समाज

कामांध पाशविकता का बढ़ता प्रकोप और हम

 नरेश भारतीय

दिल्ली में पांच वर्ष की बालिका के साथ एक कामांध दरिंदे का नृशंसतापूर्ण दुष्कर्म! उसके बाद भी ऐसी घटनाएं अन्य स्थानों से प्रकाश में आई हैं. वासना और पाशविकता का नग्न नृत्य जारी है. जब ऐसे दुष्कर्मों के विवरण समाचार माध्यम से विश्व भर में पहुंचते हैं और उनकी चर्चा होती है तो हज़ारों मील दूर बैठे हम भारतीयों को भी वैसा ही कष्ट होता है जैसा देशवासियों को. मस्तक शर्म से झुक जाता है. क्या हो गया है हमारे देश को जहां कभी चारित्रिक शुद्धता बनाए रखने पर ज़ोर दिया जाता था. परिवारों के बड़े बूढ़े घर की चार दीवारी में पलतीं अपनी संतानों को शिशुत्व से लेकर पूर्ण यौवन तक संभाले रखने के प्रयास में धार्मिक, संस्कृतिक और सामाजिक मर्यादाओं में बांधे रख कर संयत संतुलित जीवन जीने के लिए प्रेरित करते थे. ‘मातृवत परदारेषु’ का मन्त्र पढ़ाया जाता था. लेकिन आज इसके ठीक विपरीत उन लोगों की संख्या में वृद्धि हो रही है जो पारिवारिक संस्कारों को नकारते, खुली यौनिकता के पक्षधर बने, व्यक्ति स्वातंत्र्य की हामी भरते हैं. किसी प्रकार के मर्यादाबंधन को मान्यता नहीं देते. उन्हें आधुनिकता के उस बेपर्दा रूपदर्शन में सुख मिलता है जो खुल खेलने का आमन्त्रण देता है. अपनी मनचाही करने के हर नर नारी के अधिकार की दुहाई देते हैं. उसके लिए मानवाधिकारों का रक्षा कवच भी उपलब्ध कर देते हैं. गत कुछ वर्षों से ऐसे सार्वजानिक परिवेश परिवर्तन की लहरें पश्चिम से पूर्व की ओर सुनामी बाढ़ की तरह आगे बढ़तीं दिखाई देतीं रहीं हैं. भारत ने अपने तट की रक्षा की सूझ दिखाने की अपेक्षा उसे इतना आगे बढ़ने दिया है कि अब उससे बहुत कुछ संभल नहीं पा रहा.

