमें हमारा मन, मस्तिष्क, बुद्धि, अन्तःकरण सहित सभी ज्ञानेन्द्रिया और कर्मेन्दियां होती हैं, आत्मा से पृथक हो जाते हैं और उनसे युक्त शरीर को अग्नि को अर्पित कर नष्ट कर दिया जाता है। पूर्व शरीर के न रहने और उसकी आत्मा को नये जन्म से लगभग 10 महीनों तक तो मां के गर्भ में रहना ही पड़ता है। इन 10 महीनों व शैशव काल में मनुष्य को पूर्वजन्म की बातों की विस्मृति हो जाती है। हम जानते हैं कि हम जो शब्द व वाक्य बोलते हैं, उनमें से पांच दस वाक्य बोलने के बाद यदि उन्हें दोहराना हो तो हम उन्हें उसी श्रृखंला व क्रमबद्धता में दोहरा नहीं सकते। हमने कल रात में क्या खाया, परसो दिन में व रात को क्या खाया था, हम प्रायः भूल जाते हैं। तीन चार दिन पहले जो खाया-पीया होता है, वह किसी को स्मरण नहीं रहता। हमने कल, परसों व उससे पूर्व के दिनों में किस रंग व वस्त्र पहने थे, दो-चार दिनों में कब-कब किस-किस से मिले थे, यह भी याद नहीं रहता। यदि हमें दो चार दिन की बातें ही याद नहीं रहती, उन्हें हम भूल जाते हैं तो फिर पूर्वजन्म जिसमें हमारा शरीर हमसे पृथक हो गया तथा 10 महीनों व उससे कुछ अधिक का समय हमारे पुनर्जन्म में व्यतीत हो गया, ऐसे में पूर्वजन्म की स्मृतियां का स्मरण न रहना सम्भव नहीं होता और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
मनुष्य का मन एक समय में एक ही व्यवहार करता है। उसे हर समय अहसास व विश्वास रहता है कि उसका अस्तित्व है। अतः इस कारण भी वह पूर्वजन्म की स्मृतियों को स्मरण नहीं कर पाता। एक कारण यह भी होता है कि जन्म लेने से सन्तान के किशोर अवस्था में आने तक माता-पिता व अन्य परिवार जनों द्वारा बोली व कही जाने वाली अनेक बातों के संस्कार आत्मा व मन पर अंकित हो जाते हैं। इस लिये भी पुरानी स्मृतियां धूमिल पड़ जाती हैं। इस कारण भी पूर्वजन्म की स्मृतियां स्मरण नहीं रह पातीं।
परमात्मा ने मनुष्य की आत्मा के अल्पज्ञ होने के कारण भूलने का नियम बनाकर मनुष्य का लाभ ही किया है। इस उदाहरण पर विचार करें कि पूर्वजन्म में मैं राजा था तथा इस जन्म में अपने पूर्वजन्म के कर्मों के कारण मेरा एक निर्धन व अभावग्रस्त परिवार में जन्म हो गया। यदि मुझे पूर्वजन्म का पूरा वृतान्त स्मरण रहेगा तो मेरा यह जीवन पिछले जन्म की स्मृतियों को याद कर व इस जन्म की प्रतिकूल परिस्थितियों पर विचार कर दुःख मनाने में ही व्यतीत हो जायेगा। अतः हमें ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिये कि हमें पूर्व जन्म की स्मृतियां स्मरण नहीं हैं। हम एक प्रकार से जन्म के बाद से ही पूर्व स्मृतियों को विस्मृत कर नया जीवन व्यतीत करते हैं और इस जन्म का भरपूर आनन्द ले सकते हैं। यह ईश्वर की हम पर बहुत बड़ी कृपा है।