यहीं जरा थम कर, देश में फैलती कामान्धता के वेग में नष्ट हो रहे मानव जीवन मूल्यों को देखें. क्या यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि भारी जनरोष के बाद बनाए गए कानून का डर भी बलात्कारियों को महसूस नहीं हो रहा? उनकी वासना का लक्ष्य बनीं देश की बेटियों की व्यथा गाथाएँ पूर्ववत दोहराई जाती दिखती हैं भले ही धिक्कार मिल रहा है ऐसे कायर और विकृत मस्तिष्कों को जो, अपनी काम वासना पर काबू पाने में असमर्थ सुध बुध खो कर ऐसा पाशविक दुष्कर्म करते हैं. दिल्ली में हुए गुड़िया बलात्कार मामले में यह तथ्य सामने आया है कि एक बलात्कारी ने अश्लील साहित्य देखने के बाद इस तरह की हरकत की थी. यदि इस ‘पोर्नोग्राफी’ कहे जाने वाले अश्लील साहित्य के प्रचार प्रसार का आकलन किया जाए तो इस निष्कर्ष तक पहुंचना मुश्किल नहीं होगा कि भारत में इसकी उपलब्धि बढ़ी और सहज हुई है. इससे सीधा संकेत यह भी मिलता है कि इसका उपयोग करने वालों की संख्या बढ़ी है. ऐसे कामोत्तेजक साधनों को पसंद करने वालों को विकृत मस्तिष्क और व्यभिचारी कहने का साहस करने पर प्रतिरोधी प्रतिक्रिया देखने को मिलती है. मीडिया में बहसें होतीं हैं और व्यक्ति स्वतंत्रता के पक्षधर अश्लील साहित्य के शौकीनों पर आंच नहीं आने देते. बौलीवुड फिल्मों के निर्माण में ‘बोल्ड सीन’ यानि कामोत्तेजक नग्न नारी शरीर प्रदर्शन की होड़ लगी है. इस संदर्भ में अश्लील फिल्म निर्माण में एक चर्चित चेहरा और भारत में लोकप्रिय बनतीं भारतीय मूल की सन्नी लिओने के इन शब्दों पर ध्यान जाता है जो बढ़ते बलात्कारों की बहस में उन्होंने कहे कि“पोर्नोग्राफी सिर्फ एक मनोरंजन का साधन है. रेप जैसे अपराधों के लिए पोर्न फिल्म इंडस्ट्री को ज़िम्मेदार ठहराना बकवास है. ऐसे अपराधों को रोकने के लिए शुरुआत से ही बच्चों को शिक्षित करना जरूरी है”. इस तरह की प्रतिक्रिया देश में बढ़ते बलात्कारों से व्याप्त चिंता के व्याप को कम नहीं करती. बढ़ाती है. रेखांकित करती है इस तथ्य को कि समाज में ऐसा असमंजस उत्पन्न हो रहा है कि रोग का कारण देने पर भी उस कारण को कुछ निहित्स्वर्थों के द्वारा उसे नज़रंदाज़ कर दिया जाता है.

 

बदहवास वासना की शिकार हो रही नारी जाति में जिन बहू-बेटियों, बहनों और माताओं की मान मर्यादा भंग होती है उनकी और उनके आहत परिवार परिजनों की पीड़ा का सही आकलन मात्र बहसों के माध्यम से किया जाना संभव नहीं है. इनसे उन तत्वों पर कोई असर होता नहीं दिखता जो अपने परिवार, समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्य को तिलांजली देकर, नारी के घोर अपमान की राह पर बढ़ते हुए, अपनी ऐसी अमानवीयता को ही अपना पुरुषत्व मानने लगे हैं. इन कामोन्मुख पुरुषों की विकृत मानसिकता रिश्ते नातों की पवित्रता के बंधन तक को नकारने पर तुली हुई है. कानून के हाथ भले कितने भी लम्बे हों तब तक नाकाम सिद्ध होते हैं जब तक ऐसे अपराधी उसकी पकड़ में नहीं आते और वे तब तक पकड़ में नहीं आते जब तक उनकी दरिंदगी के सबूत नहीं जुटते. ऐसा लगता है कि अपने देश में अब कानून का भय भी कोई भय नहीं रहा. सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला होने से अपराधी बचने के रास्ते ढूँढ निकालता है. इसके अतिरिक्त इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि कोई अपराधी कानून को पूर्व चेतावनी देकर अपराध नहीं करता और तब तक अपराधी सिद्ध नहीं हो सकता जब तक उसके विरुद्ध आरोप सिद्ध न हो जाएँ. ऐसे कुछ मामलों में पुलिस का जैसा व्यवहार शिकायत को दर्ज करने के चरण में चर्चा का विषय बना है जनता को पुलिस के हाथों अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त नहीं करता.

इन स्थितियों में बलात्कारों की रोकथाम के प्रभावी उपायों की आवश्यकता को कैसे पूरा किया जा सकेगा? स्पष्ट है कि गंभीर से गंभीरतम होती इस समस्या के समस्त पहलुओं पर विविधकोणीय ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. सर्वप्रथम बिना किसी भी पूर्वाग्रह के यह रेखांकित करने की ज़रूरत है कि अपने आस पास के परिवेश में कौन से ऐसे तत्व हैं जो कामवासना के आपराधिक प्रसार में सहायक हो रहे हैं? ऐसा क्या है जिसके कारण कोई भी व्यक्ति इस हद तक नीचे गिर सकता है कि बच्चों तक के साथ ऐसी जघन्य पाशविकता का व्यवहार करता है? विश्व में भारत का दर्जा एक सभ्य संस्कृति सम्पन्न देश का है. लेकिन अब न सिर्फ विदेशी महिला पर्यटकों के साथ होने वाले दुष्कर्म की घटनाओं के कारण भारत के नाम पर कालिख पुत रही हैं बल्कि सामूहिक बलात्कारों के दर्दनाक विवरण विश्व भर में चर्चा का विषय बने हैं. ये घटनाएं घोर अमानवीयता और असभ्यता के घृणास्पद प्रतीक चिन्ह हैं.

लगभग पांच दशकों के अपने ब्रिटेनवास के बावजूद अपनी जन्मभूमि और पुण्यभूमि भारत के साथ अविछिन्न सम्बन्ध संपर्क बनाए रखते हुए मैंने दोनों ही देशों में हुए क्रमिक सामाजिक परिवर्तन पर नज़र रखी है. मै मानता हूं कि परिवर्तन प्रगति के लिए एक अपरिहार्य आवश्यकता है और कोई भी परिवर्तन अपने आप में बुरा या अच्छा नहीं होता. लेकिन हर परिवर्तन हर किसी देश, स्थान, समाज और उसके धरातल के परिवेश के अनुकूल भी नहीं हो सकता. पिछली शताब्दी के १९७० के दशक में पश्चिम में व्यक्तिवादी स्वातंत्र्य और स्वच्छंद सेक्सप्रधानता की हवा को वेग ग्रहण करते देखा है जिसे ‘यौन क्रांति’ का नाम दिया गया है. इसमें बहुत कुछ बदलते और उलट पुलट होते भी देखा. रिश्ते नाते ढहे. परिवार टूटे. व्यक्ति स्वतंत्रता ने अपने रंग दिखाए. यौनिकता खुल खेली. अविवाहित माताओं की संख्या बढ़ी और बलात्कार भी बढ़े. समय पाकर पश्चिम ने इसे पूर्व-प्रस्थापित सामाजिक एवं पारिवारिक परम्पराओं का ध्वस्तीकरण माना. इग्लैंड में यदा कदा विक्टोरिया युग के जीवन मूल्यों को लौटाने के पश्चाताप भरे स्वर उभरते रहते हैं. समस्याओं पर ध्यान जाने लगा. नई सोच शुरू हुई तो तब तक मनमाने यौन सम्बन्ध बनाने और स्वतंत्र विचरण का अधिकार परिवर्तन के दबाव में सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका था. बच्चों को यौन शिक्षा दी जाने लगी ताकि तद्विषयक अपना भला बुरा सोच सकने में सक्षम हों. इसका असली परिणाम हुआ कि स्कूली बच्चों में अश्लील साहित्य देखने पढ़ने की उत्सुकता बढ़ी. उनमें वासना और मुखरित हुई. कम उम्र में यौन अनुभव लेने की प्रवृत्ति को बल मिला और इसकी आड़ में बाल यौन उत्पीडन भी बढ़ा.