एक उदारण यह भी ले सकते हैं कि हमारे परिवार में किसी अत्यन्त प्रिय की मृत्यु हो जाये तो उससे हम दुःखी रहेंगे। यदि हमें यह दुःख हर समय स्मरण रहेगा तो हम जीवन को धैर्य व शान्ति से चला नहीं पायेंगे। कोई भी घटना, प्रिय व अप्रिय घटती है तो उसके बाद से ही हम उसे भूलना आरम्भ हो जाते हैं और हमारा दुःख भी समय के साथ कम होता जाता है। अपने प्रिय की मृत्यु के समय परिवारजनों को जो दुःख होता है उतना दुःख कुछ घंटे बात नहीं रहता। दो चार दिनों में तो मनुष्य सामान्य हो जाता है। ईश्वर की पुरानी घटनाओं को भूल जाने का जो स्वभाव हमें दिया है, वह हमारे लिये हितकर है।
पुनर्जन्म का प्रमाण इस बात में भी है कि संसार में कोई नया पदार्थ बनता नहीं है। इसका तात्पर्य है कि अभाव से भाव अर्थात् शून्य से किसी नये पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती। कोई मौलिक पदार्थ होगा, उसी से परमात्मा या मनुष्य रचना कर सकते हैं। हम मकान बनाते हैं तो हमें इसमें मिट्टी, ईंट, बजरी, चूना व सीमेंट तथा सरियों आदि की आवश्यकता होती है। यह परमात्मा ने पहले से ही सृष्टि में सुलभ करा रखे हैं। इसी प्रकार मनुष्य का शरीर जड़ प्रकृति के पदार्थों से परमात्मा माता के गर्भ में बनाता है जिसका जन्म लेने के बाद भोजन आदि करके विकास व विस्तार होता है। जीवात्मा अनादि, अनुत्पन्न व नित्य है। यदि परमात्मा इसको बार बार जन्म न दे तो इसे सुख नहीं मिल सकता। ईश्वर सामर्थ्यवान् है, अतः उस पर दोष आयेगा यदि वह आत्मा को जन्म देने की सामर्थ्य होने पर भी जन्म न दे। ईश्वर हमसे अधिक ज्ञानी और बुद्धिमान है। वह हमें इस प्रकार की आलोचनाओं का अवसर ही नहीं देता। अतः वह आत्मा को मृत्यु के बाद शीघ्र जन्म देता है। किसी कारणवश जब शरीर आत्मा के रहने के योग्य नहीं रहता तो मृत्यु होती है और मनुष्यों व अन्य प्राणियों का जो कर्माशय होता है उसके अनुसार उसका पुनर्जन्म व नया जन्म होता है। जन्म-मरण का यह चक्र अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। यह जन्म व मरण का चक्र कभी समाप्त होने वाला नहीं है। हां, अत्यधिक शुभ कर्मों जिसमें ईश्वर व आत्मा को जानना, ईश्वर की उपासना करना, सबसे प्रेम पूर्वक सत्य का व्यवहार करना आदि कर्मों को करके व ईश्वर का साक्षात्कार करके मनुष्य की आत्मा को मोक्ष मिल जाता है। मोक्ष की 31 नील 10 खरब और 40 अरब वर्षों की अवधि पूर्ण होने पर पुनः जन्म-मरण का चक्र आरम्भ हो जाता है। हम भी अनादि काल से जन्म व मरण के बन्धन में बन्धें हुए हैं और मोक्ष मिलने तक और उसके बाद भी मोक्ष की अवधि पूरी होने पर हमारा जन्म व मरण का चक्र पुनः आरम्भ हो जायेगा।
हमारा यह जन्म पूर्वजन्म का पुनर्जन्म है और हमारा आने वाला व उसके बाद के सभी जन्म पुनर्जन्म होंगे। हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप, गुण, कर्म और स्वभाव को जानकर तथा आत्मा से ईश्वरोपासना आदि कर्मों को करके ईश्वर का साक्षात्कार करना है और आनन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त होकर आनन्द में विचरना है। हम पाठक मित्रों से निवेदन करेंगे कि वह जीवन व मरण तथा मोक्ष से जुड़े प्रश्नों को समझने के लिये ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ सहित उपनिषद, दर्शन एवं वेदों का अध्ययन करें। इससे उन्हें संसार के सभी जटिल प्रश्नों का समाधान प्राप्त होगा।