कुछ देशों के बलात्कार संबंधी आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन इस प्रकार का चित्र प्रस्तुत करता है. वर्ष २०१० के दौरान अमरीका में ८४७६७ मामले दर्ज हुए, भारत में २२१७२, आस्ट्रेलिया में १७७६२, और ब्रिटेन में (इंग्लैंड और वेल्स) १५९३४. भारत में गत वर्ष यानि २०१२ में यह संख्या थी २४२०६ और हाल में सामने आईं घटनाओं के वेग को देखते हुए लगता है इस वर्ष यह संख्या कहीं अधिक होगी. पश्चिम ने यौन स्वछंदता को यदि स्वीकारा तो उसके परिणाम भुगत रहा है. मादक दवाओं और शराब का बढ़ता प्रयोग, असंयमित यौनिकता और पुरुष स्त्री के बीच नित्य बनते बिगड़ते और टूटते संबंधों के कारण युवापीढ़ी में व्याप्त बिखराव. यौन संबंधी और मानसिक रोगों में निरंतर होती वृद्धि के रूप में उसके अंतर्विरोधों की पीड़ाओं को अभिव्यक्ति मिल रही है. भारत ने अपने परिवेश के अनुरूप अपनी सामाजिकता के ढांचे में किन्हीं अपेक्षित सुधारों पर विचार कर परिवर्तन लाने के स्थान पर ऐसे विदेशी जीवन व्यवहार का अंधानुकरण किया है जो अभी भी प्रयोग परीक्षण के अनिर्णायक चरण में है. इस कारण उसे भी वैसे ही दुष्परिणामों का सामना करना पड़ेगा जो पश्चिम भुगत रहा है. देशों के बीच सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक आचार व्यवहार का अंतर भले ही संचार साधनों के विस्तार के साथ शून्यसम हो गया है लेकिन इससे भारतीय सोच समझ की प्रखरता शून्य नहीं होनी चाहिए.

दिसंबर में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के प्रकाश में आने के बाद जनता के दबाव में सरकार ने कड़ा कानून बनाने की तत्परता प्रदर्शित की. लेकिन दुर्भाग्यवश उसके बाद भी अनेक और घटनाएं सामने आईं हैं जिन्होंने बलात्कार के अपराधों की गंभीरता को रेखांकित किया है. संसद में ऐसे बलात्कारियों को मृत्युदंड दिए जाने की मांगे उभरीं हैं. कानून बनाए जाने और कानून का पालन कराने के लिए सरकार से मांग करना जनता का हक है. त्यागपत्रों की मांग को भी जनता के द्वारा प्रशासन को एक चेतावनी माना जा सकता है कि कोताही उसे स्वीकार नहीं है. इस बीच समाज के प्रबुद्ध नेताओं के द्वारा इस समस्या के सभी पक्षों पर अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आत्ममंथन की आवश्यकता है. कहाँ और क्या ऐसा था और है जो अँधेरे में रहता है. अब अति होने के साथ भारत की नारी ने सब्र के बांध तोड़ कर न्याय की मांग करते हुए पुरुष को ललकारा है. इसके साथ साथ नारी के द्वारा भी इस पर विचार करने की आवश्यकता है कि कहीं वह स्वयं अपने शरीर की नुमायशों में शामिल होकर और सेक्स उन्मुक्तता को बढ़ावा देकर पश्चिम की नारी की तरह मात्र भोग्या मानी जाने की भूल तो नहीं कर रही.

आज हमारे समक्ष ईमानदारी से उत्तर की मांग करता एक ही प्रश्न है कि क्या सचमुच भारत को ऐसा ही समाज चाहिए जिसमें न सुरा का अभाव हो और न सुन्दरी का? जहां पुरुषों और स्त्रियों में यह स्वर भी सुनाई देने लगे कि ‘यह मेरा शरीर है मैं इसके साथ जो भी चाहूं करूंगा या करूँगी? यदि इसका उत्तर हाँ में है जैसा कि इधर पश्चिम में गूंजता है तो फिर और विमर्श की गुंजायश नहीं रह जाती. यह भारत में भी उसी अपसंस्कृति के कदम जमाने के संकेत हैं जो सर्वत्र सेक्स प्रधान समाज की रचना में व्यस्त है. ऐसे समाज में ही पलते हैं नरपिशाच भी जो हर लक्ष्मण रेखा को लाँघ कर कामोत्तेजक साधनों की सहज उपलब्धि के साथ अनियंत्रित होती अपनी वासना का शिकार भोली भाली बालिकाओं तक को बना रहे हैं.